(श्री मनोहरदास जी अग्रावत, उमेदपुरा)
मानव जीवन अनूठा है, अलभ्य है, देव दुर्लभ है, सर्वश्रेष्ठ है, यह बात प्रायः सभी बुद्धिमान लोग कहते हैं, सुनते हैं और धर्म शास्त्रों में पढ़ते हैं। मानव जीवन ही एक ऐसा अनमोल रत्न है जिसके द्वारा हम सभी परम दुर्लभ पदार्थ प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य को परमात्मा ने सर्वांग पूर्णता, व्यवहार कुशलता तथा अन्यान्य अत्यन्त आवश्यकीय उपकरणों के सिवा एक ऐसी अलौकिक महान् शक्ति प्रदान की है, जिसके द्वारा वह मानव जीवन को विशाल बनाते हुए निखिल विश्वविधायक परमात्मा को भी अपने वश में कर सकता है। यह महान् शक्ति मानव देह धारियों को छोड़कर औरों को नसीब नहीं है। जिसे उस शक्ति का सदुपयोग करना आ जाता है, वह आनन्द स्वरूप बन जाता है। जगत के द्वंद्वों से, मायिक विघ्न बाधाओं से सदा के लिये सर्वथा विमुक्त हो जाता है।
एकान्त में बैठकर शान्त चित्त से अपने जीवन के यथार्थ ध्येय का विचार तो करो, आन्तरिक शोध तो लगाओ, जरा देखो तो सही तुम्हारे हृदय मन्दिर में कैसी-कैसी अनूठी वस्तुएं भरी हैं। प्रेम, भक्ति, श्रद्धा, विश्वास, शील, सन्तोषादि दैवीय गुणों का विचित्र भण्डार है। अज्ञान के घनान्धकार में छिपे हुए प्रभाकर को पहचाने की कोशिश तो करो। ऐसा करने से तुम्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का विमल विज्ञान होगा। अज्ञान की, दुःखों की संकटों की घनी घटनाएँ छिन्न-भिन्न हो जायगी, हृदय भवन के कोने-कोने में प्रकाश छा जायगा, शरीर में सच्चे जीवन का संचार होगा, सद्गुणों का विकास होगा, अन्त में सत्य श्रद्धा के प्रताप से उस परम प्रदीप्त ज्ञान के भण्डार, आनन्द के स्रोत आत्मा का और तदन्तर्यामी परमात्मा प्रभु का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाओगे।
याद रखो, तुम निर्विकारी हो। आत्मा ईश्वर का अंश है, उसमें कभी किसी प्रकार की विकृति पैदा नहीं हो सकती। शरीर ही आत्मा को विकारी बनाये हुए है। मन बुद्धि तथा विषय लोलुप इन्द्रियाँ विकार जगत की रचना करती हैं तथा आत्मा को अपने जाल में फँसाने की चेष्टाएं करती हैं, परन्तु आत्मा जब अपने स्वरूप को ठीक-ठीक पहचान लेता है तब वह उनके फैलाये हुए माया जाल को तोड़-फोड़कर विमुक्त हो जाता है, अपने नित्य निकेतन प्रभु धाम की प्राप्ति के लिए अत्यंत उत्कण्ठित हो उठता है, और मानव जीवन को सार्थक कर जगत में महान आदर्श उपस्थित करता हैं।