गायत्री द्वारा पापों की निवृत्ति

August 1951

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गायत्री के ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इस प्रथम पाद की शिक्षा यह है कि सर्वत्र तीनों लोकों में परमात्मा व्याप्त है। इसलिए उसको सर्वव्यापी एवं निष्पक्ष न्यायकारी समझकर पापों से उसी प्रकार बचना चाहिए जैसे कि राजा को सामने खड़ा देखकर चोर को चोरी करने का साहस नहीं होता। इसके अतिरिक्त सब में जब अपना आत्मा, अपना प्रभु ही व्यापक है, तो किसी के साथ अनुचित, अनीतिपूर्ण, अनिष्ट व्यवहार न करना चाहिए। हम अपने लिए जैसा व्यवहार दूसरों द्वारा होने की आशा करते हैं, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ करना चाहिए। दूसरों के हितों को आघात पहुँचाकर अपना स्वार्थ साधन करने की नीति से हमें प्रयत्न पूर्वक बचना चाहिए।

यह प्रकट है कि संसार में अधिकाँश दुःख हमारे पापों के परिणामस्वरूप होते हैं। कई बार कर्मफल तुरन्त मिल जाता है, जिसके साथ बुराई की गई है उसके द्वारा प्रत्याक्रमण द्वारा, सामाजिक अपकीर्ति द्वारा, लोगों के असन्तोष एवं असहयोग के कारण होने वाली हानि द्वारा, राजदंड द्वारा उस बुराई का दंड मिल जाता है। इनसे भी कोई व्यक्ति बच जाय तो ईश्वरीय निष्पक्ष न्याय द्वारा प्राप्त होने वाले दंड से कोई बच नहीं सकता। अंग-भंग, अपूर्ण, रोग ग्रस्त, हीन बुद्धि लोगों को देखकर यह सहज की अनुमान लगाया जा सकता है कि इनको दैवी दण्ड भुगतना पड़ रहा है। अपना कर्तव्य ठीक प्रकार पालन करते हुए भी कई बार अनायास कोई आकस्मिक दैवी विपत्ति आ जाती है या प्रयत्न करते हुए भी सफलता नहीं मिलती तो यही कहना पड़ता है कि यह हमारे पूर्व कृत कर्म का, प्रारब्ध का फल है।

यदि मनुष्य पाप कर्मों से बचा रहे तो निश्चय ही वह दुखों से बचा रहेगा। यद्यपि दुखों के अन्य कारण भी हैं। निर्दोष व्यक्ति भी कभी कभी अत्याचारियों द्वारा सताये जाते हैं या सामूहिक दोषों का फल भी व्यक्ति को भोगना पड़ता है, परन्तु यह बात ध्रुव सत्य है कि पाप का परिणाम तो दुःख ही हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति पाप न करे, तो उसके प्रारब्ध में दुखों का विधान, किस प्रकार हो सकता है?

काँटे में लिपटी हुई आटे की गोली खाते समय मछली अपने आपको बुद्धिमान समझ सकती है कि मुफ्त में ही मैंने इतना आटा पा लिया। जाल में फैले हुए दानों को खाते समय चिड़िया गर्व कर सकती है कि मैंने बिना परिश्रम के एक स्थान पर पड़ा हुआ इतना अन्न सहज ही पा लिया, पर उसे थोड़ी ही देर में अपनी भूल का पता चल जाता है। आटे की गोली के साथा पेट में पहुँचा हुआ काँटा जब मछली का पेट फाड़ता है तब उसे मालूम पड़ता है कि मैं बुद्धिमान हूँ या नहीं। चिड़िया जब जाल में फँसकर बहेलिए के हाथ में पहुँचती है, तब उसे मालूम पड़ता है कि मैं चतुर एवं सौभाग्य शाली हूँ या नहीं? पापी लोग जब जरा से प्रयत्न से बहुत सा लाभ कमा लेते है तो फूले नहीं समाते। धर्म अधर्म के पचड़े से बचकर अपना काम बना लेने की चतुरता पर उन्हें गर्व होता है। पर जब उन कर्मों का प्रारब्ध भोग कराल काल दण्ड की तरह उनके पीछे पड़ता है, तब उनकी समझ में आता है कि वे उस दिन कमा रहे थे या गँवा रहे थे, वे चतुर थे या फूहड़, उनने बुद्धिमानी का मार्ग चुना था या बेवकूफी का।

गायत्री खतरे की घंटी है, चौराहे पर खड़ी पुलिस है। वह बताती है कि पाप की ओर मत चलो। ईश्वर सर्व व्यापक है, वह किसी का पक्षपात नहीं करता, उससे तुम्हारा कोई पाप छिपा नहीं रह सकता। और तुम किसी पाप के प्रतिफल से बच नहीं सकते। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ के अक्षर निरन्तर हमें यही शिक्षा देते हैं। रेल की पटरी के किनारे पर जो सिग्नल खड़े होते हैं, वे बताते हैं कि किधर जाना चाहिए किधर नहीं। यदि सिग्नल का आदेश न मानकर कोई ड्राइवर अपनी रेल गाड़ी को मनमानी रीति से दौड़ा ले जाय तो परिणाम कितना भयंकर होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। वह रेल किसी से टकरा जायगी या उलट जायेगी और ड्राइवर को अपनी हेकड़ी का नतीजा भोगना पड़ेगा। गायत्री का सिग्नल हमें सावधान करता है कि अपनी जीवन नीति की रेल को सही मार्ग पर ले चलो अन्यथा अपने स्वाभाविक सुखों से हाथ धोना और दुखों की यातनाओं से पीड़ित होना पड़ेगा।

गायत्री के प्रथम चरण में दूसरों के प्रति आत्मीयता, ममता, प्रेम, उदारता, ईमानदारी, सेवा एवं मधुरता का व्यवहार करने की शिक्षा जिसके अन्तःकरण में विराज गई होगी, माता ने जिसको अपने प्रथम चरण का स्पर्श करने दिया होगा, वह अनेक सामाजिक कष्टों से अनायास ही छूट गया होगा।

अपने कुटुम्बियों, पड़ौसियों, समीपवर्ती लोगों, के साथ यदि विरोध, मनोमालिन्य, द्वेष, संघर्ष, कलह, चलता हो तो वे हमें इतना सहयोग नहीं देंगे जितना कि देना चाहिए। जबकि उनकी सद्भावना की आशा की जाती है, तब भी वह प्राप्त नहीं होगी। इसके अतिरिक्त वे विरोधी होने के कारण तरह-तरह की बाधाएं उत्पन्न करते रहेंगे और हानि पहुँचाने वाले आयोजन, षड़यन्त्र या आक्रमण करने का जब भी उन्हें अवसर मिलेगा, न चूकेंगे। मुकदमा, फौजदारी, चोरी, डकैती, कत्ल, बहिष्कार, अपमान, शिकायत, चुगली, निन्दा, दोष प्रदर्शन आदि हानियाँ अकस्मात तो कभी कभी ही होती है, अधिकाँश उनके पीछे पुरानी शत्रुता या किसी विरोधी का गहरा मनोमालिन्य काम करता रहता है। जो व्यक्ति अपने से असंतुष्ट हैं या द्वेष रखते हैं, बहुधा उन्हीं का ऐसे कार्यों में विशेष हाथ रहता है।

यदि शत्रुता न हो तो इस प्रकार की आपत्तियों की संख्या अत्यन्त ही न्यून हो जाय। अपनी उन्नति में सबसे बड़ी बाधा यह होती है कि जो लोग हमारी सहायता कर सकते हैं, वे अपना हाथ खींच लेते हैं। यदि थोड़े से व्यक्ति किसी की पीठ पर सहायक होते हैं, तो वह उनके थोड़े थोड़े सहयोग का सहारा पाकर आशाजनक उन्नति कर सकता है। संसार में जितने भी सफल और समुचित व्यक्ति हुए हैं, उनकी सफलता का एक महत्वपूर्ण कारण उनके सहायक भी हैं। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही विद्वान, बुद्धिमान, चतुर, शक्तिवान क्यों न हो, पर सहयोग के अभाव में लुँज-पुँज ही रहेगा, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य न बन सकेगा। असहयोग भले ही द्वेष के बराबर हानिकारक न हो पर वह भी जीवन की प्रगति को रोक देने में एक विशाल पर्वत की तरह अड़ कर खड़ा हो जाता है। द्वेष तीव्र रोग है, असहयोग मंद रोग। दोनों एक ही जाति के हैं। अन्तर केवल तापमान का है। परिणाम दोनों का ही अनिष्ट-कारक होता है।

द्वेष और असहयोग जन्य विपत्तियाँ, बाधाएँ अकारण नहीं आतीं। संसार में बुरे आदमी भी कम नहीं हैं पर उनकी बुराई तभी उग्र रूप में प्रकट होती है, जब सामने से उनके प्रकट होने का कोई अवसर हो। सिंह खूँखार है पर उसकी खूँखारी प्रकट तभी होती है जब उसका आहार सामने आए। पेड़, पत्थर, नदी, तालाब के प्रति वह खूनी नहीं होता। अग्नि में जलाने का गुण है, पर वह जलाती उन्हीं चीजों को है जो जलने लायक हों। यदि ईंधन न मिले तो प्रचण्ड अग्नि को भी हार माननी पड़ेगी, वह बुझकर ठंडी हो जायगी। इसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के मनुष्य भी अपनी दुष्टता का पूरा प्रकाशन करने में तभी सफल होते हैं, जब सामने वाले के स्वभाव में पर्याप्त त्रुटियाँ मौजूद हों। यदि गायत्री के प्रथम चरण की आराधना करके हमने अपने स्वभाव को आत्मीयतापूर्ण एवं मधुर बना लिया है, तो बुरे व्यक्तियों की उग्रता देर तक नहीं रह सकती, वे भी सद्व्यवहार से पिघलाये जा सकते हैं, और उनके अन्दर जो थोड़ी बहुत भलमनसाहत है उससे भरपूर लाभ उठाया जा सकता है।

आत्मीयता का अर्थ है-दूसरों के प्रति हार्दिक रूप से सद्व्यवहार करना। यह सम्मोहन अस्त्र है, जिसके द्वारा अनेक व्यक्तियों को वशवर्ती बनाया जा सकता है। कई धूर्त इस स्वभाव से अनुचित लाभ भी उठा लेते हैं, और कई बार अपने को ठगा जाना पड़ता है, पर इस हानि से कुछ बहुत बिगाड़ नहीं होती। इस प्रकार ठग जाने से भी अपनी कीर्ति, साधुता एवं प्रतिष्ठा बढ़ती है, जो पीछे जाकर उस हानि से कई गुना लाभ दे जाती है।

जिसके अधिक मित्र हैं, अधिक सहयोगी और स्वजन हैं, उसके प्रारब्ध भोग भी इसके हो जाते हैं और सुनिश्चित भवितव्यता का जो कष्ट होना चाहिए, उससे कहीं कम होता है। कल्पना कीजिए कि दो व्यक्तियों को प्रारब्ध वश एक साथ रोग होता है, इनमें से एक को सब घृणा और द्वेष करते हैं। बीमारी की हालत में उसे कोई सहायता नहीं मिलती। यह भूखा, प्यासा, मल मूत्र से सना हुआ, सर्दी-गर्मी के दुःख सहता हुआ, बिना दवादारु अकेला पड़ा रहता है। ऐसी दशा में उसका शारीरिक और मानसिक कष्ट अनेक गुना बढ़ जायेगा। प्रारब्धवश उसे एक सप्ताह रोगी रहना था तो एक सप्ताह में ही उसे रौरव नरक के दर्शन हो जाते हैं। इसके विपरीत दूसरा वह रोगी, जिसे प्रारब्धवश इतना ही रोगी रहना था, अपने स्वजन सहयोगियों से घिरा हुआ है। उसे उचित परिचर्या, चिकित्सा, सेवा, मनोरंजन आदि मिलता रहता है। उसका दुख हँसते बोलते बातों ही बातों में कट जाता है। दूसरों की सेवा और सहानुभूति में अपने कष्टों को भूला रहता हैं। अब इन दोनों रोगियों के एक समान प्रारब्ध की तुलना की जाय तो पता चलता है एक ने बहुत अधिक और दूसरे ने बहुत कम कष्ट सहकर अपना भोग पूरा किया। दैवी आपत्तियाँ, जो अनिवार्य है, आती हैं, परन्तु गायत्री के प्रथम चरण में अपने उच्च स्वभाव के कारण वे भी कम कष्ट देकर भुगत जाती हैं।

आत्मीयता को एक विशेष स्थान पर केन्द्रित कर देने से प्रेम का लोप होकर मोह उत्पन्न हो जाता है। मोह ही शोक का कारण है। जिस मनुष्य के हृदय में सच के प्रति व्यापक एवं विस्तृत सहानुभूति होती है। सब की आत्माओं में से अपनेपन की आत्मीयता परिलक्षित होती है, ऐसी दशा में अपने बच्चे की मृत्यु का उतना ही शोक हो सकता है, जितना कि पड़ौसी के बच्चे के मरने का। यदि उस व्यापक आत्मीयता को दूसरों पर से हटा कर किसी एक ही व्यक्ति तक सीमित कर लिया जाय तो ही ऐसा हो सकता है कि दूसरों के मरने पर जरा भी दुख न हो और अपने सम्बन्धियों के मरने पर शोक विह्रल हो जाया जाय। गायत्री का प्रथम चरण हमें व्यापक आत्मीयता प्रदान करता है और बताता है कि कोई भी प्राणी किसी दूसरे की सम्पत्ति नहीं, सब ईश्वर के अंश हैं और अपने स्वतन्त्र कर्म भोग के आधार पर जन्म मरण के चक्र में घूम रहे हैं।

गायत्री का प्रथम चरण जब हृदय में आता है, तो मनुष्य इस प्रकार की अनेक कुबुद्धियों से बच जाता है, जो समय-समय पर दुःखों के पर्वत सिर पर पटकती है। आस्तिकता और आत्मीयता के कारण वह पाप करने से बच जाता है। जो पापों से बचा होगा वह दुःखों से भी बचा रहेगा। माता का प्रथम आशीर्वाद वह सद्बुद्धि देता है, जिससे हमारे सामाजिक दुःख दूर होते हैं। दूसरे व्यक्तियों के संपर्क से उत्पन्न होने वाले व्यवहार की भूल से मिलने वाले, दुःखों की जड़ गायत्री के प्रथम प्रकाश से ही कट जाती है।


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