हमारी सर्वश्रेष्ठ शक्ति

August 1951

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(श्री स्वामी विधानन्द की सरस्वती)

छान्दोग्योपनिषद में एक कथा है कि-एक समय प्राण, कान आँख आदि इन्द्रियों में इस बात पर पारस्परिक बातचीत हो गई कि-

‘हम सब में श्रेष्ठ कौन हैं?’

बढ़ते-बढ़ते इस बात ने कलह अर्थात् झगड़े का रूप धारण कर लिया, और वह खूब बढ़ा, यहाँ तक कि मार पीट की नौबत आ गई। इनमें से कान ने कहा कि ‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ’ वाणी आगे बढ़ कर कहने लगी-रे कान! चुप रह बहुत बढ़ कर बातें न बना, नहीं तो कान में अंगुली डाल कर तुझे बेकार कर दूँगी-तू नहीं जानता कि ‘मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ।’ वाणी अभी कह ही रही थी कि लाल लाल रूप धारण करके आँखें वाणी की और झपटी-और तपाक से कहने लगी ‘री जीभ! तू कैसे पटापट बोले जा रही है। मुँह संभाल! नहीं तो जबड़े में से खीज कर बाहर फेंक दूँगी। तूने अभी तक भी नहीं जाना कि ‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ।’ जब इस प्रकार इन्द्रियों में परस्पर झगड़ा तूल पकड़ने लगा, तो वे सब मिलकर प्रजापति के पास गई और उनसे बोली, कि-

‘हे प्रजापति! हम सब में श्रेष्ठ कौन है? हम अपना झगड़ा अपने आप नहीं मिटा सके इसीलिए आप के पास आई हैं। हम आपको विश्वास दिलाते हैं-कि जो निर्णय आप करेंगे वह हम सबको स्वीकार होगा।’

पाठक वृन्द! यह कैसा करुणाजनक दृश्य है। अपना पारस्परिक झगड़ा अपने आप न सुलझाकर इसी प्रकार दूसरों की शरण में जाना पड़ता है। इस देश के इतिहास के पन्ने 2 पर अनेक वीभत्स चित्र दिखाई दे रहे हैं। वास्तव में ‘कान’ आदि इन्द्रियों को आपस में झगड़ने का कोई कारण उपस्थित नहीं था-क्योंकि भगवान ने प्राणी के शरीर में उनको यथा स्थान पृथक-पृथक जगह दी है तथा नाम भी निश्चित कर दिया है। उनको सोचना चाहिए था कि हम जहाँ पर है और जैसे हैं वही हमारे लिए उपयुक्त है। किन्तु यदि उन्होंने अपने अविवेक से कोई झगड़ा कर भी लिया था, तो उनको स्वयं ही सुलझा लेना चाहिए था। परन्तु एक बार झगड़े में पड़ जाने पर भूत-भविष्यता का कुछ भी विचार न करके पागल की नाईं अपना सर्वनाश कर लेता है। परन्तु इन्द्रियों के लिए यह सौभाग्य की बात है कि वे जिसके पास न्याय के लिए गई थीं-वह निःस्वार्थ और न्याय परायण था। दूसरों की लड़ाई से उन्होंने अनुचित लाभ नहीं उठाया। उनकी लड़ाई बड़ी सुन्दरता से निपटा कर उनमें मेल करा दिया। उन इन्द्रियों में ‘सर्वश्रेष्ठ कौन हैं? इसका निर्णय स्वयं न करके उन इन्द्रियों से ही कराया। उनको एक युक्ति स्मरण आई और वे इन्द्रियों से बोले कि-

‘तुम में से जिनके चले जाने पर शरीर तेजहीन हो जाय-और उसका सब काम बन्द हो जाये उसी को तुम सर्वश्रेष्ठ जानो।’

ऐसी युक्ति सुझाने पर सब इन्द्रियों ने प्रजापति का बड़ा आभार माना मन ही मन बड़ी प्रसन्न हुई-क्योंकि सभी को अलग-अलग यह पूरा-पूरा निश्चय था कि मेरे यहाँ से चले जाने पर शरीर का काम नहीं चल सकेगा।

इस परीक्षा के लिए सब से प्रथम वाणी तैयार हुई। यह स्वभाविक ही है कि वाणी-सा लड़ाकू और आग में घी डालने वाला संसार में दूसरा कौन हो सकता है? वाणी स्वप्रतिज्ञानुसार शरीर को छोड़ कर एक वर्ष तक बाहर रही।

एक वर्ष के पश्चात् वाणी बड़े अभिमान के साथ वापिस लौटी। वापिस आते हुए वह मन ही मन सोचती थी कि जिस प्रकार चिड़िया के बच्चे बड़ी उत्सुकता से चिड़िया के वापिस आने की बाट जोहते हैं-इसी प्रकार सब इन्द्रियाँ मेरी राह देखती होंगी। केवल मेरे लौटने मात्र की देरी है, वे मेरा जय-जयकार करेंगी। इन्हीं सुख स्वप्नों में लीन वाणी लौटी। किन्तु जब उसने यह सुना कि मेरी अनुपस्थिति में भी समस्त इन्द्रियों का काम बे रोक टोक अच्छी तरह से चलता रहा है-तो उसके अभिमान पर तुषारापात हो गया। उसने अन्य इन्द्रियों से पूछा कि-

‘इन्द्रियों! मेरे बिना तुम्हारा काम कैसे चल सका?’

इन्द्रियों ने उत्तर दिया, कि-

‘ठीक उसी प्रकार चला-जैसे गूँगे का काम चलता है। तेरे बिना हमारे किसी काम में बाधा नहीं पड़ी।’

ये शब्द सुनते ही कि -गूंगे का काम मेरे बिना चलता है-वाणी ने लज्जा के साथ अपने स्थान को ग्रहण किया।

वाणी तो पराजित हुई-किन्तु आँखों ने सोचा कि वाणी बे-समझ है, इसलिए उसके पराजित हो जाने से कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हम वैसे थोड़े ही हैं। आँखों के बिना अन्धा शरीर क्या कर सकता हैं? शरीर से बाहर जाने से पूर्व ही आँखें अपने आप ही यह कल्पना करने लगीं कि हम एक वर्ष के बाद वापिस लौट आई हैं, और सारी इन्द्रियाँ हमारा श्रेष्ठतम का अभिषेक कर रही हैं। आँखें बाहर गईं और एक वर्ष के पश्चात जब वे वापिस आई और देखा कि हमारी अनुपस्थिति में भी शरीर को किसी प्रकार की क्षति नहीं हुई और उसका काम भले प्रकार चलता रहा। इससे आँखों का भी अभिमान टूट गया और उसके श्रेष्ठत्व के अहंकार का मान मर्दन हो गया।

वाचक वृन्द! आँखों की तरह कई मनुष्य अपने बाद हमारे कुटुम्ब का क्या होगा? इसी चिन्ता से भावी दुःख की आशंका में अपना आधा सुख नष्ट कर डालते हैं। ऐसे लोगों को यह अभिमान होता है कि इस कुटुम्ब का भरण-पोषण करने वाले हम ही है। वे ईश्वर को भूल जाते हैं। उनको यह ज्ञान नहीं रहता की जिसको हम अपना कहते हैं वह अपना न होकर परमेश्वर का है। यदि उनसे कोई कहे कि कुटुम्ब का पालन-पोषण करने वाला ईश्वर है, तो उनको इस पर विश्वास नहीं होगा। वे नहीं समझते कि ईश्वर ने हमारा जिस देश, जाति या कुटुम्ब में जन्म दिया है, उसकी निष्काम-वृत्ति से सेवा करना हमारा कर्तव्य है। उनके इस विचार और विश्वास से कि उनके पीछे देश, जाति या कुटुम्ब का कार्य करने वाला कोई नहीं है-देश का अहित होता है। ऐसे लोग मरने के पश्चात् आकर देखें तो उन्हें अवश्य पता चल जाय कि उनकी चिन्ता करना सर्वथा व्यर्थ था।

आँखों को जब आश्चर्य हुआ और उन्होंने अन्य इन्द्रियों से कहा कि-”तुम हमारे बिना कैसे जीवित रहीं?” तो उन्होंने उत्तर दिया कि “जैसे एक अन्धा जीता है, वैसे ही हम भी जीवित रहीं।”

यह सुनते ही कि अन्धे का काम हमारे बिना चलता है, और उसका कोई काम रुका नहीं रहता- आँखें झेंप गईं और चुपके से अपने स्थान में आ गई।

आँखों की आँखें खुल गईं अब कानों की बारी आई। कानों ने सोचा कि हमारे बिना शरीर का कोई काम न चलेगा और वे बाहर चले गये। एक वर्ष तक समस्त सृष्टि, स्मृति और श्रुति की मधुर 2 बातें सुनकर वे वापिस आये। इस एक वर्ष में कानों को बहुत से बहरे मिले थे और उन्होंने देख लिया था कि कानों के बिना उनका काम ठीक 2 चल जाता है। अतः वे सोचते आते थे कि हमारे लौटने पर हमें कानों और आँखों जैसा ही अनुभव हो तो आश्चर्य क्या है? इसलिए कानों ने प्रण किया कि अब ये कभी आपस में इस बात के लिए झगड़ा नहीं करेंगे कि ‘हम में श्रेष्ठ कौन है ? और वे अपने स्थान पर चले गये।

पाठकों ने देखा कि वाणी चुप हुई किन्तु तब भी आंखों की कुछ समझ में न आया। आँखों की आंखें अच्छी तरह से खुल गई, फिर भी कान न समझ सके और कानों के पराजित होने पर भी मन का अभिमान दूर न हुआ। वह भी बाहर निकला और एक वर्ष तक पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता रहा।

मनुष्य गिन कर शरीर के बालों की संख्या बता सकता है, किन्तु इस द्रुत वेगी मन ने संसार की कितनी प्रदक्षिणाएँ की हैं, इनको कोई नहीं बता सकता। किन्तु मन के शरीर से बाहर आने पर एक बड़ा लाभ हुआ-वह यह कि इस अवधि में उसको हर बार नवजात शिशु सैकड़ों और हजारों की संख्या में मिले। इन बच्चों को देख कर मन शान्त हो गया। उन बच्चों का सारा व्यवहार ऐसा ही था, मानो वे मन को पहचानते भी न हों। सूक्ष्म मन को यह देखने में देर न लगी कि बच्चे अपने व्यवहार में अच्छे-बुरे काले-गोरे किसी का भी कुछ विचार नहीं रखते। मन को तो यह अभिमान था कि यह शक्ति ही उसका विशेष हेतु है, किन्तु वह लक्षण बच्चों में दिखाई नहीं दिया-और उसका सारा काम अच्छी तरह से चल रहा था, वे दिनों दिन बढ़ते जाते थे और अपनी बाल क्रीड़ा से अपने माता पिता को स्वर्गीय सुख दे रहे थे। मन ने इस विषय का खूब अध्ययन किया। जैसे पका हुआ फल डाल से छूट कर गिर जाता है, उसी प्रकार मन का अहंकार भी टूट गया। उसने अवधि समाप्त होते ही शरीर में प्रवेश किया।

अन्त में प्राणों की बारी आईं। सारी इन्द्रियाँ पराजित होकर अपने 2 स्थान में नियुक्त थीं, फिर भी उनको यह पूरा विश्वास था कि एक वर्ष में प्राणों पर काफी संकट आयेंगे, वे मन ही मन सोचने लगीं कि -प्राण, न तो वाणी, न कान, न आँख, न मन तो फिर उसके बिना आँख, नाक, कान, मन और वाणी के रहते हुए शरीर को प्राण की क्या परवाह है? बेचारा प्राण वर्ष भर भटक कर वापिस आयेगा ही, इसमें उनको रत्ती भर भी शंका न थी।

इन्द्रियाँ अभी ऐसा विचार करें न करें, इतने में तो उन्हें लगा कि मानो किसी ने जोर का धक्का दिया हो। प्राण ने शरीर से बाहर अभी पैर रखा भी न था कि सारी इन्द्रियों को ऐसा लगा कि मानो हमारे ही प्राण जा रहे हों। वाणी गूँगी हो गई, आँखें सफेद पड़ गईं, कान बहरे हो गये, मन बेमना हो गया। इन इंद्रियों को सब शक्ति क्षीण हो गई, तब उनके मस्तिष्क में प्रकाश पड़ा। वाणी की समझ में आया कि मैं जिस गिरा से बोलती थी, वह मेरी शक्ति न होकर प्राण की थी। वाणी की तरह ही अन्य इन्द्रियों ने भी जाना कि हम जिस सामर्थ्य से काम करते थे-वह हमारा न होकर प्राण का ही है। अब उनको प्रजापति से यह कहलवाने की आवश्यकता नहीं रही कि - “प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है।” सब इन्द्रियों की ओर से वाणी ने प्राण की स्तुति की और बोली, कि -

“हे भगवन्! तू हम में से अन्यत्र कहीं न जा। एक वर्ष तो क्या एक क्षण भी हम तेरे बिना नहीं रह सकते। तू हम सब से श्रेष्ठ है। हम तुझे प्रणाम करते हैं।”

वाणी द्वारा स्तुति समाप्त होते ही अन्य इन्द्रियों ने प्राण जी जय! प्राण की जय!! आदि जयघोष आदि जयघोष से वाणी की स्तुति का समर्थन किया।

उपरोक्त कथा से पाठकों ने भली भाँति समझ लिया होगा कि वास्तव में प्राण ही सब इन्द्रियों में श्रेष्ठ और शरीर का आधार है। जैसे घर का दिया बुझ जाने पर घर में घोर अन्धकार छा जाता है- वैसे ही प्राण ज्योति के बुझते ही सारे शरीर में अन्धेरा हो जाता है। प्राण शक्ति है। इसलिए जब हम थक जाते हैं तब कहते हैं कि अब जान नहीं रही। शक्ति पर ही सब काम अवलम्बित हैं। इसलिए आप लोग भी उस प्राण रूपी ईश्वर की उपासना करके उसे प्रसन्न करें। यह ध्यान रखो कि तुमने यह शक्ति प्राप्त की-कि अभ्युदय और निःश्रेयस तुम्हारे हाथों में हैं। संसार में अनेक भौतिक शक्तियाँ अपने अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं, पर सर्वश्रेष्ठ तो आत्म शक्ति ही है। हमें इसके संचय और विकास की ओर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए।


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