समाज का आधार वेदान्त

August 1951

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(श्री धर्म देव जी शास्त्री)

कुछ दिनों की बात है, भारत के एक प्रसिद्ध समाजवादी नेता से मैं ‘अध्यात्म’ के सम्बन्ध में बात कर रहा था। बात-चीत के दौरान में मैंने उनसे पूछा कि आप गरीबों की गुर्बत को नहीं देखते, सो क्यों? यह प्रश्न मैंने ऊँची भूमिका पर ही किया था। प्रश्न का जो उत्तर उन्होंने दिया वह असंतोषजनक नहीं था। प्रायः ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘मानवीय मनोवैज्ञानिक स्थिति’ ही बताया जाता है। परन्तु जब मैंने उक्त महानुभाव से इस मनोवैज्ञानिक स्थिति का भी दार्शनिक पहलू पूछा, तब वे बोले इतना आगे जाने की आवश्यकता नहीं हैं।

मैंने कहा-आप अपने विचारों को वैज्ञानिक रीति से सिद्ध नहीं कर सकते, अर्थात् ‘अमुक स्थिति तक ही तर्क का दखल मानते हैं, आगे नहीं। इतना कह कर मैंने उन्हें बताया कि हम आध्यात्मवादी लोग भी संसार में गुर्बत और दुःख को सदा के लिए दूर करना चाहते हैं और उन्हें सहन नहीं कर सकते। आप इसका कारण नहीं बता सकते, परन्तु हमारे पास इसका वैज्ञानिक, दार्शनिक समाधान है।

‘वह क्या है?’ जब ऐसा प्रश्न उन्होंने किया तब मैं बोला ‘हम अध्यात्मवादियों का मत हैं कि हम में से प्रत्येक में वह तत्व है जो सब में समान है। इस प्रकार हम सब का एक अद्भुत तादात्म्य है। न चाहते हुए भी हमें यही ‘अभेद’ ही दूसरे के दुःख को न देख सकने की स्थिति में डाल देता है यहीं कारण है कि मनुष्य अपने शत्रु के साथ भी किये जाने वाले अन्याय को नहीं देख सकता। कम-से-कम शत्रु की भी मृत्यु पर यह भावना दुःख मानने पर विवश कर देती है।

साँप हमारा अन्तक है। इसीलिए साँप को ‘मृत्यु’ कहा जाता है। परन्तु जब हम मरे हुए साँप को देखें तो उसके प्रति भी करुणा उत्पन्न होती है। कम-से-कम इतना तो होता है कि यदि कोई मरे हुए साँप को डंडे से मारने लगे, तो उसे सब बुरा मानते हैं। यह सब क्यों होता हैं? इसका कारण केवल आध्यात्मवाद ही बता सकता है। सब में एक आत्मा है। हम सब एक ही माता-पिता की सन्तान है। यह भावना ही ‘समाज’ का दार्शनिक आधार है और हो सकती है। इसीलिए वेद के ऋषि ने मनुष्यों को उपदेश दिया है- ‘सम्भा्रतरः समनसः यूयम्’ ‘अन्याऽन्यमीभहर्यत पुत्रं जात मिवाध्न्या’। अर्थात्- तुम सब आपस में भाई हो, इसलिए एक दूसरे को इस प्रकार चाहो जैसे नवजात वत्स को गाय चाहती है।

गीताकार ने जो मानव के लिए ‘सर्वभूत हितेरताः’ का आदर्श रखा है, उसका भी दार्शनिक आधार उपयुक्त एकात्म ही है। वास्तव में बड़े से बड़ा नास्तिक भी व्यवहार में ऐसा आचरण करता हुआ भी इसके मूल का ही उच्छेद करता है। भारतीय महात्माओं की यही विशेषता है कि उन्होंने विश्व के इस ऐकमत्य का साक्षात्कार किया और उसी के आधार पर समाज राजनीति और समस्त व्यवहार का प्रसाद खड़ा किया है। वेदान्त का यह व्यावहारिक रूप ही ‘धर्म’ हैं।

वस्तुतः जिस प्रकार वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर प्राकृतिक सत्यों का शोधन होता है, उसी प्रकार प्रकृति से भी परे जो एक तत्व है उसको भी हमारे आचार्यों ने शुद्ध वैज्ञानिक आधार पर देखा है-ऐसे देखा है कि जैसे हाथ पर रखी किसी चीज को देखा जाता है।

आज भी जो चाहे इस अध्यात्म शास्त्रीय वैज्ञानिक-पद्धति के अनुसार इस सत्य का साक्षात्कार कर सकता है। व्यवहार से ही यह ‘वेदान्त’ अधिकाधिक मँजता है। ‘भेद में अभेद’ का साक्षात्कार करना ही वेदान्त का निखरा रूप है। गीताकार ने निम्न श्लोकों से इसी व्यवहारिक वेदान्त का निर्देश किया है-

‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योग-युक्तात्मा सर्वत्र सम-दर्शनः॥

योमाँ पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।

तस्याऽहं न प्रणश्यामि सच में न प्रणश्यति॥

सर्व भूत स्थितं यो माँ भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥

आज के राजनीतिज्ञ कहते हैं कि सब देशों की आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक अवस्थाएँ एक दूसरे से पृथक नहीं की जा सकतीं। ‘वेदान्त’ ही इसका दार्शनिक आधार हो सकता है। ‘वेदान्त’ तो कहता है केवल मनुष्य ही नहीं-चेतन ही नहीं समस्त विश्व एक दूसरे से जुदा नहीं किया जा सकता। क्यों कि समस्त विश्व उस आत्मा का शरीर है और जीवित शरीर का लक्षण ही है अभेद।

‘यः विश्वे तिष्ठन् विश्ववस्य अन्तरः यस्य विश्वं शरीरं यं विश्वं न वेद’ जब संसार के लोग इस उच्च भूमिका पर आ जायेंगे तब आज की संकीर्ण राष्ट्रीयता से (जिसका रूप सदा परिवर्तित और परिवर्धित होता रहता है) तथा संकीर्ण समाजवाद’ से ऊपर उठ कर मानवता की दृष्टि से देखेंगे, तब ही वास्तविक समाज बनेगा, जिसमें गुर्बत नाम को भी नहीं होगी। थोड़ा सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो विश्व की सब समस्याएँ एक दूसरे से अभिन्न हैं, इसलिए सबका समाधान भी एक है। पूर्ण दृष्टि के बिना पूर्ण समाधान असम्भव है।

‘वेदान्त’ की विशेषता ही यह है कि वह वह ‘भूमा’ का ‘पूर्णत्वः’ का साक्षात्कार करता है। ‘भूमात्सेव विजिज्ञासितव्यः’। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश होने पर सब पदार्थ स्पष्ट हो जाते हैं, तब दीपक, चन्द्र, विद्युत किसी के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। सबकी उपयोगिता सूर्य के प्रकाश में समा जाती है। इसी प्रकार ‘वेदान्त’ का व्यवहारिक रूप जब मनुष्य को ज्ञात हो जाता है, तब वह इस आलोक को व्यक्ति, समाज, देश और विश्व के साथ किये जाने वाले प्रत्येक व्यवहार में प्रयुक्त करता है। यही ‘समाज का ‘गुर’ और ‘सिद्ध योग‘ है। पश्चात्य अविभौतिकवाद भेद को व्यापक बनाकर अभेद का साक्षात्कार करने पर विश्वास करता है। वस्तुतः ‘नेह नानाऽस्ति किश्चन’ यह दर्शन ही समाज का आधार बन सकता है। गाँधी-विचार धारा का यही आधार है।

दुर्भाग्य से भारत में और विश्व में आज भेद-दृष्टि की प्रचुरता है। और इस भेद-दृष्टि को राष्ट्रीयता सांप्रदायिकता और वर्ण आदि के आधार पर प्रमाणिक तथा ग्राह्य बनाया जा रहा है। उपनिषद् के ऋषियों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व जो उपदेश सुनाया था आज फिर से उसे सुनने का समय उपस्थिति हुआ है। यह उपदेश पुराना होने पर भी नया है, सनातन है। सनातन, का अर्थ है नित्यनूतन। वह उपदेश है-’ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्वमसि’। यह विश्व एक ही आत्मा का शरीर है, वह आत्मा ही ‘सत्य’ है। इसलिए अपने और पराये का भेद भी मिथ्या है- ‘तत्त्’ वह अर्थात् ‘पर’, ‘त्वम्’ तू ही है, ‘तू’ और ‘वह’ एक है। अर्थात् कोई पर नहीं। हिन्दू-मुस्लिम समस्या, हरिजन-सवर्ण समस्या, किसान-जमींदार समस्या आदि सभी का समाधान यही दर्शन कर सकता है।

ऐतादात्म्यमिदं् सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्वमसि

वेदान्त को उपनिषत् कह कर हमारे आचार्यों ने उसे बहुत मान दिया है। जिस भारत ने वर्षों तक वेदान्त की व्यावहारिकता का सफल प्रयोग किया है, उसमें आज अवसरवादियों और आत्मा-नास्तिकवादियों का बढ़ता हुआ प्रवाह और प्रभाव अखरन की चीज है। हमारा तो दृढ़ मत है कि आज भारत वर्ष में जो अवसाद और दैववाद-भाग्ययैकवादिता का आधिपत्य हैं, उसका वास्तविक प्रतीकार -वेदान्त’ का प्रचार ही है। यूरोप का केवल आधिभौतिकवाद और उपाय यहाँ किसी प्रकार कारगर नहीं हो सकते। यूरोपीय विद्वानों द्वारा प्रतिपादित भय और भ्रम-मूलक अध्यात्मवाद भारतीय वेदान्ताऽध्यात्म से भिन्न वस्तु है। भारत की उन्नति के लिए आवश्यक है कि भारतीयों का दृष्टिकोण व्यापक हो और व्यापक दृष्टिकोण का ही दूसरा नाम वेदान्त’ है।

दुर्भाग्य से आज ‘वेदान्त’ उन लोगों के हाथ में है जो व्यावहारिकता से कोसों दूर हैं, जिन्होंने वेदान्त का केवल यही अर्थ समझा है, कि जहाँ भी कुछ संघर्ष हो उससे दूर भागना ही ‘वेदान्त’ है। जब की सच्चा वेदान्त इससे विपरीत है।

विश्व की समस्त समस्याओं का समन्वयात्मक सच्चा समाधान करने वाला शास्त्र ही ‘वेदान्त शास्त्र’ है। आज भारतवासी झंझटों से ऊब जाने की हालत में मनबहलाव का साधन भर-’वेदान्त’ को समझते हैं, जब कि सच्चा वेदान्त बुराई के विरुद्ध केवल भगवान् के विश्वास पर अकेले भी लड़ते-लड़ते मरने की दशा में परीक्षित होता है।


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