सुख और सन्तोष का उद्गम केन्द्र

August 1951

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(श्री रामवली सिंह जी सुजानीपुर)

हम चाहे आशावादी हों या निराशावादी, यह सांसारिक जीवन हमारे लिए दुःखपूर्ण अवश्य प्रतीत होता है। बच्चा जब से अपनी माँ के उदर में आता है उसे दुःख का अनुभव होने लगता है। मनुष्य अपने जीवन के शुरू से लेकर अन्त तक दुःख के अनेकों जागृत स्वप्न देखा करता है। मनुष्य इन दुःखों से मुक्त होना चाहता है और इस सम्बन्ध में नाना प्रकार की कल्पनायें किया करता है, जो निम्न लिखित हैं-

1.इस लोक के बाहर परन्तु व्यक्त जगत के अन्दर ही किसी दूसरे लोक में।

2. इस लोक के भीतर ही परन्तु अतीत के क्षेत्र में।

3. इस गोचर जगत से परे अभौतिक और अव्यक्त क्षेत्र में।

4. इस लोक के भीतर परन्तु भविष्य के गर्भ में।

1. यही कारण है कि कुछ लोग इस संसार को दुःखमय समझ कर एक स्वर्ग की कल्पना करते हैं जो हमारे व्यक्त जगत के भीतर किसी अन्य लोक में होता है। उस स्वर्ग में हम उन्हीं सुखों की अधिकता देखते हैं, जिनका यहाँ अभाव होता है। उस स्वर्ग में हमें वही आनन्द प्राप्त होता है, जो इन साँसारिक दुःखों के अभाव में प्राप्त होता है। स्वर्ग के प्राणी हमें अजर और अमर दिखाई पड़ते हैं। वहाँ खाने पीने के लिए बहुत सुन्दर स्वादिष्ट पदार्थ-अमृतादि मिलते हैं। स्वर्ग का सुख इन भौतिक दुःखों का अभाव ही है।

2. दूसरे प्रकार के लोग वे हैं, जो इस समय तो दुःख ही दुःख देखते हैं, परन्तु उनकी निगाह में अतीत का युग सुख ही सुख का युग था। वे राम राज्य को अपना सब कुछ समझते हैं और उसी की प्राप्ति के लिए चिन्तित दिखाई पड़ते हैं। ऐसे लोगों की सम्मति से यह दुःख, जिसका भयानक रूप हम अपनी आंखों के सामने देखते हैं अतीत के युग में न था। पुराणों में ऐसे सुखों का वर्णन है, सभी धर्मात्मा ऐसे सुखों का उपभोग करेंगे।

3. तीसरे तरह के व्यक्तित्व के मनुष्य अतीत युग के युग को सुख का युग नहीं मानते। वे भविष्य में सुख का युग (स्वप्न) देखते हैं। ऐसे मनुष्य जिस प्रकार के सुखों की कल्पना किया करते हैं अथवा कर सकते हैं, वह उन्हें भविष्य में ही प्राप्त होंगे। उनके लिए भविष्य बड़ा ही सुन्दर है, वहाँ वर्तमान की आशा भविष्य पर निर्भर है। इतना सब होते हुए भी उनके भविष्य के सुखों का रूप निश्चित नहीं हैं। ऐसे अनिश्चित सुखों के लिए बहुत से लोग वर्तमान के प्रति विद्रोह करते दिखाई देते है।

4. इन तीन प्रकार के मनुष्यों के अलावा कुछ चौथे प्रकार के भी मनुष्य हैं, जो व्यक्त जगत और ज्ञात कारण में सुख के रूप का दर्शन नहीं पाते। वे अनन्त और किसी अव्यक्त स्थल में अनादि प्राप्ति की आशा करते हैं। हमारे छायावादी लेखक इसी चतुर्थ श्रेणी में आते हैं। छायावादी लेखक का प्रेम एक अनन्त, अव्यक्त और अनिश्चित वस्तु के प्रति होता है। अतः वहाँ तृप्ति का प्रश्न ही वहीं उठता।

अमुक स्थान में, अमुक काल में, अमुक वस्तु में सुख ढूँढ़ने वाले वस्तुतः दुःख के वास्तविक रूप को नहीं समझते, इसीलिए उसके संबंध में विविध प्रकार की कल्पनाएं किया करते हैं। सुख-दुःख का स्थान, काल एवं वस्तु से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। वह तो एक मनोवृत्ति, भावना एवं मान्यता है, जिसे मनुष्य स्वेच्छा पूर्वक किसी में भी आरोपित करके सुखी या दुखी बन सकता हैं। लोभी के लिए धन सब कुछ है, त्यागी के लिए वही भार है। कामी के लिए कामिनी में स्वर्ग है, ब्रह्मचारी को वही नरक दिखाई पड़ती है। आत्म वादी के लिए स्वाध्याय और तप में जीवन लाभ है, भौतिकवादी के लिए जप-तप में समय लगाना एक प्रकार की बेवकूफी है। आज जो घोड़ा अपना होने के कारण परम प्रिय लगता है, कल उसके बिक जाने पर ममत्व न रहने के कारण उससे कोई संबंध नहीं। गरीबों के मस्त रहते और अमीरों को चिन्ता में कुढ़ते देखा जाता है। सतयुग आदि पूर्व युग में भी दुष्ट लोग तथा कष्टकारक कारण मौजूद थे और इस युग में भी सज्जन तथा आनन्द के हेतु मौजूद हैं। स्वर्ग में भी देवता लोग, मनुष्यों की भाँति ही मानसिक उद्वेगों से दुखी रहते हैं, वहाँ भी भोग वस्तुएं उन्हें पूर्ण सन्तोष नहीं दे पातीं। इससे प्रगट है कि सुख-दुःख किसी बाह्य कारण पर अवलम्बित नहीं हैं।

स्ख का एक मात्र केन्द्र मनुष्य के अन्तःकरण में है। जब वह अपनी मनोवृत्ति का समुचित परिमार्जन करके उन्हें पवित्र बना लेता है, तो उसे हर घड़ी, हर परिस्थिति में, दर वस्तु में आनन्द, प्रेम और सन्तोष का दर्शन होता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के जो मनोवैज्ञानिक प्रयत्न है, उन्हें ही धर्म धारणा या आत्म साधना कहते हैं।


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