ईश्वर प्राप्ति के लिए त्याग की आवश्यकता

August 1951

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(श्री स्वामी रामतीर्थ)

धन चुराया गया, रोता क्यों हैं? क्या चोर ले गए? रो, इस समझ पर प्यारे! और कोई नहीं है लेने ले जाने वाला, एक ही एक, शुक्र की आँख, यार प्यारा अनेक बहानों से तेरा दिल लिया चाहता है। गोपिकाओं के इससे बढ़ कर और क्या सुकर्म होंगे कि कृष्ण मक्खन चुराये। धन्य है वे जिनका सब कुछ चुराया जाय, मन और चित्त तक बाकी न रहे।

राजा बलि ने जल का करवा हाथ में लेकर तीनों लोक भगवान को दान कर दिये, तुम से एक असुर के बराबर भी नहीं सरती। अपने शिर रूपी खप्पर को हथेली पर ले, सारे संसार की सत्ता दृष्टि कर दो ब्रह्म के हवाले। बला टली, बोझ हटा, और फिर ईश्वर को भी ईश्वरत्व देने वाले तुम हो, सूर्य-चन्द्रमा भी तुम्हारे भिखारी हैं।

लोग कहते हैं जी! भजन में मन नहीं ठहरता, एकाग्रता नहीं होती। एकाग्रता भला कैसे हो, कृपणता के कारण बन्दर की तरह मुट्ठी से पदार्थों को तो छोड़ते नहीं और मुट्ठी में लिया चाहते हैं राम को आखिर ऐसा अनजान (भोला) तो वह भी नहीं कि अपने आप ही हत्ते चढ़ जाए।

जहाँ काम तहाँ राम नहिं, जहाँ राम नहिं काम।

राम तो उसको मिलता है जो हनुमान की तरह हीरों और जवाहरातों को फोड़ कर फेंक दें, ‘यदि उनमें राम नहीं हैं तो इस इनाम को कहाँ धरुँ, क्या करूं।’

भाई! समाधि और मन की एकाग्रता तो जब होगी, जब तुम्हारी तरफ से माल, धन, बँगले मकान पर मानो हल फिर जाए, स्त्री-पुत्र, बैरी मित्र पर सुहागा चल जाए, सब साफ हो जाए, राम ही राम का तूफान आ जाए, कोठे-दालान बहा ले जाए। जाने की कोई ठौर ही न रही तो फिर भँडुवे मन को कहाँ जाना है? सहज समाधि है।

‘अब यह त्याग रूपी उपासना भी और त्यागो या दानों की तरह होगी, करें या न करें, किसी को पैसा दें या न दें, हमारी इच्छा पर हैं ‘जो ऐसा समझे हैं धोखे में हैं, यह त्याग रूपी उपासना आवश्यक है। आवश्यक क्योंकि और कहीं ठंड पड़ने की नहीं।

वृत्ति तब तक एकाग्र नहीं हो सकती जब तक मन में कभी यह आशा रहे और कभी वह इच्छा। शान्त वह हो सकता है जिसे कोई कर्तव्य और आवश्यकता खींच घसीट न रही हो। अपने आप तो इन वासनाओं को पीछा छोड़ना ही नहीं, जब पल्ला छूटेगा, आप छुड़ाना पड़ेगा। इसलिए जीने तक की आशा को भी त्याग कर मन को ब्रह्मानंद में डाल दो। एक दिन तो शरीर को जाना ही है सदा के लिए, तो पट्टा लिखवा कर लाये ही नहीं थे, आज ही से समझ लो कि यह है नहीं और ब्रह्मानंद के सागर में शंका रहित होकर कूद पड़ो। आश्चर्य यह है कि जब हम इन कामनाओं को छोड़ ही बैठते हैं, वह अपने आप पूरी होने लग पड़ती हैं।

जब दिल में त्याग और ज्ञान भरता है और शान्ति साक्षी बन कर विचार शक्ति में आती है तो वही दुनिया जो माया का पर्दा हो रही थी, राम की झाँकियों का लगातार प्रवाह बन जाती हैं। ‘दर्शन धारा’ कहला सकती है, एक रस अभिव्यंजक हो जाती है। वह लोग जो भेदभाव और अभेदवाद के शास्त्रार्थ में लीन हैं, उनको झगड़ने दो। उस अवस्था के लिए यह बुद्धि की छान बनो भी अयुक्त नहीं, परन्तु जब बुद्धि (अर्थात् सूक्ष्म शरीर) के तल से उतर कर कारण शरीर में ज्ञान भाव का दिवा जलता है तो यह झगड़े तै हो जाते हैं, और जब तक मनुष्य के अन्तर हृदय में राम का डंका नहीं बजता तब तक उसे न उपासना ही रस देगी, न ज्ञान, न वेद की संहिता का अर्थ आयेगा, न उपनिषद् का।


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