समस्त उलझनों का एक हल

August 1951

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(प्रो रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

आज मनुष्यों के व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएं उपस्थित हैं। अनेक गुत्थियाँ उलझी हुई हैं, हर एक उलझन ऐसी विषम है कि उसकी परेशानी से सब कोई चिन्ता ग्रस्त एवं दुखी हो रहे हैं। इन कठिनाइयों को हल करने के लिए नाना प्रकार के उपाय काम में लाये जा रहे हैं, पर सफलता की कोई आशा किरण दिखाई नहीं पड़ती।

समस्त कठिनाइयों, व्यथाओं और वेदनाओं का एक ही कारण है और उनके निवारण का उपाय भी एक ही है। काँटा चुभना दर्द का कारण है तो उसे निकाल देना ही दर्द से छुटकारा पाने का उपाय है। मनोवृत्तियों का संकुचित, स्वार्थ ग्रस्त, हो जाना ही उलझनों का कारण है। संसार में तब तक शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, जब तक कि मनुष्य का अन्तःकरण परमार्थ की ओर न झुके, सात्विकता, धार्मिकता, उदारता को न अपनावें।

गायत्री सात्विकता की प्रतीक है। गायत्री भक्त होने का अर्थ है - जीवन को सतोगुणी, धार्मिक बनाने का लक्ष्य स्थिर करना। गायत्री उपासना का अर्थ है-उन आध्यात्मिक उपचारों का अवलम्बन करना जो अन्तःकरण में सतोगुणी परमार्थ भावना का बीजारोपण करते हैं। गायत्री का आश्रय लेने का तात्पर्य बुद्धि को उस सात्विकता की गोद में डाल देना है जो मनुष्य के समस्त विचारों, गुणों, स्वभावों और आचरणों को दिव्य तत्वों से परिपूर्ण कर देती है। इस प्रक्रिया को अन्तस्तल में गहराई तक प्रतिष्ठित करने से मनुष्य उस स्थिति में पहुँच जाता है, जिससे कि उसके सामने कोई उलझन शेष नहीं रहती। आइए, अब जीवन की प्रमुख समस्याओं पर विचार करें और देखें कि गायत्री रूपी सद्बुद्धि को अपना लेने पर वे किस प्रकार सुलझ सकती हैं।

1. विश्व युद्ध की घटाएं आकाश में घुमड़ रही हैं। कह नहीं सकते कि किस क्षण विस्फोट हो जाय और परमाणु बम दुनिया को तहस-नहस कर दें, इन युद्धों का कारण साम्राज्यवादी लालसाएं ही हैं। एक देश दूसरे देश पर अपना प्रभुत्व जमाने, उसका शोषण करने की मनोवृत्ति को छोड़ दे और न्याय पर दृढ़ रहें तो इन युद्धों का कोई कारण नहीं रह जाता।

यदि आज विश्व राजनीति में गायत्री प्रतिपादित ‘न्याय’ का समावेश हो जाय, तो युद्ध की तैयारी पर जो शक्ति लगी हुई है वह रचनात्मक कार्यों में लग कर जीवन की सुविधाओं को बढ़ावें और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के आधार पर विश्व बन्धुत्व के प्रेम भाव का समुचित विकास हो सकता है। महायुद्ध की आशंका से आज समस्त संसार संत्रस्त है। इस त्रास को कूट-नैतिक माथा पच्ची से नहीं, गायत्री की निर्मल भावनाओं द्वारा सुलझाया जा सकता है।

2. विश्व युद्ध के बाद दूसरी समस्या खाद्य पदार्थों की कमी की है। कुछ देशों को छोड़ कर प्रायः सर्वत्र अन्न की कमी पड़ रही है। सिंचाई, रासायनिक खाद, वैज्ञानिक यंत्रों आदि की सुविधा बढ़ा कर अधिक अन्न उपजाने का प्रयत्न किया जा रहा है। इससे कुछ तात्कालिक सुधार भले ही हो जाय, पर स्थायी सुधार न होगा, क्योंकि जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उसकी पूर्ति करने लायक शक्ति पृथ्वी में नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है कि कृषि योग्य सारी जमीन पर वैज्ञानिक कृषि कर लेने से भी सिर्फ इतनी उपज बढ़ सकती है, जो आगामी चालीस वर्षों तक लोगों का पेट भर सके। इसके बाद फिर भुखमरी फैलेगी।

इस प्रश्न का एक मात्र हल सन्तान निग्रह है। सभी बुद्धिमान एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं कि संतान पैदा करना रोका जाय। इसके लिए गर्भपात, औषधियाँ, रबड़ की थैली आदि उपाय काम में लाये जा रहे हैं, पर इनका परिणाम और भी भयंकर होगा। अनैतिकता एवं व्यभिचार में वृद्धि होने से रहे बचे स्वास्थ और भी नष्ट हो जायेंगे। सन्तान निग्रह का सर्वश्रेष्ठ उपाय ब्रह्मचर्य है, जो तभी संभव है जब गायत्री भावना के अनुरूप नारी के प्रति विकार दृष्टि को त्याग कर पूज्य भाव स्थापित किया जाय। इससे खाद्य संकट की समस्या हल होगी, जनसंख्या की वृद्धि रुकेगी, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सुधरेगा। गायत्री की साप्ताहिक उपवास साधना को यदि समर्थ लोग अपना लें तो आज की आवश्यकता पूरी हो जाय और विदेशों से एक दाना भी अन्न न मँगाना पड़े।

3. तीसरी व्यापक कठिनाई अनैतिकता की है। ठगी, विश्वासघात, वचनभंग, खुदगर्जी, बेमुरव्वती, अहंकार, परपीड़न, कर्तव्य त्याग की बुराइयाँ बेतरह बढ़ रही हैं। सरकारी कर्मचारी, व्यापारी, धर्म प्रचारक, नेता, मजदूर आदि सभी वर्गों में इस प्रकार की दूषित मनोवृत्ति बढ़ रही है। अविश्वास, असंतोष और आशंका से हर एक का मन भारी हो रहा है।

इस स्थिति को कानून, पुलिस, फौज या सरकार नहीं सुधार सकती। जब अन्तरात्मा में ईश्वरीय वाणी जागृत होकर धर्म भावना, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, त्याग, प्रेम, और सेवा की भावना पैदा करेगी, तभी व्यापक अनैतिकता की दुखदायक स्थिति का अन्त होगा, यह परिवर्तन गायत्री की आत्मविज्ञान सम्मत प्रक्रिया द्वारा सुगमता पूर्वक संभव हो सकता है।

पाप, अनाचार, कुकर्म एवं दुर्बुद्धि के कारण ही मनुष्य नाना प्रकार के दुख भोगता है। जब जड़ कट जाती है, पाप वृत्ति में परिवर्तन हो जाता है तो नाना प्रकार के दैविक, दैहिक, भौतिक दुखों से मानव जाति को सहज ही छुटकारा मिल जाता है। कलह, संघर्ष, द्वेष के बीज स्वार्थ परता में है। जहाँ परमार्थिक दृष्टिकोण होगा, वहाँ प्रेम गंगा की शान्ति दायक निर्मल धारा प्रवाहित होगी।

4. भ्रान्ति, अविद्या, अन्ध परम्परा, अदूरदर्शिता, लोलुपता, संकुचित दृष्टि को “कुबुद्धि” कहते है। सुशिक्षित और चतुर समझे जाने वाले लोग भी इस कुबुद्धि में ग्रसित रहते हैं फलस्वरूप उन्हें अकारण अनेक प्रकार के त्रास प्राप्त होते हैं। आज के युग में सन्तान न होना एक ईश्वरीय वरदान है, पर लोग इसमें भी दुख मानते हैं। कुरीतियों का अन्धानुकरण करने के लिए धन न मिलने पर दुख होता है। परिजनों की मृत्यु पर ऐसा शोक करते हैं, मानो कोई अनहोनी घटना घटी हो। धन की कामना में ही व्यस्त रहना, जीवन के अन्य अंगों का विकास न करना, विलासिता, फिजूलखर्ची, व्यसन, फैशनपरस्ती आदि में डूबे रहना लोग अपनी बुद्धिमानी समझते हैं।

गायत्री रूपी सद्बुद्धि जिस मस्तिष्क में प्रवेश करती है, वह अन्धानुकरण करना छोड़ कर हर प्रश्न पर मौलिक विचार करता है। वह उन चिन्ता, शोक, दुख आदि से छुटकारा पा लेता है, जो कुबुद्धि की भ्रान्त धारणाओं के कारण मिलते हैं। संसार में आधे से अधिक दुख कुबुद्धि के कारण हैं, गायत्री की सद्बुद्धि जब छटा देती है, तो मनुष्य सरलता शान्ति, संतोष और प्रसन्नता से परिपूर्ण रहने लगता है।

5. बीमारी और कमजोरी आज घर-घर में घुसी हुई है। इसका कारण आहार विहार का असमय है। पशु-पक्षों प्रकृति को आदर्श मान कर चलते हैं और निरोग रहते हैं। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन करने से ही मनुष्य बीमार पड़ता है, कमजोर होता है और जल्दी मर जाता है।

गायत्री मंत्र की शिक्षा में आहार-विहार का संयम और प्राकृतिक जीवन की विशेष प्रेरणा है। सादगी और सात्विकता के ढांचे में ढली हुई जीवन चर्या निरोगता की प्रमाणिक गारंटी है।

चिड़चिड़ापन, आलस्य, लापरवाही, अनुदारता, अहंकार, कटुभाषण, निराशा, चिन्ता, आवेश, द्वेष आदि मानसिक बीमारियों से आन्तरिक स्वास्थ्य खोखला हो जाता है और व्यवहारिक जीवन में पग पग पर ठोकरें लगती हैं। गायत्री साधना मनुष्य के स्वभाव में सात्विक परिवर्तन करती है, सद्गुण बढ़ाती है, फलस्वरूप मानसिक अस्वस्थता नष्ट होकर मनोबल बढ़ता है और उसके द्वारा अनेकों लाभ प्राप्त होते रहते हैं।

6. आन्तरिक निर्बलता एक ऐसी व्यक्तिगत कमी है, जिसके कारण मनुष्य इच्छा करते हुए अपनी त्रुटियों के कारण कुछ कर नहीं पाता। मानव तत्व का पूर्ण विकास कुछ ऐसे तथ्यों पर निर्भर है, जो बहुधा अपने हाथ में नहीं होते। सूक्ष्म शरीर में उसकी जड़ें होने के कारण ऐसा मानना पड़ता है कि अमुक विशेषताओं से भाग्य ने या भगवान ने हमें वंचित कर रखा है। गायत्री साधना का प्रवेश सूक्ष्म शरीर के उस भाग तक हो जाता है, जहाँ भाग्य को फेरने वाली कुँजी छिपी रहती है।

गायत्री साधना के फलस्वरूप सूक्ष्म शरीर के कुछ गुप्त कोषों, चक्रों, गुच्छकों, ग्रंथियों का विकास होता है, जिसके कारण दिव्य शक्तियों का बढ़ना अपने आप शुरू हो जाता है। बुद्धि की तीव्रता, शरीर की स्वस्थता, सत्पुरुषों की मित्रता, व्यवसायिक सफलता, कीर्ति, प्रतिष्ठा, पारिवारिक सुख-शान्ति, सुसन्तति, व्याधियों से निवृत्ति, शत्रुता का निवारण सरीखे अनेकों लाभ अनायास ही मिलने लगते हैं। कारण यह है कि आत्मबल बढ़ने से, दिव्य शक्तियाँ विकसित होने से, गुण, कर्म, स्वभाव में आशाजनक परिवर्तन हो जाने से, अनेक ज्ञात एवं अज्ञात बाधाएं हट जाती हैं और ऐसे सूक्ष्म तत्व अपने में बढ़ जाते हैं, जो दिन 2 उन्नति की ओर ले जाते हैं।

आज शासन पर जनता की कठिनाइयों का जितना उत्तरदायित्व है, उससे कहीं अधिक जनता की मनोवृत्तियों पर है। जनता प्रतिमा है, राज्य उसकी छाया है। जनता की प्रबल इच्छा के प्रतिकूल कोई राज्य जम नहीं सकता, इसलिए हमें जड़ को सोचना चाहिए। जन साधारण का चरित्र ऊँचा उठा कर, उनकी मनोदशा में श्रेष्ठ तत्वों को बढ़ाकर, सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय, अन्तर्देशीय, देशीय, सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। केवल कानून या सरकार में हेर फेर कर देने से स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो सकता।

मानव जीवन की जितनी भी गुत्थियाँ उलझी पड़ी हैं, उन सब को गायत्री रूपी सद्बुद्धि, सात्विकता एवं सत्प्रवृत्ति को अपनाने से सुलझाया जा सकता है। इसी विश्वास के आधार पर अखण्ड ज्योति द्वारा गायत्री का महान् ज्ञान यज्ञ आरम्भ किया गया है। अन्य अनेक विचार वान व्यक्तियों की भाँति मेरा भी यही विश्वास है कि गायत्री के अध्यात्मिक तत्व-ज्ञान का प्रसार करके मानवता की महत्व पूर्ण सेवा की जा सकती है और मानव जीवन की सभी उलझनों को सुलझाया जा सकता है।


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