ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या

April 1951

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(लेखक-पं॰ ब्रजनार्थ शर्मा)

“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” पद व्यावहारिक सत्यता की ओर नहीं, अपितु दार्शनिक या वास्तविक सत्यता की ओर संकेत करता है।

जगत जैसा दीखता है ऐसा नहीं है यह तो आधुनिक विज्ञान को भी मान्य है। आधुनिक विज्ञान ने अपना जीवन चार तत्वों से आरम्भ किया था, जो इन्द्रियगोचर थे, खोजते खोजते 87 तत्वों का पता चला और अनुमान से उनकी संख्या 92 निश्चित की गई। यह तत्व एक दूसरे से पृथक माने जाते थे, एक दूसरे में परिणित नहीं हो सकते थे किन्तु फिर रेडियो ऐक्टिविटी का पता लगने पर यह मालूम हुआ कि एक तत्व के अणु टूट-फूट कर दूसरे तत्व के अणु बन जाते हैं जैसे रेडियम का अणु परिवर्तन करते-करते एक प्रकार के सीसे का अणु बन जाता है, जो खनिज सीसे से भिन्न प्रकार का होता है। इतना ही नहीं। पहले तो यह समझा जाता था कि अणु से छोटा टुकड़ा हो ही नहीं सकता, किन्तु अब पता लगा है कि अणु वास्तव में इलेक्ट्रान और प्रोटान के समूह का नाम है। सब प्रोटान एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें ऋण विद्युत् शक्ति होती है। इसी प्रकार के सब इलेक्ट्रान एक से ही होते है उनमें धन विद्युत शक्ति होती है। तोल में एक प्रोटान 1835 इलेक्ट्रान बराबर होता है। संसार की सब ही वस्तुएं, इन्हीं प्रोटान और इलेक्ट्रान की बनी होती हैं। जैसे सूर्य मंडल में पृथ्वी चन्द्रमा इत्यादि नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं, वैसे ही प्रोटान की परिक्रमा इलेक्ट्रान और प्रोटान करते हैं, जैसे हाइड्रोजन, किसी में अनेक होते हैं। परिक्रमा अटूट रूप से सदा ही जारी रहती है, इलेक्ट्रान की परिक्रमा का मार्ग बदलता रहता है। जब बड़े प्रोटान से दूर होता है तो अणु बाहर से शक्ति खींचता है, जब वह कूद के निकट आ जाता है तो शक्ति का ह्रास होता है और प्रकाश की लहर पैदा होती है। इस सब का निष्कर्ष यह है कि हमारी इन्द्रियों को जो वस्तुएं ठोस बिना हरकत प्रतीत होती हैं उनमें असंख्य छिद्र हैं और बड़े वेग से इलेक्ट्रान दौड़ते कूदते हैं हम नहीं देख पाते। किन्तु इनसे प्रकाश भी निकला करता है। इन्द्रियों द्वारा जाना हुआ जगत विज्ञान की दृष्टि से भी मिथ्या ठहरा।

जगत का मिथ्यात्व इतने ही पर समाप्त नहीं होता। अगर इतना ही होता तो संसार में वस्तु की स्थिति तो रहती, किन्तु उसका रूप सूक्ष्म अति सूक्ष्म हो जाता। लोहे, पारे, सीसे के स्थान में प्रोटान और इलेक्ट्रान रहते, जगत का नानात्व पिघलकर विद्युत शक्ति से परिपूर्ण कणों के एकत्व में परिणित हो जाता। हेसिर्न्बग और स्क्रोडिन्जर की गवेषणा ने इन कणों का भी आस्तित्व नष्ट कर दिया, इलेक्ट्रान कोई वस्तु ही न रही, वह केवल शक्ति और प्रकाश के निकलने का एक स्थान रह गया।

जिस जगत् को हम सत्य समझे हुए थे, वह तो वैज्ञानिकों के मत से भी वैसा ही असत्य ठहरा जैसे भूत प्रेत की कहानियाँ। तो फिर सत्य क्या है? सत्य वह ही है जिसके आस्तित्व के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, जो सदा रहे और एक रस रहे। वह क्या है, इस पर अभी विचार करना है। किन्तु इसके पहले जगत् की परीक्षा एक और प्रकार से भी कर लें तो अच्छा है।

इन्द्रिय-जन्य ज्ञान को हम साक्षात् ज्ञान समझते हैं। इसलिये भी संसार की सत्यता पर हमें भरोसा होता है। जरा देखा जाय इन्द्रिय-जन्य कैसे होता है। हमारे सामने मेज है, उससे टकरा कर प्रकाश की किरणें हमारी आँख पर पड़ती हैं। आँख के लेन्स द्वारा, उसका चित्र रेटिना पर पड़ता है रेटिना में आप्टिक नर्व के सिरे फैले होते हैं। उनका दूसरा सिरा हमारे मस्तिष्क के एक विशेष भाग में जाता है जिस भाग का काम चक्षु के भेजे हुए संदेशों का अर्थ लगाना है। रेटिना पर पड़े हुए चित्र से आप्टिक नर्व द्वारा मस्तिष्क के इस विशेष भाग में संदेशा पहुँचता है। हमें उस संदेश का ज्ञान होता है। वाह्य वस्तु मेज का नहीं। इस आन्तरिक ज्ञान से हम मेज के सामने होने का अर्थ निकालते हैं। इससे भी हमको मेज का तो ज्ञान होता ही नहीं। एक विशेष आकार, रंग, इत्यादि से समूह का ज्ञान होता है जिस समूह का नामकरण हमने मेज कर रक्खा है। समस्त इन्द्रियजन्य ज्ञान इसी प्रकार से आन्तरिक स्थिति के परिवर्तनों का होता है, जिससे हम बाह्य पदार्थ का अनुमान करते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, पाँचों का यही हाल है। इन पाँचों की जैसे इन्द्रियाँ अलग हैं वैसे ही नर्व और मस्तिष्क के भाग। यदि एक प्रकार की नर्व का संबंध मस्तिष्क के दूसरे केन्द्र से हो जाय तो हमारा ज्ञान नितान्त बदल जायगा। जो इस समय रंग प्रतीत होता है शब्द, और रंग बन जायगा, किंतु बाह्य वस्तु में रंग का रंग और शब्द का शब्द ही रहेगा। हमारे सामने लाल फूल होगा तो हम समझेंगे घंटा बजा घंटा बजेगा तो लाल फूल हमें दिखाई देगा। हमारे लिये तो संसार वही है जो हम समझते है, और हमारी समझ का यह हाल है। तो ऐसा समझा हुआ संसार तो मिथ्या ही ठहरा।

इस मिथ्यात्व के घोर अंधकार में एक सत्य सूर्य भी चमकता है, वह है “मैं”। “मेरा” नहीं। जहाँ तक “मेरा” का सम्बंध है, वह तो संसार है इनमें शरीर भी सम्मिलित है। “मैं” से अभिप्राय है उस एक रस जानने वाले से जो कहता है (भ्रम से ही सही) ‘मेरा शरीर’। इस ‘मैं’ का ज्ञान स्वतः सिद्ध है, इन्द्रिय जन्य नहीं। सोते जागते मैं का ज्ञान बना ही रहता है, यदि न रहता तो सोने के बाद उठ कर यह कौन कहता मैं सुख की नींद सोया। इस मैं में कभी परिवर्तन नहीं होता, न वह दुबला होता है न मोटा, न सोता है, न जागता, न गर्म होता है न ठंडा, भूत, भविष्य, वर्तमान में वह एक रस रहता है। वहीं “मैं” ब्रह्म है और सत्य है।

विज्ञान द्वारा सिद्ध हो ही चुका है कि जगत् का नानात्व देखने भर का ही है, इसके पीछे प्रकाश का एकत्व है। इसी प्रकार आत्म ज्ञानियों का अनुभव है कि ब्रह्म एक है। आत्म पुरुष का वाक्य हमारे लिये प्रमाण होता है, वैज्ञानिक के वाक्य विज्ञान में जैसे प्रमाणिक है वैसे ही आत्म ज्ञानी के वचन आत्म ज्ञान में प्रमाणिक हैं। वैज्ञानिक नियमों और यंत्रों को प्रयोग करके हम स्वयम् वैज्ञानिक की बातों की सच्चाई की परीक्षा कर सकते हैं। आत्म ज्ञानी की बातें भी हम जाँच सकते हैं यदि आत्म ज्ञान प्राप्ति के नियमों का पालन करें। बिना परीक्षा किये इनमें से किसी को झूठा कहना अवैज्ञानिक मूढ़ता है। विज्ञान और आत्म-विद्या दोनों के साक्षी से यह पता चलता कि ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या है।


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