मैं मानव हूँ जग का स्वामी (kavita)

April 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री जगदम्बा प्रसाद जी त्यागी एम. ए.)

मै मानव हूँ जग का स्वामी सीमित मेरे अधिकार नहीं।

अमृत को विष, विष को अमृत

यदि चाहूँ तो कर सकता हूँ।

पलकों के शीतल जल तल में,

मैं प्रलय ज्वाल भर सकता हूँ॥

जो इस ज्वाला को झुलसा दे, ऐसा कोई अंगार नहीं॥ मैं मानव॰॥

मेरे मुसकाने से नभ के,

तारे मुसकाने लगते हैं।

मैं सोता हूँ रवि सोता है,

हम दोनों संग-संग जगते हैं॥

मेरी इस निराकार आत्मा के, सुख-दुःख भी साकार नहीं॥ मैं मानव॥

कर इड़ा पिंगला को जागृत,

मैं अजर-अमर हो जाता हूँ।

फिर ब्रह्मरन्ध्र के महा शून्य

मैं जब चाहूँ खो जाता हूँ॥

मैं उस पथ पर भी चल सकता, जिसका कोई आधार नहीं॥ मैं मानव॰॥


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: