रामराज्य का आदर्श

April 1951

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महात्मा गाँधी ने जीवन भर स्वराज्य की साधना की। वे कैसा स्वराज्य चाहते थे इसका उत्तर एक शब्द में “रामराज्य” है। रामराज्य हो उनका स्वराज्य था। केवल विदेशी शासकों को हटा कर देशी नौकरशाहों के हाथ में सत्ता चली जाय तो इतने मात्र से देश को भला नहीं हो सकता। जनता को ऐसे ही राज्य की आवश्यकता है। जो सुराज्य हो।

बाल्मीकि रामायण में रामराज्य काल की स्थिति का सविस्तार वर्णन मिलता है उसका कुछ अंश नीचे देखिये

“कौशल नाम का समृद्ध और प्रसन्न धन-धान्य से परिपूर्ण जनपद सरयू नदी के तट पर स्थित था। अयोध्या उसकी राजधानी थी। लता पुष्पों से वहाँ बड़ी शोभायमान कुशल कारीगरों द्वारा बनाई गई थी। शत्रुओं से रक्षा के लिए सैकड़ों तोपें उसके परकोटे पर लगी हुई थी। जंगली सिंहों से तलवार लेकर युद्ध करने वाले शूरवीर उसकी रक्षा में नियुक्त थे। नगरी के चारों ओर उद्यान और आम्रवन थे। अनेक प्रकार के वस्त्रों, अन्नों और रसों से भण्डार परिपूर्ण थे। मनोरंजन के लिये संगीत और अभिनय के कलाकौशल विद्यमान थे। सुन्दर वस्त्र भूषण से सुसज्जित स्त्रियाँ शोभा को बढ़ाती थी।

“रामराज्य के निवासी अत्यन्त प्रसन्न और संतुष्ट थे। वे धर्मात्मा बहुश्रुत, निर्लोभ और सत्यवादी थे। कोई कंगाल न था। कोई गृहस्थ ऐसा न था जो धन-धान्य, गौ और अश्व से रहित हो। कामी, कंजूस, क्रूर, चुगल और नास्तिक कोई भी दिखाई न पड़ती थी। सब स्त्री पुरुष पूर्ण सदाचारी थे। कानों में कुण्डल, सिर पर मुकुट, गले में माला, शरीर पर चंदनादि सुगन्धियों के लेप से रहित व्यक्तियों के दर्शन दुर्लभ थे। सब लोग अच्छा खाते थे और दान देकर खाते थे। उनमें कोई ओछी वृत्ति का चोर, कर्त्तव्य हीन और वर्ण शंकर न था। सभी लोग आस्तिक, सुशिक्षित, प्रसन्न, स्वस्थ, रूपवान और देशभक्त थे।”

राजा राम की विशेषताओं का वर्णन करते हुए नारद जी कहते हैं- “राजा राम, विद्वान हैं, संयमी हैं, बुद्धिमान हैं, वक्ता हैं। चौड़े कंधे वाले विशाल बाहु सुदृढ़ शरीर तथा सुडौल अंगों वाले हैं। वे धर्म को जानते हैं, वचन को पूरा करते हैं। रात-दिन प्रजा के हित में लगे रहते हैं। वह साधु स्वभाव, मधुर भाषी, प्रिय दर्शन, आर्य और प्रजा की भी धर्म रक्षा में प्रवृत्त रहने वाले हैं। समुद्र के समान गंभीर, हिमालय के समान धैर्यवान्, पृथ्वी के समान क्षमाशील और कालाग्नि के समान प्रतापी हैं।

एक बार किसी पिता का पुत्र छोटी आयु में भर गया। तो वह पिता राम के द्वार पर आकर रोया कि- “हे राजन् यह बड़ा अनर्थ है कि पिता के सामने पुत्र मर जाय। अवश्य ही तुम्हारे राज्य में पाप होता है तभी तो ऐसा हुआ।” यह सुनकर राम गम्भीरता पूर्वक उसके वचन में सच्चाई अनुभव की और धनुष बाण लेकर पुष्पक विमान में बैठ कर राज्य भर में यह देखने निकल पड़े कि मेरे राज्य में कहाँ ऐसा पाप होता है।

“शासन अकेला राजा नहीं करता था वरन् आठ चुने हुए मंत्री होते थे जिनमें दो पुरोहित महर्षि विशिष्ट और वामदेव भी थे। उनके गुण कर्म तथा स्वभाव सब प्रकार उज्ज्वल और संदेह रहित होते थे।”

रामराज्य का यही चित्र है। ऐसे ही शासन की स्थापना करने के लिए महात्मा गाँधी स्वराज्य का रामराज्य चाहते थे। आज स्वराज्य तो प्राप्त हो गया पर रामराज्य के दर्शन कहीं नहीं हो रहें हैं। राष्ट्र के कर्णधारों का शासकों का, नेताओं का, लोक सेवियों का, विचारकों का तथा सर्वसाधारण का कर्त्तव्य है कि वे रामराज्य की विशेषताओं वाला शासन स्थापित करने के लिए हर संभव उपाय करे तभी गाँधी जी की आत्मा को शान्ति मिलेगी और तभी स्वराज्य की सार्थकता सिद्ध होगी। सुखी प्रजा ही रामराज्य का प्रमाण हो सकता है।


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