(लेखक -पं॰ गौरीशंकरजी मिश्र, बी॰ ए॰ एल॰ एल॰ बी॰)
ईश्वरीय सत्ता के संगठनात्मक अंग को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति वह अंकुश है, जो सारी सृष्टि के अस्तित्व को अपने नियमित नियमों में बाँधे रखती है और जो उसकी बागडोर से विचलित हुआ वह अपने उत्पत्ति मन्तव्य से गिरकर प्रायः नष्ट-हो जाता है। प्रकृति का सर्वोपरि नियम है कि सृष्टि के चला चल पदार्थों कि मित्रता, उनकी वृद्धि तथा उनका जीवन योग तथा जोड़ सिद्धान्त पर अवलम्बित है। भिन्न भिन्न परमाणु जुड़कर नाना रूपधारी अचल वस्तुओं का अस्तित्व बनाते हैं। उसी प्रकार चल संसार में भी परस्पर मेल सजीवता तथा जीवन वृद्धि के लिए अनिवार्य है। अबोध जगत के जीव अर्थात् पशु-पक्षी तथा जलकर प्रकृति-नियमानुसार अपना जोड़ा चुनते हैं, सृष्टि-कार्य का पालन करते हैं, किंतु उनमें आत्मीयता तथा द्वैत में अद्वैतता के भावाभाव के नाते उनके जोड़ो में सम्बन्ध स्थिरता की कमी होती है। परन्तु पशु संसार का वीरोत्तम पशु अर्थात् सिंह न केवल सिंहनी को साथ लेता है, बल्कि अपने निवास वन में यह अकेले रहना और विचरना पसन्द करता है। यही कारण है कि सिंहों तथा सिंहनियों का झुंड एक साथ नहीं रहता। सिंह और सिंहनी दोनों सम्बन्ध-स्थिरता के महत्व को स्वभावतः जानते हैं कि उनका प्रत्येक नर-मादा जोड़ा अपना युगल मुख जोड़कर परस्पर प्रेम में मस्त अपनी अपनी आंखें बन्द कर एक साथ बैठता है सम्बन्ध-स्थिरता तथा परस्पर प्रेम की महत्ता के ये अनूठे तथा उपदेश प्रद दृश्य हैं।
इससे आगे चलकर जब हम मानव सृष्टि की ओर दृष्टि दौड़ते हैं तो हमें स्पष्टतया मालूम होता है कि उपरोक्त सिद्धान्त यहीं विशेष रूप से समझबूझ कर बरता जाता है। मनुष्य सामाजिक जीव है और समाज प्रकृति के संगठनात्मक नियमों के ताने-बाने में बँधा होता है। स्थिरता, सजीवता तथा उन्नति शीलता संगठन के फल-फूल हैं अतएव मानव-सृष्टि ने, विशेष रीत्या संगठित होने की महत्ता समझती हुई अपने को प्रकृति की नियमावली में जकड़ रखा है। वन में रहने वाले पुरुष तथा स्त्री सभ्य संसार के पुरुषों और स्त्रियों की भाँति चाहे विकसित नहीं किन्तु दाम्पत्य-प्रेम तथा दाम्पत्य स्थिरता का महत्व वह भी विशेष रूप से समझते हैं। यही कारण है कि स्त्री और पुरुष अपना अपना जोड़ा बनाकर रहते हैं और वे जोड़े परस्पर जन्य तथा बाहरी कारणों से टूटते-फूटते नहीं रहते। असम्य तथा अविकसित जातियाँ में स्त्री-पुरुष के ऐक्य का दृश्य किसी से छिपा नहीं है। फिर, सभ्य मानव समाज में दाम्पत्य की महत्ता क्या होनी चाहिए, इसे साधारण मस्तिष्क भी बतला सकता है। परन्तु वर्तमान समय में पाश्चात्य शिक्षा के विकृत और उच्छिष्ट भाग में शिक्षित हमारे बहुत से पढ़े-लिखों ने तलाक मन्त्र की रटन’ प्रारम्भ कर दी है। दाम्पत्य-सम्बन्ध विच्छेद को तलाक कहते हैं तलाक की प्रथा अधिकतर जड़-पूजक पश्चिम में पाई जाती है। वहाँ का उत्पन्न धर्म ईसाई मत तलाक का पक्षपाती है। कारण यह है कि पश्चिमी संसार में रोटी सर्वस्व है, पैसा रोटी लाता है, इसलिए पैसा वहाँ ईश्वरत्व को भी आवाहन करता है। पुरुष इसलिए स्त्री को स्वीकार करता है कि उसे कुछ साँसारिक सुख प्राप्त होगा और स्त्री भी उसे इसी कारण स्वीकार करती है। यही कारण है कि जहाँ पैसों की कमी हुई कि स्त्री और पुरुष उसके लिए नाना प्रकार के निन्द्य साधनों का प्रयोग करते हैं। इसके प्रतिकूल हिन्दू धर्मानुसार दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य तो लौकिक, तथा परलौकिक दोनों है। इसमें साँसारिक सुख-भोग के साथ ही अध्यात्मिक उन्नति तथा संसार-सेवा प्रधान स्थान रखते हैं। इसमें पुरुष और स्त्री पैसे की दुर्बल डोर में नहीं बल्कि विशुद्ध प्रेम के अटूट धागे में बँधते हैं हिन्दू विवाह हृदयों को जोड़ता है मनों को मिलाता है और आत्माओं को एक दूसरे में विलीन करता है। इसमें लौकिक भोग का आदर्श भी अत्यन्त विशुद्ध और ऊँचा है और वह यह है कि दम्पति ऐसी सन्तान उत्पन्न करे जो समाज और संसार की सेवा करे और ईश महत्ता का प्रचार करे। पाश्चात्य संसार पैसों का पुजारी है, इसलिये वहाँ के पुरुष और स्त्री पैसे के सम्बन्ध में संबद्ध होते हैं। भारत वर्ष तथा अन्य पूर्वीय देशों में, जहाँ हिन्दू तथा उसके रूपांतरण धर्मों का प्रचार है, आत्मिक शाँति का प्राधान्य है, इसलिये यहाँ का दाम्पत्य जीवन आत्मिक प्रेम से ओत-प्रोत रहता है। परन्तु वर्तमान भारत में ‘नकल युग‘ का उदय हुआ है। अंग्रेजी पढ़ें-लिखों को आत्म-स्वरूप की परवाह नहीं, उन्हें अपने धर्मशास्त्रों की बातों को पढ़ने, जानने या सुनने की इच्छा नहीं, उन्हें लाभ-हानि, मानापमान की सुधि नहीं, उन्हें तो नकल भूत के आवेश में नक्काल बन कर संसार-मंच पर थिरकना है और अपनी सभ्यता और अपनी भारतीय शान पर पानी फेरना है। आज हमारा मस्तिष्क, हमारी भाषा, हमारा वेश, हमारा हृदय, पश्चिमी कुरूपता छूत से कुरूप हो रहा है। तलाक का शौक भी जो आज भारत के कुछ बिगड़े-दिलों को उबाल रहा है, उसी छूत का परिमाण है। यों तो तलाक की इजाजत विशेष परिस्थितियों में हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी वर्तमान है। ईसाई और इस्लामी धर्म शास्त्रों का तो यह मत है,कि जब चाहे, पुरुष या स्त्री एक दूसरे से अलग हो सके। तलाक के प्रतिपादन के दो कारण बतलाये जाते हैं।
स्त्रियाँ पुनर्विवाह नहीं कर सकती हैं, (2) अब स्त्रियाँ शिक्षित हो रही हैं अतः वे पुरुषों की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकती। दोनों तर्क प्रायःकारण-कार्य रूपेण एक ही हैं। स्त्रियाँ शिक्षित होते ही पुरुषों की दासता अनुभव करने लगती है, इसलिये वह पुनर्विवाह करेंगी? यह तर्क विचित्र है। परन्तु स्त्रियों का पुनर्विवाह तो पुरुषों से ही सम्भव है, अतएव यदि शिक्षित स्त्रियों को विवाह से पुरुषों की आधीनता का भय है, फिर तो उसके विवाह एवं पुनर्विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता है। मुझे पूरा विश्वास है कि भारतीय स्त्री-समाज हिन्दू धर्म के दाम्पत्य जीवन की महत्ता तथा उच्चता को पूर्ण रूप से नहीं समझता तो भी धर्म तथा प्रकृति की प्रेरणा से उनका अन्तरंग उसे प्रतिक्षण अनुभव करता है और वह सहस्रों वर्षों से उसी अनुभव के अनुसार अपना जीवन-धर्म रखता चला आ रहा है।
ऊपर बतलाया जा चुका है कि हिन्दू दाम्पत्य जीवन का आदर्श क्या है। यह वही आदर्श है जिससे आज भी इस भारत में कभी-कभी पुरुष स्त्री के अनुपमेय प्रेम की झाँकी सज जाती है। ऐसा दृश्य इस देश में कम नहीं कि पुरुष मृत्यु-शय्या पर लेटा है, उसकी स्त्री सजधज कर उस मृतक शरीर के साथ लेट जाती है और इस प्रकार अपने बिछड़े पति में तल्लीन हो जाती है कि लेटे ही लेटे अपने शरीर को मृतक बनाकर अपने पति देव के चरणों का परलोक में दर्शन करती है। साथ ही ऐसे भी दृष्टान्त हैं जहाँ पुरुष अपनी सहधर्मिणी के स्वर्गारोहण पर या तो विरागी बनकर उसी के स्मरण में अपना सर्वस्व त्याग देता है या परलोक में उसका पीछा करता है। हिन्दू समाज में स्त्रियों का स्थान ऊँचा है। वह गृहिणी तथा गृहलक्ष्मी कहलाती है। वह अर्द्धांगिनी कहलाती है, बिना उसके पुरुष और बिना पुरुष के स्त्री अधूरे हैं। स्त्री और पुरुष, दोनों मिलकर पूर्णांक बनाते हैं और एक बार जब पूर्णांक बन और संवर चुका तो फिर उसका विच्छेद दोनों के लिये असुखकर और नाशकर ही होगा।