(डा॰ लक्ष्मी नारायण जी टण्डन प्रेमी एम॰ ए॰)
(1) उपवास काल में एनेमा अवश्य लेना चाहिए। प्रश्न उठता है कि दो-चार दिन एनेमा लेने के बाद आंतों में रह ही क्या जायगा? जो बाहर निकले क्योंकि भोजन तो उपवास-काल में बन्द ही है। आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रत्येक स्वस्थ दिखाई देने वाला मनुष्य अपनी बड़ी आंतों में सदा दो-चार सेर मल चिपकाये रहता है।एनेमा लेने से आंतों में चिपका हुआ पुराना कड़ा मल धीरे-धीरे ढीला होकर निकलेगा। जिन लोगों ने छः-छः महीने लगातार एनेमा लिया है वे यह देख कर आश्चर्य में पड़ गए हैं कि न जाने कितना आँव सदृश चिकना पदार्थ उनकी आंतों से निकलता है।
इसके अलावा उपवास-काल में भी हमारे शरीर से हर समय भाँति-भाँति के विष तथा हर्षित पदार्थ उत्पन्न होते रहते और निकलते रहते हैं, प्राचीन संचित विजातीय द्रव्य विशेष रूप से उपवास काल में छूटता है, अतः एनेमा लेकर उन्हें निकालना अति आवश्यक है। क्योंकि उपवास काल में कोई ठोस भोजन न मिलने से पैखाने की हाजत स्वाभाविक रूप से नहीं होती। एनेमा से पेट आँतों पेडू आदि की सफाई ठीक से हो जाती है लम्बे उपवास के प्रारंभ पेट रहने से आंतों में जमा श्लेष्मा आदि ही नहीं, वर्षों पहले खाई दवाएँ एवं विष भी निकलता है। एनेमा का जल ताजे कुँए के पानी के ताम क्रम का हो और उसमें नीबू का रस मिलालें।
(2) उपवास-काल में जल का प्रयोग अधिक करना चाहिये। 2-3 सेर से कम पानी 24 घण्टे में न पिये। इससे मुँह की दुर्गन्धित श्वाँस, जीभ में पड़ी हुई पपड़ी और जीभ का बजाय कंपन दूर हो जाता है। शरीर के रक्त में से पानी पीने से, उसका विष छट कर गुर्दों में एकत्रित होता है। शरीर का विष पानी में घुल-घुल कर पेशाब तथा पसीने के मार्ग से निकलता रहता है। जल और वायु में बहुत अधिक संजीवनी शक्ति है। चूँकि पाचन-इन्द्रियों को उपवास काल में भोजन पचाना नहीं पड़ता। अतः वह विष को तथा मल को पचाने में बहुत तेजी से लग जाती हैं। अतः उपवास काल में तो पानी बहुत पीना चाहिये। पानी में नीबू का रस मिलाकर पीना उपयोगी होता है।
(3) श्री रामचन्द्र वर्मा ने उपवास-काल में रेत फाँकने को भी उपयोगी बताया है। रेत गोल और खुर्दरी शुद्ध की हुई होनी चाहिए। नुकीली और धारदार बालू के दाने न हों। सफेद की अपेक्षा भूरे रंग की रेत अधिक अच्छी होती है। खूब गरम पानी में उसे उबाल कर साफ कर लें। एक से तीन चम्मच तक रेत 24 घण्टे में फाँकी जा सकती है। उन्होंने लिखा है। “रेत फाँकने के गुणों की जानकारी पहले पहले वोस्टन नगर के प्रोफेसर सर विलियम विजन्सर ने प्राप्त की थी। उन्होंने यह सिद्धान्त निकाला था कि मनुष्य के अतिरिक्त प्रायः सभी जानवर अपने भोजन में थोड़ी बहुत रेत सदा और अवश्य मिला लेते हैं। उस रेत से उनकी भोजन वाहिनी नलिका सदा बहुत साफ और स्वच्छ रहती है और इसके कारण भोजन गुठलों में बँध कर कब्जियत नहीं उत्पन्न कर सकता। स्वयं डॉक्टर मैकफेडन ने जब यह विलक्षण सिद्धान्त सुना तब उन्हें बहुत आर्श्रय हुआ था, क्योंकि रेत को कोई मनुष्य को स्वाभाविक खाद्य नहीं मान सकता। पर डॉक्टर महाशय ने लगातार तीन वर्ष तक हजारों रोगियों को उसका व्यवहार कराया। तब उसके गुणों के सम्बन्ध में उनका पहला आर्श्रय और भी बढ़ गया। हजारों में से एक रोगी भी ऐसा न निकला जिसे रेत के व्यवहार से किसी प्रकार की हानि पहुँची हो
कब्ज के रोगियों को यदि उपवास न भी कराया जाय। तो भी रेत फाँकने से बहुत लाभ होता है।
(4) शुद्ध वायु का सेवन करें ब्रह्म मुहूर्त की वायु सबसे शुद्ध होती है। उस समय खुली हवा में प्राणायाम करने, व्यायाम करने, टहलने, दौड़ने आदि से परम लाभ होता है। उपवास कर्ता को विशेष रूप से इस बात का ध्यान रखना चाहिए। यदि अत्याधिक निर्बलता या रोग हो तो खुली छत पर ही प्रातः की वायु का सेवन करें। ठण्डी वायु से कभी हानि नहीं हो सकती। नींद लाने की सर्वोत्तम औषधि डॉक्टर फ्रान्किलन ठण्डी वायु बतलाते हैं।
(5) नित्य प्रति ठण्डे स्वच्छ जल से स्नान करें। अधिक रोगी या निर्बल खुरदुरे कपड़े से बन्द जगह में शरीर के अंगों को पोंछ लें। गरम पानी से नहाने पर रोम कूप अवश्य खुल जाते हैं पर उसकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती। अतः विशेष अवसरों को छोड़कर या विशेषज्ञ के आदेश के अतिरिक्त गरम जल से न नहाना ही उत्तम है। हमारे महर्षियों ने ब्रह्ममुहूर्त में नदी-स्नान को इसीलिये इतना महत्व दिया है। प्रातःकाल की वायु निकलते हुए सूर्य की अल्ट्रा-वायलेट किरणें, हल्का चलने का व्यायाम और स्नान तथा फिर खुले स्थान में पूजा पाठ, ईश्वराधना, आदि करें। ठण्डे जल से कभी हानि नहीं होती।
(6) उपवास-कर्त्ता को नित्य प्रति प्राणायाम तथा व्यायाम करना चाहिये। व्यायाम के अंतर्गत डण्ड-बैठक, मुगदर, डम्बल ही नहीं हैं, टहलना, तैरना, वृक्षों पर चढ़ना, पर्वतों पर चढ़ना आदि सभी हैं। पर जिस रोगी को अत्याधिक निर्बलता जान पड़े और उसका अन्तःकरण विश्राम करने का आदेश दे उसे उस समय किसी प्रकार का व्यायाम न करना चाहिये। व्यायाम से निद्रा अच्छी आती है, रोम कूपों से पसीने के रुप में विषैला पदार्थ निकल जाता है और साधारण अवस्था में शरीर बलिष्ठ, मन प्रसन्न तथा पाचन-क्रिया ठीक रहती है। छोटे उपवासों में शारीरिक श्रम तथा व्यायाम पहले का सा रखा जा सकता है पर लम्बे उपवासों में अत्याधिक श्रम तथा कसरत वर्जित ही है। उपवास के तीसरे दिन के बाद व्यायाम कर लेना चाहिये। हाँ, चलने-फिरने की कसरत निरन्तर जारी रखी जा सकती है।
(7) उपवास-कर्त्ता को नित्य प्रातःकाल की सूर्य-रश्मियों का सेवन करना चाहिये। धूप-स्नान तथा वायु स्नान से अत्यन्त लाभ होता है। हाँ, 9-10 बजे दिन के बाद की धूप हानिप्रद भी हो सकती है। धूप लेने से शरीर का विकार पसीने के रूप निकलने लगता है।
(8) उपवास-कर्त्ता को उपवास के बीच में कभी कोई दवा नहीं खाना चाहिये।
(9) कभी आलस्य या सुस्ती में न पड़े रहिये, अन्यथा खाली दिमाग शैतान का घर होता है। निठल्ले बैठे या पड़े रहने पर आपको भोजन, भूख, और अपनी कमजोरी की बात ही उपवास में सूझेगी। अतः सदा से कार्य-व्यस्त रहिये, अपना दैनिक कार्यक्रम निश्रित कर लीजिए, और तदनुसार कार्य कीजिये यदि आप नौकरी पेशा या दुकानदार हैं, अपने काम पर जाइए, अध्यापक या विद्यार्थी हैं तो विद्यालय जाइए। फालतू समय में लिखिए-पढ़िए, मनोविनोद के खेल खेलिए। उपवास काल में श्रेष्ठ पुस्तकों का मनन तथा अध्ययन और पूजा पाठ, ईश्वर-चिन्तन आदि में अपना मन लगाइये।
(10) उपवास-काल में कड़ुवे तेल को मालिश नित्य कीजिए और हो सके तो धूप में बैठकर।
(11) उपवास कर्त्ता को घबराना नहीं चाहिए यदि उपवास के प्रारम्भ में उसे कमजोरी ज्ञात हो, रक्त में जब शरीर का विष उखड़-उखड़ कर मिलता है तब बेचैनी, अनिद्रा, कमजोरी आदि
लगती है। पूरे धैर्य, शान्ति, उत्साह तथा विश्वास से उपवास का निर्धारित काल व्यतीत करना चाहिए। ऐसे लोगों से जो मित्र के रूप में जो शत्रु हों दूर ही रहें अर्थात् ऐसे लोग जो सहानुभूति दिखाने के लिए आपके भावी संकट का चित्र आपके सामने रखें, आपकी बढ़ती कमजोरी को वर्णन करें।
(12) प्रकृति के निकट रहने का प्रयत्न करो बाग-बगीचा, हरी घास, नदी-तट, पर्वत, झरना, एकान्त स्थल, जंगल, गाँव आदि में।