वृहदारण्यक उपनिषद् में गायत्री

April 1951

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( ले॰-श्री भाऊ जी गोरक्ष पण्डित)

ॐभूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यक्षराण्यष्टाक्षर हवा एकं गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत्स यावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद॥ 1॥

-वृहदारण्यक उपनिषद् 14-225

अर्थ- “भूमि, अन्तरिक्ष द्यौः” यह आठ अक्षर (द्यौः के दो अक्षर समझना) गायत्री का पहला पद आठ अक्षरों का है (तत्सवितुर्वरेण्यं) भूमि आन्तरिक दिशा यह गायत्री का प्रथम भाग गायत्री के इस (त्रैलोक्य स्वरूप) पद को जो जानता है वह त्रैलोक्य में मिलने सरीखा होता है वह सब प्राप्त कर सकता है।

ऋचो यजूँ षि सामानात्यष्टाक्षराण्यष्टाक्षरँ ह वा एकं गायत्रै पदमेतदु हैवाम्या एतत्य यावतीयं त्रयी विद्या ताबद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद॥2॥

अर्थ- “ऋचों यजुषि सामानि” यह आठ अक्षर गायत्री का दूसरा पद (भर्गो देवस्य धीमहि) आठ अक्षरों का है। यह दूसरा भाग (पद) गायत्री के इस त्रयी विद्यारूपी पद को जो जानता है, वह त्रयी विद्या (ऋग॰ यजु॰ साम॰)को मिलाता है। अर्थात् तीनों वेदों को (फल को) पाता है।

प्राणोऽपानों व्यान इत्यष्टा क्षराण्यष्टाक्षर ह वा एकं गायत्रै पदमेतदु हैवास्या एतत्स योवदिदं प्राणि तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पद वेदाथास्या। एतदेव तुरीयं दशत पदं परोरजा या एष तपति यद्वै चतुर्थ तत्तरीयं दर्शनं पदमिति ददृश इव ह्येष परोरजा इति सर्वमु ह्ये वैषरजउपर्युपरितपत्येवँ हैव श्रियो यशसा तपति योऽस्या एतदेवं पदं वेद॥3॥

अर्थ- “प्राण अपान व्यान” यह आठ अक्षरों का समूह गायत्री का तीसरा पद आठ अक्षरों का है (धियो योनः प्रचोदयात्) यह गायत्री का तीसरा पद है। गायत्री के इस प्राणरूप पद को जो जानता है उसको सब प्राणी मात्र वश होते है (यहाँ तक त्रिपदा-गायत्री का वर्णन किया गया है। अब चौथेपद का वर्णन करते है) आकाश में जो तपन होता है वह इन मनुष्यों से परे रहने वाला तेजरूप आदित्य स्पष्ट (प्रत्यक्ष) रूप से दिखाने वाला (दर्शतं) चौथा पद है। परोरज इसमें रज याने लोक पर ऊपर। क्योंकि आदित्य ऊपर प्रकाशता है। इससे चौथे पद को जो जानता है वह श्री (लक्ष्मी) और यश से प्रकाशित होता है

सैषा गायत्र्येतस्मँ स्तुरीये दर्शते पदे परोरजसी प्रतिष्ठिता तद्वै तत्सत्ये प्रतिष्ठितं चक्षुर्वै सत्यं चक्षुर्हि वै सत्यं तस्माद्यदिदानी द्वौ विवदमानवियाता महमदर्शमहमश्रौषमिति य एवं ब्र या दहमदर्शमिति तस्मा एवं श्रद्धध्याम। तत्सत्यं बले प्रतिष्ठितं प्राणों वै बलं तत्प्राणों प्रतिष्ठितं तस्मादाहुर्बलं सत्यादोगीय इत्येम्वेषा गायत्याधात्मं प्रतिष्ठिता सा हैषा गयाँ स्तत्रे तद्यद्ग्याँ स्तत्रे तस्माद्गायत्री नाम सयामेवाम् सावित्री मन्वा हैषैव सा स यस्मा अन्वाह तस्य प्राणा स्त्रायते॥4॥

अर्थ- वह-गायत्री इस चौथे दृश्यवान ‘परोरज’ पद में स्थिर है। वह पद सत्य में स्थित है। चक्षु यह सत्य है। चक्षु को सत्य कह कर जब किसी दो व्यक्तियों में वाद होता है तब एक व्यक्ति कहता है मैंने ऐसा सुना है और दूसरा कहता है मैंने देखा है। तब देखा है ऐसा कहने वाले पर विश्वास किया जाता। वह सत्य बल पर स्थित है। बल यानी प्राण वह (बल) प्राण में स्थित है। इसीलिए कहते हैं कि बल सत्य से भी तेजस्वी है। इस प्राण से गायत्री आध्यात्मिक रूपी प्राण की जगह स्थित है। प्राण (इन्द्रियाँ) यही गया है, प्राण ने इन्द्रियों का रक्षण किया। गयकात्राण (रक्षण) किया इसी से गायत्री शिष्य को आचार्य जब इस संवित् देवनात्मक गायत्री का उपदेश करता है तब उस (शिष्य) के प्राणों की रक्षा करता है॥

ताँ हतामेके सावित्री मनुष्टुभमन्वाहुर्वाग नुष्टुवेतद्वाच मनुब्रूम म इसि न तथा कुर्याद्गायत्री मेव सवित्री मनब्रूयाद्यादि हवा अप्येवं विद्वव्हव प्रतिगृण्हाति न हैव तद्गायत्री एकं चिन पदं प्रति॥5॥

अर्थ- यह सावित्री (सवितृ देवतात्मक गायत्री) अपने शिष्यों को वाक् अनुष्टुप् है और (वाणी यह शरीरस्थ सरस्वती होने से ) वाणी के अनुसार सावित्री कहना परन्तु ऐसा न करना चाहिए। गायत्री छन्द में ही सावित्री को उपदेश किया जाना चाहिए। गायत्री जानने वालो ने अन्य बहुत सा ज्ञान अन्य किसी से कितना भी लिया जाय तो भी वह (अन्य ज्ञान) गायत्री के एक पाद के बराबर (योग्यता का) नहीं है।

सयइमाँ स्त्रींल्लोकान्पूर्णान्प्रतिगृण्हीयात्सोऽस्या एत प्रथमे पदमाप्नुयादथ यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रति गृण्हीयातसोऽस्या एतद्द्वितीयं पदमाप्नुयादथ यावदीदं प्राणी यस्तावत्प्रति गृण्हीयात्सोस्या एतत्ततीयं पदमामयादयास्था पद् एतदेव तुरीयं दर्शन पदं परोरजा य एष तपति नैव केन चनाप्यं कुतउएतावत्प्रति गृण्हीयात्॥6॥

यह तीन लोक (यह ऐश्वर्य से पूर्ण ऐसे) गायत्री जानने वाले ने दान (प्रतिग्रह) लिया तो गायत्री के एक पाद का फल उसको मिला ऐसा जाने। अर्थात् -प्रतिग्रह (दान) का दोष गायत्री के एक पाद के प्रभाव से नष्ट होता है। विद्या का प्रतिग्रह लेने से उसको गायत्री के दूसरे पर के प्रभाव से दोष दूर होकर फल मिलता है। जो सब प्राणियों का प्रतिग्रह लेता है उसको गायत्री के तीसरे पाद का फल मिलता है। यह जो आदित्य तपन (प्रकाशमान) है यह दृश्यमान तथा परोरज ऐसा चौथा पद है। यह किसी को मिलना शक्य नहीं फिर उसका प्रतिग्रह किसको होगा गायत्री के प्रथम पाद के प्रभाव से तीनों लोक का ऐश्वर्य, दूसरे पद से त्रयी विद्या का ज्ञान और तीसरे पाद से प्राणिमात्र वश होना यह सब प्राप्त होता है। चौथे परोरज पद उपस्थान बताया है-

गायच्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्यद्यपदसी न हि पद्यसे। नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदोमा प्रापदिति यं द्विष्यादसावस्मै कामो मा समृद्धीति वा न हैवास्मै स कामः समृध्यते यस्मा एवमुपतिष्टतेऽहमदः प्रापमिति वा॥ 7॥

सूर्य के सम्मुख होकर प्रणाम करके ऊँचे हाथ उठाकर उपरोक्त मन्त्र से प्रार्थना करें। तुम एक पद हो, द्विपद हो, त्रिपद हो, चतुष्पद होकर भी पद रहित (निरुपाधिक) हो, इसी से तुम जानी नहीं जाती हो। प्रत्यक्ष देखने वाले परोरज ऐसे चौथे पद को मैं प्रणाम करता हूँ। तुम्हारी प्राप्ति में विध्नरुप ऐसा पाप रूपी शत्रु मेरे पर न आवे। गायत्री विद ब्राह्मण का जो द्वेष करेगा उसके काम कभी पूर्ण न करें। इस उपस्थान मन्त्र के प्रभाव से शत्रु के काम पूर्ण नहीं होते उपस्थान करने वालों को प्राप्त होते है॥।8॥

प्राणो वै बलं तत्प्राणे प्रतिष्टितं तस्मादाहुर्बलं। सत्यादोगीय इत्येवम्वेषा गायत्र्याध्यात्मं प्रतिष्ठिता॥

स हैषा गयाँस्तत्रे तद्यद्गयाँस्तत्रे तस्माद्गायत्री नाम। सयामेवा मूँ सावित्री मन्वा हैषेव सा स यस्मा अन्वाह तस्य प्राण स्त्रायते।

- वृ॰ अ॰ 5 त्रा॰ 14 मंत्र 4।

प्राण में बल है बल सत्य से भी तेजस्वी है। इसी से गायत्री आध्यात्मिक रूपी प्राण की जगह स्थित है। प्राण (इन्द्रिय) गये है। उसने (प्राण ने) इन्द्रियों का रक्षण किया। गया को र्त्राण किया इससे गायत्री कहलाती है। अपनी शिष्य को आचार्य जब इस संवित् देवतात्मा गायत्री का उपदेश करता है तब उस (शिष्य) के प्राणों की रक्षा करता है। इस महत्व के कारण गायत्री कही है। इसकी योग्यता महान है।

उपरोक्त मन्त्रों वृहदारण्यक उपनिषद्कार ने गायत्री के सम्बंध में बहुत कुछ रहस्यमय चर्चा की है। उसमें कहा गया है कि गायत्री के प्रथम पाद के मर्म को जो जानता है वह इन तीनों लोकों में जो कुछ मिल सकता है उस सबको प्राप्त कर लेता है। जो गायत्री के दूसरे पद का मार्ग समझ लेता है वह तीनों वेदों द्वारा मिल सकने वाले समस्त लाभों को प्राप्त करता है। तीसरे पद को जानने वाले के वश में सम्पूर्ण प्राणी हो जाते हैं।

गायत्री द्वारा बुद्धि की शुद्धि, और उस शुद्ध बुद्धि से आत्मोन्नति होती है। आत्मबल वह साधन है जिसकी सामर्थ्य दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु को प्राप्त कर सकता है। आत्मा परमात्मा का अंश है, उसके लिए अपने पिता को बनाई हुई कोई वस्तु अप्राप्त नहीं है। जैसे-जैसे पात्रता बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे दैवी भण्डार की कुंजियां प्राप्त होती जाती हैं।

गायत्री के तीन पद प्रसिद्ध हैं। पर उपनिषदों तथा तन्त्र, ग्रन्थों में कहीं-कहीं चार पद वाली गायत्री भी पाई जाती है। चौबीस अक्षरों वाली गायत्री के अन्त में कहीं-कहीं एक पद और भी जुड़ा हुआ मिलता है वह यह है- “परोरजसे सविंदोम्” जो इस चौथे पद को जानता है वह श्री और यश से प्रतिष्ठित होता है।

गायत्री शक्ति का स्थान प्राण है। इस शक्ति की उपासना से प्राण बलवान होते हैं। प्राणों का बल ही वास्तविक बल है। इस बल से तेजस्वी हुआ मनुष्य सत्य को प्राप्त करता है। यह सत्य ही आत्मा का दिव्य चक्षु है। सत्य की दृष्टि से जो कुछ देखा जाता है उसी के सम्यक् दृष्टि या तत्व दर्शन कहते हैं। यह जीवन का सर्वोपरि लाभ है।

यों तो शरीर में रहने वाली वाणी भी सरस्वती है। वाणी द्वारा-अन्यान्य शब्दों में भी गायत्री को तात्पर्य कहा जा सकता है। परन्तु ऐसा न करके गायत्री मन्त्र द्वारा ही उस सावित्री शक्ति की उपासना और ईश्वरीय महिमा को समझना चाहिए क्योंकि इस मन्त्र में ईश्वर की वह महिमा गायी गई है जो हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। दुनिया में फैली हुई ढेरों जानकारियाँ उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि गायत्री के गर्भ में छिपा हुआ विज्ञान महिमामय है।

यदि तीनों लोकों की सम्पदा किसी को मिल जावे तो समझना चाहिए कि गायत्री के एक पद का पुण्य-फल मिला। यदि दान का अन्य खाकर भी लोक सेवा न करने का गुरुतर पाप नष्ट होता है वेद पढ़ कर दूसरों को न पढ़ाने का ज्ञानदान होते हुए भी यदि दूसरों को ज्ञानवान होते हुए भी यदि दूसरों ज्ञानवान न बनाने का महातम पाप भी यदि छूटता हो तो इसे गायत्री के दूसरे पद का प्रभाव समझना चाहिये। सब प्राणी यदि अपने आज्ञानुवर्ती बन जाय तो इसे गायत्री के तीसरे पद का प्रभाव समझना चाहिए। यह सब कुछ तो तीन पदों से ही प्राप्त हो गया फिर उस दुर्लभ चौथे पद से कौन सा महान लाभ प्राप्त होगा।

इस चौथे पद के लिए हमें प्रणाम करना चाहिए कि -”हे भगवती। आप छन्द बद्ध, पदों वाली होते हुए भी अज्ञेय हो। रजोगुण से परे जो “ॐ” कार है उसी की शक्तिरूप आप है पाप रूपी शत्रुओं से मेरी रक्षा कीजिए।”

इन भावनाओं के द्वारा जो व्यक्ति ब्रह्म परायणता हो गया है, ब्राह्मण बन गया है। उस निष्पाप व्यक्ति से भी जो दुष्ट-द्वेष एवं शत्रुता रखता है उसका मनोरथ कभी सफल नहीं होता वरन् अपनी दुर्भावनाओं के कारण स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

गायत्री की शक्ति महान है। वह अपने उपासक के प्राणों की रक्षा करती है और बल, तेज, अध्यात्म तथा सत्य का अमूल्य उपहार प्रदान करती है।


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