आप निराश मत हूजिए

November 1950

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(श्री रामचरण महेन्द्र जी, एम.ए.)

आनन्दकंद परमेश्वर की यह विशाल सृष्टि आनन्द मूलक है। सच्चिदानन्द भगवान ही सर्वत्र प्रकट हो रहे हैं उस आनंदघन का आनंदमय ज्ञान प्रत्येक वस्तु से विकसित हो रहा है। भगवान अपने आनन्दमय स्वरूप का सर्वत्र प्रसार कर रहे हैं। जब इस जगत के निर्माणकर्ता का प्रधान गुण आनंद का प्रसार करना है तो संसार में आनंद के अतिरिक्त अन्य क्या हो सकता है। प्रातःकाल हंसता हुआ सूर्य उदित होकर संसार को स्वर्ण रश्मियों से स्नान करा देता है। शीतल सुगंधित वायु मस्ती बिखेरती फिरती है, पक्षीवृन्द आनंद से सने गीत गा गा कर सृष्टिकर्त्ता की उत्कृष्ट कला का प्रकटीकरण करते हैं। विशाल नदियाँ कल कल शब्द कर आनंद बढ़ाती हैं। पुष्पों पर गुँजते हुए मदमाते भ्रमर आनंद के गीत सुना कर हृदय शान्त करते हैं। पृथ्वी का अणु-अणु सुख, ऐक्य, समृद्धि और प्रेम की शक्ति को प्रवाहित कर रहा है। प्रत्येक वस्तु जीवन को स्थायी सफलता और पूर्ण विजय से विभूषित करने को प्रस्तुत है। ऐसी सुँदर सृष्टि में जन्म पा लेना सचमुच बड़े भाग्य की बात है। सतत् तप, पुण्य इत्यादि के उपहार स्वरूप यह दुर्लभ मानव जीवन इसलिए प्राप्त होता है कि हम इसमें पूर्ण आनंद का उपभोग कर जन्म जन्म की थकान मिटा सकें, फिर बतलाइए आप निराश क्यों हैं?

निराशावाद उस महाभयंकर राक्षस के समान है जो मुँह फाड़े हमारे इस परम आनंद जीवन के सर्वनाश की ताक में रहता है, जो हमारी समस्त शक्तियों का हास किया करता है, जो हमें आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर नहीं होने देता और जीवन के अंधकारमय अंश हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है। हमें पग-पग पर असफलता ही असफलता दिखाता है और विजय द्वार में प्रविष्ट नहीं होने देता।

इस बीमारी से ग्रस्त लोग उदास खिन्न मुद्रा लिए घरों के कोने में पड़े दिन रात मक्खियाँ मारने का काम करते हैं। ये व्यक्ति ऐसे चुम्बक है जो उदासीन विचारों को निरंतर अपनी ओर आकर्षित किया करते हैं और दुर्भाग्य की कुत्सित डरपोक विचारधारा में निमग्न रहा करते हैं। उन्हें चारों ओर कष्ट ही कष्ट दीखते हैं कभी यह, कभी वह, एक से एक भयंकर विपत्ति आती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। वे जब बातें करते हैं तो अपनी यातनाओं, विपत्तियों और क्लेशपूर्ण अभद्र प्रसंग छेड़ा करते हैं। हर व्यक्ति से वह यही कहा करते हैं कि भाई हम क्या करें, हम कमनसीब हैं, हमारा भाग फूटा हुआ है, देव हमारे विपरीत है, हमारी किस्मत में विधि ने ठोकरों का ही विधान रखा है। तभी तो हमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर लज्जित और परेशान होना, अशान्त, क्षुब्ध और विक्षिप्त होना पड़ता है।’ उनकी चिंतित मुख-मुद्रा देखने पर यही विदित होता है मानों उन्होंने उस पदार्थ से गहरा संबंध स्थिर कर लिया हो जो जीवन की सब मधुरता नष्ट कर रहा हो, उनके सोने जैसे जीवन का समस्त आनंद छीन रहा हो, उन्नति के मार्ग को कंटकाकीर्ण कर रहा हो। मानों समस्त संसार की दुःख विपत्ति उन्हीं के सर पर आ पड़ी हो और उदासी की अंधकारमय छाया उनके हृदय पटल को काला बना दिया है।

इसके विपरीत आशावाद मनुष्य के लिए अमृत तुल्य है। जैसे तृषित को शीतल जल, रोगी को औषधि से, अंधकार को प्रकाश से, वनस्पति को सूर्य से लाभ होता है, उसी भाँति आशावाद की संजीवनी बूटी से मृतप्राय मनुष्य में जीवन शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। आशावाद वह दिव्य प्रकाश है जो हमारे जीवन को उत्तरोत्तर परिपुष्ट, समृद्धिशाली और प्रगतिशील बनाता है। सुख, सौंदर्य एवं सफलता की अलौकिक छटा से उसे विभूषित कर उसका पूर्ण विकास करता है। उसमें माधुर्य का संचार कर विघ्न-बाधा, दुख, क्लेश और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कराने वाली गुप्त मनःशक्ति जागृत करता है। आत्मा की शक्ति से देदीप्यमान आशावादी उम्मीद का पल्ला पकड़े प्रलोभनों को रोंधता हुआ अग्रसर होता है। वह पथ-पथ पर विचलित नहीं होता, उसे कोई बात असंभव प्रतीत नहीं होती, उसे कोई कार्य असंभव प्रतीत नहीं होता, उसे कोई पराजित नहीं कर सकता, संसार की कोई शक्ति उसे नहीं दबा सकती क्योंकि सब शक्तियों का विकास करने वाली “आशा” की शक्ति सदैव उसकी आत्मा को तेजोमय करती है।

संसार के कितने ही व्यक्ति अपने जीवन को उचित, श्रेष्ठ और श्रेय के मार्ग पर नहीं लगाते। किसी एक उद्देश्य को स्थिर नहीं करते, न वे अपने मानसिक संकल्प को इतना दृढ़ ही बनाते है कि निज प्रयत्नों में सफल हो सकें। सोचते कुछ हैं करते कुछ और हैं। काम किसी एक पदार्थ के लिए करते हैं आशा किसी दूसरे की ही करते हैं। करील के वृक्ष बोकर आम खाने की अभिलाषा रखते हैं। हाथ में लिए हुए कार्य के विपरीत मानसिक भाव रखने से हमें अपनी निदिष्ट वस्तु कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। बल्कि हम इच्छित वस्तु से और भी दूर जा पड़ते हैं। तभी हमें नाकामयाबी, लाचारी, तंगी, क्षुद्रता प्राप्त होती है। अपने को भाग्यहीन समझ लेना, बेबसी की बातों को लेकर झोंकना और दूसरों की सिद्धि पर कुढ़ना हमें सफलता से दूर ले जाता है। विरोधी भाव रखने से मनुष्य उन्नत अवस्था में कदापि नहीं पहुँच सकता। संसार के साथ अविरोधी रहो, क्योंकि विरोध संसार की सबसे उत्कृष्ट वस्तुओं को अपने निकट नहीं आने देता और अविरोध उत्कृष्ट वस्तुओं का एक आकर्षक बिन्दु है।

तुम्हारे भाग्य में आशावाद का स्वर्ग आया है न कि निराशावाद का नर्क। तुम अपनी जीवन यात्रा में मंदगति से घिसटते हुए पशुवत् पड़े रहने के लिए जगत में प्रविष्ट नहीं हुए हो। अपने को अशक्त असमर्थ मानने वाले डरपोक व्यक्तियों की श्रेणी में तुम नहीं हो। तुम दुर्बल अन्तःकरण वाले निराशावादियों की तरह निःसार वस्तुओं के कुत्सित चिंतन में निष्प्रयोजन अपनी शक्तियों का अपव्यय नहीं करते। संसार में तुम उस महान पद पर आसीन होगे जिस पर संसार के अन्य प्रतापी पुरुष होते आये हैं। अभी तुम इस स्थिति में पड़े हो तो क्या, शीघ्र ही उच्चतम विकास के दिव्य प्रदेश में तुम प्रविष्ट होने वाले हो। तुम सर्वेश्वर के पवित्र अंश हो और तुम्हें प्रकृति ने अपनी इष्ट-सिद्धि के लिए पर्याप्त साधन और सामर्थ्य प्रदान किए हैं। तुम एक बार प्रयत्न तो करो।

मनुष्य का स्वभाव ज्यों-ज्यों आत्मिक भाव और आत्मिक जीवन की अभिवृद्धि करता है त्यों-त्यों उसमें सामर्थ्य भी बढ़ते जाते हैं। जैसे-जैसे तुम अपने शरीर के अंग प्रत्यंगों में छिपे सामर्थ्यों को प्रकट करोगे। आविष्कार करोगे-वैसे-वैसे विशेष रूप से महान बनते जाओगे। उच्च विचारों द्वारा जितने अंशों में हम अपने जीवन का विकास कर सकेंगे, उतने ही अंशों में उसका यथार्थ उपभोग कर सकेंगे।

कहते हैं एक बार एक बड़े भारी व्यापारी की पत्नी तार लिए दौड़ी हुई उसके कमरे में, जहाँ वह बैठा व्यापार की कुछ नवीन योजनाएं सोच रहा था, आई और हाँफते हुए बोली- “प्यारे हमने सब कुछ खो दिया है। हमारे जहाज माल-असबाब इत्यादि डूब गए हैं, सारी उम्र के किये-कराये पर पानी फिर गया है हमारी सब बहुमूल्य वस्तुएं जा चुकी हैं। उफ्फ अब क्या होगा? हाय हाय ! हमें कौन पूछेगा?”

पति ने धैर्य दिखाते हुए कहा - “क्या तुम्हें भी मुझसे छीन लिया गया है?”

वह बोली - पागलों की सी बातें क्यों करते हो, मैं तो सदैव तुम्हारे पास हूँ।

और हमारी आदतें तो कहीं नहीं चली गई हैं?

नहीं ! आदतें भला कहाँ जायेंगी?

तब तो निराश होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं हैं। हमने अपनी आदतों की कमाई ही खो दी है। संसार की सर्वश्रेष्ठ विभूतियाँ (आशावादिता, स्वास्थ्य, उत्साह, अध्यवसाय, परिश्रम और प्रेम) अब भी हमारे पास हैं। हम शीघ्र ही सब कुछ पुनः प्राप्त कर लेंगे, तुम धैर्य रखो। कहते हैं कि कुछ वर्षों बाद उनका गृह पुनः धन-धान्य से पूर्ववत पूरित हो गया। जब उनसे सफलता का रहस्य पूछा गया तो उन्होंने कहा “मैं कभी उम्मीद नहीं छोड़ता विपत्ति के काले बादलों से चिंतित नहीं होता वरन् हँसते-हँसते उनका सामना करता हूँ। कठिनाई आने से निराशा का चिन्ह मुख मंडल पर दिखाना अच्छे से अच्छे मनुष्य को विफल बना सकता है।”

अनेक व्यक्ति थोड़ी सी कठिनाई आने पर अत्यन्त अस्त-व्यस्त हो जाते हैं, घबराने लगते हैं, और ठोकर पर ठोकर खाते हैं। निराशा उनके जीवन को भार बना देती है। हमारी असफलताएँ अधिकाँश में निराशा के अभद्र विचारों से ही प्राप्त होती है और वे अयोग्य मंत्रणाओं, भयपूर्ण कल्पनाओं के ही फल हैं। यदि हम पूर्ण रूप से कल्पना को उत्तम वस्तुओं की ओर चलाया करें और चिंता, दुर्बलता, शंका, निराशा के विचारों से हटकर आशा और हिम्मत के उत्पादक वातावरण में रखना सीख लें तो हमारे जीवन का स्त्रोत एक आनन्दमय जगत में प्रवाहित होने लगे। निराशा एक भयंकर मानसिक रोग है। इससे मुक्ति पाने के लिए विचारों का रुख बदलने की परम आवश्यकता है। धीरे-धीरे अपने हृदय में नाउम्मीदी कमजोरी और निराशा के भावों के स्थान पर इनके प्रतिपक्षी-साहस, हिम्मत, सफलता और आशा के उत्साह-वर्द्धक भावों को जमाना चाहिए। उन्हें अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित करने के लिए अपनी सद्इच्छाओं का अभिनय पार्ट अवश्य करना चाहिए। तुम जिस कार्य, उद्देश्य या मनोरथ में सफलता लाभ करने की चेष्टा कर रहे हो उसका अभिनय भली-भाँति करो। यदि तुम एक विद्वान बनने की चेष्टा कर रहे हो तो अपने आपको एक विद्वान की ही भाँति रखो वैसा ही वातावरण एकत्रित करो, निराशा निकाल कर यह उम्मीद रखो कि मूर्ख कालिदास की भाँति हम भी महान बनेंगे। निराशा निकाल कर तुम इस एकटिंग को पूर्ण करने की चेष्टा करो। तुम अनुभव करो कि मैं विद्वान हूँ, सोचो कि मैं अधिकाधिक विद्वान बन रहा हूँ। मेरी विद्वता की निरंतर अभिवृद्धि हो रही है। तुम्हारे व्यवहार से लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि तुम सचमुच विद्वान हो। तुम्हारा आचरण भी पूर्ण विश्वास युक्त हो शंका, शुबाह या निराशा का नाम निशान भी न हो। अपने इस विश्वास पर तुम्हें पूरी दृढ़ता का प्रदर्शन करना उचित है। यह अभिनय करते-करते एक दिन तुम स्वयमेव अपने कार्य को पूर्ण करने की क्षमता प्राप्त कर लोगे।

जिस वस्तु को हमें प्राप्त करना है उसके लिए जितनी मानसिक क्रिया होगी, जितना उसकी प्राप्ति का विचार किया जायगा, उतनी ही शीघ्रता से वह वस्तु हमारी ओर आकर्षित होगी। प्रत्येक वस्तु पहले मन में उत्पन्न की जाती है फिर वस्तु जगत में उसकी प्राप्ति होती है। तुम अपने विषय में अयोग्यता की भावना रखते हो अतः उसी प्रकार की तुम्हारे अन्तःकरण की सृष्टि होती जाती है। तुम्हारी भय की डरपोक कल्पनाएं ही तुम्हारे मन में निराशा के काले बादलों की सृष्टि कर रही है। मनःस्थिति के ही अनुसार अन्य व्यक्ति तुमसे द्वेष अथवा प्रेम करते हैं। और संसार की, समस्त वस्तुएं तुम्हारे पास आकर्षित होकर आती या मुड़कर दूर भागती हैं।

तनिक विचार करो एकलव्य यदि गुरु द्रोण के यहाँ से निराश होकर धनुर्विद्या का अभ्यास छोड़ देता और भ्राँति के विचारों के संपर्क में होकर क्षुब्ध हो जाता तो क्या वह सफलता को प्राप्त कराने वाली वाँछनीय मनःस्थिति स्थिर रख सकता था। उसने निराशा सूचक उनके शब्दों को अपने अन्तःकरण को स्थायी वृत्ति नहीं बनाया। उसके बलवान मन पर भ्राँति का कोई विचार या तिरस्कार अपना प्रभाव न डाल सका। दुर्बल-व्यक्ति चित्त पर ही प्रतिकूल प्रसंग का कुप्रभाव पड़ता है। संसार के मनुष्य, चारों ओर से निकम्मे संदेहात्मक दरिद्र विचार लाकर उसके अन्तःकरण में डालते हैं और उसकी सफलता, प्रसन्नता और उत्साह को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। यदि हम दूसरों की निराशोत्पादक बातों पर ध्यान न दें और उधर से हमेशा के लिए पीठ मोड़ कर आशा के प्रकाश की ओर रुख कर लें तो अल्प काल में ही विकसित पुष्प की भाँति आनन्दित हो सकते हैं।

जब तुम निश्चय कर लोगे कि मेरा निराशा से जीवन का कोई संबंध नहीं होगा। मुझे नाउम्मीदों से कोई सरोकार नहीं है, मैं अब से वस्त्रभूषा पर शरीर पर, व्यवहार में, अपने कार्यों में निराशा का कोई चिन्ह भी न रहने दूँगा मैं पूर्ण शक्ति और मनोरथ सिद्धि में प्रवृत्त हूँगा, निराशापूर्ण वातावरण से मेरा कुछ लेना देना नहीं है। मैंने तो अपनी प्रवृत्ति ही उत्तम पदार्थों की ओर कर दी है। लता और मनोरथ सिद्धि मेरे बाएं हाथ का खेल है मुझे संसार की कठिनाई अपने श्रेय के मार्ग विचलित नहीं कर सकतीं तब याद रखो तुम्हारे हृदय में एक दिव्य शक्ति-शासनकर्ता शक्ति प्रसन्न होगी। आत्म-श्रद्धा और स्वाभिमान प्रबल लगेंगे और तुम आश्चर्यपूर्वक कहोगे कि यह बर्तन न जाने क्यों कर हो गया? तब तुम भी यही कहोगे कि मन को आशापूर्ण, प्रकाशित और प्रसन्न रखने से सफलता प्राप्त करते है, आशावाद की सफलता प्राप्त कराता है।

“हमारे लिए कुछ न होगा।” ऐसा निराशावादी विचार सफलता का विधातक शत्रु होता है। आशावाद बहुत बड़ी उत्पादक शक्ति है जीवन की जड़ है उसके अंदर प्रत्येक वस्तु निवास करती है। यह मानसिक क्षेत्र में प्रविष्ट करते ही बड़ा लाभ पहुँचाती है अतः जिसे नाउम्मीदी से छुटकारा पाने की आकाँक्षा हो उसे उचित है कि अपने मन की स्थिति को उत्पादक, उत्साहपूर्ण, उदार, प्रवर्द्धक और उदात्त रखे।

तुम निराश इसलिए हो कि भय ने और संदेह ने तुम्हारे अन्तःकरण पर अधिकार कर लिया है। तुम्हें अपनी योग्यता के प्रति अविश्वास हो गया है, तुम्हें सफलता और दुर्भाग्य की मानसिक प्रवृत्तियों ने परास्त कर दिया है और होनत्व की भावना ने तुम्हारे मानसिक जगत में तूफान लाकर तुम्हें अस्त-व्यस्त कर डाला है। विचारों की यह परवशता ही तुम्हें डूबो रही है। याद रखो जब-तक तुम किसी कार्य में हाथ नहीं डालोगे, तब-तक अपनी शक्ति का अनुमान कदापि न कर पाओगे। मनुष्य जब तक अपने आपको यह न समझले कि वह कार्य करने की क्षमता रखता है, तब-तक वह पंगु ही बना रहेगा। तुम्हें जो कुछ करना श्रेष्ठ जंचता है, जो कुछ तुम्हारी अन्तरात्मा कहती है उसे दृढ़ संकल्प पूर्व अवश्यमेव प्रारंभ करो। डरो नहीं, शंका, संदेह या अविश्वास की कोई बात न सोचो बल्कि कार्य शुरू कर ही डालो। प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ जरूर कर सकता है और करेगा यदि अकृतकार्य होकर हिम्मत न हारें। हिम्मत हमेशा बाजी मारती है। तुम अपने सामर्थ्य और निश्चय बलों की अभिवृद्धि करते रहो। संसार में जो करोड़ों मनुष्य निराश हो रहे हैं उसका प्रधान कारण आत्मविश्वास की कमी है। श्रद्धा खो बैठे हैं और दूषित निष्प्रयोजन कल्पनाओं के ग्रास बने हैं तुम इनसे सदैव बचे रहो। सदा सर्वदा आन्तरिक मन की उन्नति भावनाओं के प्रति लक्ष्य किये रहो और अपनी समस्त शक्तियों में अखंड श्रद्धा और पूर्ण विश्वास रखो किसी विशेष मर्यादा तक केवल ऊपरी विश्वास ही मत रखो परंतु भीतरी तह में भी दृढ़ता से विश्वास की अमिट छाप जमा दो। फिर विश्वास के सुमधुर फल देखो। तुम्हारी सब निराशा रफूचक्कर हो जायेगी और अभ्यंतर प्रदेश से अन्नत शक्ति का आविर्भाव होगा।

आज से तुम अपनी क्षूद्रता का चिंतन छोड़ो जब कभी विश्व की विशालता पर विचार करने बैठो तो अपने मन, शरीर, आत्मा की महान शक्तियों पर चित्त एकाग्र करो। शक्ति के इस केन्द्र पर मन स्थिर रखने से कोई दुर्बलता तुम्हारे अन्तःकरण में प्रवेश नहीं कर सकती। जब तुम शक्ति के विशाल बिंदू पर समस्त शक्तियाँ केन्द्रित करोगे तो तुम्हें प्रतीत होगा कि पाषाण में, धातु में, वनस्पति में, प्रकृति में, पशु में और जिस किसी वस्तु में भी विशालता है, उस सब से तुम्हारी विशालता कहीं अधिक है। इन सब की विशालता की एक सीमा निश्चित है, किन्तु तुम्हारी शक्तियों की सीमा अपार है।

जीवन को एक दीप समझिये। उसकी शिखा में सजीवता तभी आवेगी किरणें तभी जगमगाएंगी जब आशा और उम्मीद उसे अपने तेल से परिपूर्ण रखे। उम्मीद के तेल के खत्म होते ही या तो दुःख दर्द के समुद्र में विलीन हो जाना होगा या फिर मृत्यु की शीतल सी गोद में हमेशा के लिए समा जाना होगा।


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