शेख सादी की सूक्तियाँ

November 1950

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(डॉ. गोपाल प्रसाद ‘वंशी’ बेतिया)

चौ कम खुदन तवीअत शुद कसेरा।

चौ सख्ती पेशश आयद सहस गीरद॥ (1)॥

वगर तन पर दरस्त अन्दर फराखी।

चौ तंगी वीनद अज सख्ती बमीरद ॥ (2)॥

‘अल्पाहार करने वाला आसानी से तकलीफों को सहन कर लेता है। पर जिसने सिवाय शरीर पालने के और कुछ किया ही नहीं, उस पर सख्ती की जाती है तो वह मर जाता है।”

खुरासान के दो फकीरों में खूब गाढ़ी दोस्ती थी। वे साथ-साथ सफर करते थे। उनमें से एक दुर्बल और दूसरा हट्टा-कट्टा था। जो दुर्बल था वह दो दिन तक उपवास करता और जो पुष्ट था, वह दिन में तीन बार खाता। दैव योग से ऐसा हुआ कि वे दोनों जासूस समझे जाकर, नगर के फाटक पर गिरफ्तार कर लिये गये और एक ही कोठरी में कैद कर लिये गये जिस कोठरी में वे दोनों कैद किए गए, उसका द्वार भी मिट्टी से बंद कर दिया गया। पंद्रह दिन पीछे मालूम हुआ, कि वे दोनों निर्दोष ही कैद किये गये हैं। इसलिए द्वार खोल कर बाहर निकाले गये। उनमें से जो मोटा-ताजा था वह तो मरा हुआ मिला और जो दुबला-पतला था, वह जिंदा मिला। इस घटना से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस पर एक हकीम ने कहा कि यदि मोटा मनुष्य जीता रहता और दुर्बल मर जाता तो और भी अधिक आश्चर्य की बात होती, क्योंकि वह शख्स जो बहुत खाने वाला था उपवास नहीं कर सकता था। जो मनुष्य दुर्बल था, वह उपवासों का अभ्यासी था और अपनी काया को वश में रख सकता था, इसी से वह बच गया।

जो मनुष्य थोड़ा खाने का आदी होता है वह सुख से संकट सह लेता है, लेकिन जो सुख के दिनों में नाक तक ठूँस-ठूँस कर खाता है, उसके दुख के दिनों में अपनी आदत में डूब कर मरना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जो थोड़े ही में संतुष्ट रहते हैं, उन्हें संसारी यातनाएं नहीं सताती।

(2)

“ऐ कनाअत तदन्गरम गरदाँ।

क वराये तो हेच नेमत नेस्त॥”

“ऐ सन्तोष! मुझे दौलतमंद बना दें, क्योंकि संसार की कोई दौलत तुझसे बढ़कर नहीं है।”

एक अफ्रीकी सानिया कपड़ा बेचने वालों के कूचे में इस तरह कह रहा था, “ऐ धनी लोगों ! अगर तुम लोगों में न्याय होता और हम लोगों में संतोष होता, तो संसार से भीख माँगने की प्रथा ही उठ जाती।” हे संतोष ! मुझे धनी बना दे क्योंकि तेरे बिना कोई धनी नहीं है। लुकमान ने एकाँतवास में संतोष धारण किया था। जिसके दिल में संतोष नहीं है, उसमें तत्वज्ञान की हिकमत नहीं है।

तात्पर्य यह है कि जगत में ‘संतोष’ ही सबसे बड़ा धन है। जिसमें संतोष नहीं है, वह भारी से भारी धनी होने पर भी निर्धन है। जिसके हृदय में असंतोष नहीं है वही सदा सुखी है। लाख, करोड़ और अरब-खरब की सम्पदा होने पर भी जो संतोषहीन है वह परम दुखी है। सन्तोषी मनुष्य ही सब सुख भोग सकता है।


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