लड़के और लड़की में भेदभाव मत कीजिए।

November 1950

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(श्री आचार्य गिजुभाई)

पुराने लोगों का आज भी यह ख्याल है कि औरतों की कोई आजादी नहीं हो सकती, न वे अकेली कहीं जा सकती हैं, न घूम फिर सकती हैं। लेकिन आज का नौजवान इसे मानने से इनकार करता है। हमारे लड़के अब कालेजों में पढ़ने लगे हैं, और वे चाहते हैं, कि उनके साथ उनकी औरतों को भी आगे बढ़ना चाहिए। इस मामले में माँ-बाप की दखलंदाजी लड़कों को अखरती है। आज के नौजवान अपने लिए अपनी ही तरह पढ़ी-लिखी पत्नियाँ चाहते हैं और सुखी और संतोषी जीवन के लिए यत्नशील हैं।

कोई कितना ही धनवान और ऐश्वर्यवान क्यों न हो, दिन भर की मेहनत के बाद घर आने पर वह थोड़े सुख की कामना जरूर करता है लेकिन अगर घर में गृहिणी अनपढ़ और अनाड़ी है, तो वह कभी सुखी हो नहीं सकता। ऐसी गृहिणी के बुरे संस्कार बच्चों पर भी असर डालते हैं, और इस तरह हमारी भावी प्रजा का भविष्य धुँधला हो जाता है। जिस घर की यह हालत हो, वहाँ अकेला पैसा क्या कर सकता है? बड़े-बड़े महलों और वस्त्राभूषणों का क्या मूल्य रह जाता है?

मकान में जो महत्व दीवालों का है, समाज में वही महत्व लड़कों की शिक्षा का है, लेकिन लड़कियों की शिक्षा तो मौलिक चीज है, और उसका संबंध जड़ से है-बुनियाद से है। कालेजों की शिक्षा भी जीवन को संवारने सजाने के लिए ही है। इसलिए लड़कियों की शिक्षा पर भी ज्यादा से ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए।

हमारे समाज में माता-पिता लड़के और लड़की के बीच बड़ा भेदभाव रखते हैं। पक्षपात की हद हो जाती है। उनका ख्याल होता है, कि लड़की पराये घर जाने वाली है। उसे कौन पुस्तकें पड़नी हैं और कचहरी जाना है? इसीलिए पढ़ाने में भी माँ-बाप भेद करते हैं। खिलाने-पिलाने और पहनाने-उढ़ाने में भी यह भेद अपना काम करता है। लड़के को अच्छा खिलाया जाता है, अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलायी जाती है, जबकि लड़कियों को घरों में बंद रखा जाता है। यह निरा अन्याय है। भगवान ने तो लड़कों और लड़कियों में एक सी ताकत रखी है। दो आँखों में कोई भेद कैसे कर सकता है? पुराने जमाने में लोगों ने न जाने कैसे इसको शुरू किया और सह लिया। लड़की बेचारी को दो पैसे की वसीयत भी नहीं मिलती, और लड़के अकेले लाखों की दौलत उड़ाते हैं। एक को बैठे बिठाये लाखों मिल जाते हैं, जब कि दूसरी पर हजार पाँच सौ का खर्च करके, उसे पराये घर भेज दिया जाता है। अगर इसे इस नजर से भी देखे, तो यह जरूरी मालूम होता है कि चूँकि लड़की माँ बाप के घर कुछ ही साल रहती है, इसलिए उसका पालन पोषण ज्यादा अच्छा होना चाहिए।

लड़कियों की शिक्षा में केवल उनकी पढ़ाई लिखाई का ही सवाल नहीं आता, बल्कि और बातें भी आती हैं। जरूरी है कि हर एक कन्या पाठशाला के अहाते में कन्याओं के लिए खेल कूद और कसरत के साधन प्रस्तुत किये जायं। मैं समझता हूँ कि हर मदरसे में लड़कियों के दौड़ने के लिए लंबे चौड़े मैदान, झूलने के लिए झूले और खेल कूद के काफी सामान होने चाहिए। आज कल हमारे औरतों की तंदुरुस्ती दिन दिन गिरती जा रही है। सुबह शाम चूल्हा फूँककर और धूल धुएँ में रहकर वे काफी दुर्बल हो रही हैं। उनकी गिरती हुई तन्दुरुस्ती को मजबूत बनाने के लिए कन्याशालाओं में शुरू से खेल-कूद और कसरत के साधनों का होना आवश्यक है। पुराने लोगों का कहना है कि हमारी संतान दिन-दिन कमजोर होती जा रही है। पुराने समय में स्त्रियाँ घर में और बाहर काफी मेहनत कर लेती थीं। घर गृहस्थी के और खेती बाड़ी के कई काम मेहनत तलब होते थे और इन सब कामों में वे पूरा-पूरा हाथ बंटाती थी। लेकिन अब ये बातें नहीं रही, नये-नये परिवर्तन हो रहे हैं। इसलिए ये सुधार आवश्यक हो गये हैं। इसलिए अब ये सुधार आवश्यक हो गये हैं।

यह हो सकता है, कि लड़कियाँ कन्या पाठशालाओं में इतिहास भूगोल वगैरह न सीखें। लेकिन यह मुनासिब नहीं कि वे कमजोर रहें और अनपंग हो जायं। सच पूछा जाय, तो आवश्यकता मन, मस्तिष्क और हृदय तीनों की शिक्षा की है। आज हमारे स्त्री-समाज में मस्तिष्क की शिक्षा का कोसों पता नहीं है। यही कारण है, कि हमारे महिला जगत का जितना विश्वास भूत-प्रेत, झाड़ फूँक और जंतर-मंतर में है, उतना वैज्ञानिक उपचार में नहीं। घर में किसी बालक या बड़े के बीमार पड़ते ही डॉक्टर और वैद्य के बदले ओझा और पंडित को बुलाया जाता है और झाड़-फूँक या गण्डें-डोरों से रोग को मिटाने की कोशिश की जाती है। इसका मतलब यही कि बुद्धि की शिक्षा का अभाव है।

जब लड़कियों के मदरसे में संगीत सिखाने या कसरत कराने की बात चलती है, तो अल्पबुद्धि लोग आज भी नाक भौं सिकोड़ते हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि यह कैसी बात है, कि हमारे लड़के तो गा भी सकते हैं, और कसरत भी कर सकते हैं लेकिन लड़कियाँ इनके पास तक नहीं फटक सकतीं? आखिर संगीत में और कसरत में नुकसान क्या है? भगवान ने जिन्हें सुँदर कण्ठ दिया है, वे सब गा सकते हैं। लड़कियों को इंकार तभी किया जा सकता है, जब लड़कों को भी इनसे वंचित रखा जाय। अन्यथा यह कैसा विचित्र न्याय होगा कि लड़के सब कुछ कर सकें और लड़कियाँ कुछ न कर सकें?

परमात्मा ने भेदभाव के लिए ये लाल नहीं दिये हैं। हम तो परमेश्वर की तरफ से अपने इन नौनिहालों के ट्रस्टी हैं और ट्रस्टी के नाते हमारा कर्त्तव्य हो जाता है कि जो चीज हमें सौंपी गई है, हम उसकी पूरी-पूरी चिन्ता रखें।

लाख, दस लाख रुपयों की वसीयत छोड़ जाने की अपेक्षा यह कहीं आवश्यक और अच्छा है, कि अपने बच्चों को सच्ची और अच्छी शिक्षा देकर उन्हें उत्तम नागरिक बनाया जाय।

लड़कों और लड़कियों के साथ माँ-बाप को एक सा बर्ताव करना चाहिए। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने और लिखने का सारा प्रबंध लड़कियों के लिए भी हो, लड़कों और लड़कियों, दोनों को एक सी शक्ति और आत्मा दी है। अतः उन्हें विकास का समान अवसर देना चाहिए। कहा जाता है, कि लड़कियाँ लक्ष्मी की अवतार हैं। यदि उन्हें घरों में और मदरसों में अच्छी शिक्षा मिली तो वे इस संसार में स्वर्ग का निर्माण कर सकेंगी।


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