सुख-दुख में समभाव रखिए !

November 1950

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(श्री. अगर चन्द जी नाहटा)

सुख और दुख जीवन के दो विशिष्ट पहलू हैं, जिस पर भारतीय मुनियों ने बहुत गंभीर चिन्तन किया है। विश्व का कोई भी प्राणी दुख नहीं चाहता, पर वह मिलता अवश्य है। इसी तरह सभी प्राणी सूख चाहते हैं और निरन्तर उसे पाने के लिए प्रयत्नशील नजर आते हैं, फिर भी सच्चे सुख की अनुभूति विरले महापुरुषों के अतिरिक्त किसी को हो नहीं पाती, यह विश्व का सबसे महान आश्चर्य है। हमारे विचारक महापुरुषों ने इसी पर तल स्पर्शी गवेषणा की कि सुख एवं दुख हैं क्या बला? और उसकी प्राप्ति का, अनुभूति का, कारण क्या है? उन्होंने इसी एक प्रश्न पर जीवन को समर्पित कर दिया कि समस्त दुखों के विनाश एवं आनन्द की अनुभूति का मार्ग क्या है?

उनकी विचारधारा में साँसारिक लोग जिन्हें दुख या सुख समझते हैं, यह मिथ्या कल्पना जन्य प्रतीत हुआ और उससे आगे बढ़कर उन्होंने ऐसे ऐसे मार्ग खोज निकाले जिनके द्वारा इन दोनों से अतीत अवस्था का अनुभव किया जा सके।

साधारणतया मनुष्य दुख-सुख का कारण बाहरी वस्तुओं का संयोग एवं वियोग मानता है और इसी गलत धारण के कारण अनुकूल वस्तुओं व परिस्थितियों को उत्पन्न करने व जुटाने में एवं प्रतिकूल वस्तुओं को दूर करने में ही वह लगा रहता है। पर विचारकों ने यह देखा कि एक ही वस्तु की प्राप्ति से एक को सुख होता है और दूसरे को दुख। इतना ही नहीं परिस्थिति की भिन्नता हो तो एक ही वस्तु या बात एक समय में सुखकर प्रतीत होती हैं और अन्य समय में वही दुःखकर अनुभूत होती है इससे वस्तुओं का संयोग वियोग ही सुख-दुःख का प्रधान कारण नहीं कहा जा सकता और इसी के अनुसंधान में बाहरी दुखों एवं सुखों का समभाव रखने को महत्व दिया गया है।

भौतिक विचारधारा से आध्यात्मिक विचारधारा की भिन्नता यहाँ अत्यंत स्पष्ट हो जाती है। भौतिक दृष्टिवाला बाहरी निमित्तों पर जोर देगा। तब आध्यात्मिक दृष्टिवाला अपनी आत्मनिष्ठा की ओर बढ़ता चला जायगा। उसकी दृष्टि इतनी सतेज हो जायेगी कि बाहरी पर्दे के भीतर क्या है? उसे भली भाँति देख सके और ऐसा होने पर वह मूल वस्तु को पकड़ने का प्रयत्न करेगा। दृष्टाँत के लिए दो व्यक्ति एक स्थान पर पास-पास ही बैठे हुए हैं। अचानक कहीं से उनके मस्तक पर पत्थर आ गिरे। इससे भ्रान्ति में पड़कर एक तो पत्थर को दोषी मानकर उसे हाथ में लेकर उसे पछाड़ा कि उसके खंड-खंड हो गए। दूसरे ने पत्थर पर रोष न कर वह कहाँ से आया, किसने फेंका, क्यों फेंका इत्यादि पर गंभीरता से विचार करके और मुख्यतः दोष जिसका हो, ज्ञात कर उसके शोधन में प्रगति की, दोनों व्यक्तियों के यद्यपि पत्थर लगने की क्रिया एक सी हुई, पर दृष्टि की गहराई के भेद-भावों में व फल में रात-दिन का अन्तर हो गया। यही बात बाह्यदृष्टि व अन्तर दृष्टि की है। बाह्य-दृष्टि बाहरी वस्तु पर दुख-सुख की कल्पना करती है, अंतर दृष्टि अपनी प्रवृत्तियों व भावनाओं की प्रधानता करती है। इसी दृष्टि-भेद के कारण भोगी को जिसमें आनन्द है योगी को उसमें नहीं। योगी को त्याग में आनंद है, भोगी के लिए वह कष्टप्रद है।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमें अपनी दृष्टि को सही बनाना जरूरी है। तभी हम इस द्वंद्व से अतीत होकर समभाव का आनन्द लूट सकेंगे। सभी प्राणियों से मानव में विचारशक्ति की बड़ी भारी विशेषता है। विचारों से हम सुखी होते हैं, विचारों से ही दुखी। विचारों की धारा बदल देने से ही दुःख-सुख की कल्पना बदल जाएगी। किसी जमाने में कोई बात बहुत अच्छी समझी जाती थी पर वही आज अच्छी ही समझी जाती और वर्तमान में भी एक ही वस्तु के विषय में, सबकी राय एक सी नहीं रहती। इसका प्रधान कारण विचार भेद ही है। विचार बदला कि सारा ढाँचा बदल गया।

अधिक गहराई में नहीं भी जा सकें तो दुख-सुख में समभाव रखने के लिए हमारे विचारों को बदलने का एक शब्द मंत्र भी है, जिससे सर्वसाधारण सहज में ही लाभ उठा सकता है। उस चमत्कारी शब्द मंत्र की एक कहानी मैंने विदुषी श्री आर्याबल्लभ जी की व्याख्या में सुनी थी। उसे यहाँ उपस्थित कर रहा हूँ :-

एक बड़े भारी सम्राट थे, जिन्हें प्रतिपल विविध परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। कभी मन दुख की अनुभूति में और कभी सुख की अनुभूति में हर्ष एवं शोक से चलायमान बना रहता था, सम्राट ने यह सोचकर कि इस भीषण द्वंद्व के निवारण का कोई उपाय मिल जाय तो अच्छा हो। उसने अपने विचारक सभासदों व मंत्रियों के सामने अपने विचार रखते हुए कहा कि इसके निवारण का कोई सरल उपाय बतलाइये। जिससे समय-समय पर हर्ष एवं विषाद से मन आँदोलित होता है, वह रुक जाय। यह रोग केवल सम्राट को ही नहीं, सभी को था, पर इसके निवारण का उपाय कोई भी नहीं बतला सकें, आखिर मंत्री को आदेश दिया गया कि तुम्हें इसका रास्ता निकालना ही पड़ेगा, अन्यथा दंडित किये जाओगे। सम्राट की आशा का पालन दुष्कर था अतः मंत्री ने छः महीने की मुद्दत ली ओर लगा इधर-उधर पर्यटन में, क्योंकि पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष के बिना इसका उपाय मिलना संभव न था। अन्त में एक उच्च कोटि के योगी से भेंट हुई, जिन्होंने इसका उपाय बतलाते हुए कहा कि सम्राट को एक ऐसी अंगूठी बना के दो जिसके बीच में या चारों ओर यह मंत्र लिखा हो कि “यह भी चला जायगा”। सम्राट को कह देना कि जब भी उनका मन सुख एवं दुख से आन्दोलित हो। इस अंगूठी में लिखे हुए मंत्र पर मनन करे इससे सुख-दुख की क्षणिकता का ध्यान आने पर मन में हर्ष और शोक का द्वंद्व नहीं होगा। दुख आता और चला जाता है ओर सुख भी सदा नहीं रहता इस रहस्य के जानने से मन समभाव को पा लेता है।


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