आत्मसंयम और परमार्थ का मार्ग

November 1950

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योनोवास्ति तु शक्ति साधन चयो,

न्यूनाधिकश्चाथवा।

भागं नूनं तमं हितस्य विद्धे,

मात्म प्रसादायच॥

यत्पश्चाद्वशिष्ठ भाग मखिलं,

त्यक्त्वा फलाशा हृदि।

तद्धीनेष्वभिलाषवस्तु वितरे,

माँगीषु नित्यं वयम्॥

अर्थ-हमारी जो भी शक्तियाँ एवं साधन हैं वे चाहे न्यून हों अथवा अधिक हों उनके न्यून से न्यून भाग को अपनी आवश्यकता के लिए प्रयोग में लावें और शेष को निस्वार्थ भाव से अशक्त व्यक्तियों में बाँट दे।

राजा किसी अफसर से प्रसन्न होता है तो वह उसे अपने कार्यों का एक अंश पूरा करने के लिए नियुक्त कर देता है। राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा को सुखी, समृद्ध, समुन्नत, सुरक्षित रखने की बुद्धिमत्तापूर्वक व्यवस्था करे। अपने इस उत्तरदायित्व को वह कुछ लोगों को सौंप देता है जिन्हें वह सुयोज्य, कर्तव्यनिष्ठ, बुद्धिमान एवं विश्वसनीय समझता है। वे व्यक्ति अफसर कहलाते हैं। अफसरों के पास राजशक्ति का महत्वपूर्ण भाग रहता है। पुलिस सुपरिटेंडेण्ट और कलेक्टर के हाथ में काफी शक्ति है। सेना, पुलिस, हथियार, कोष एवं अधिकार का उपयोग करने की राजसत्ता उनके हाथ में रहती है। राजा उन अफसरों को इतनी सुविधाओं एवं शक्तियों का स्वामी बनाता है कि वे प्रजा के हित में इनका उपयोग करें। यह सब उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं है। व्यक्तिगत उपयोग के लिए उन्हें थोड़ा सा वेतन मिलता हैं तथा उतने ही अधिकार मिलते हैं जितने की प्रजा के साधारण व्यक्तियों को प्राप्त हैं।

कोई अफसर यदि राजशक्ति का उपयोग अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए करने लगे तो वह कर्तव्यच्युत एवं अपराधी ठहराया जायेगा। पुलिस कप्तान यदि अपनी पुलिस को लेकर नगर की घनी बस्ती पर चढ़ दौड़े और लूट करके अपने घर भर ले। कलेक्टर अपनी शक्ति से लूट, अपहरण, बलात्कार, दमन, गबन आदि करे। जज अपने दुश्मनों को फाँसी पर चढ़वा दे या रिश्वत ले ले कर डाकुओं को बरी कर दे तो वे कप्तान, कलेक्टर, जज अपने पद पर नहीं रह सकते। राजा उन पर विश्वास-घात का, कर्तव्यच्युत होने का, शक्ति के दुरुपयोग का, अपराध लगाकर पकड़ कर उन्हें कठोर दंड देगा। कारण स्पष्ट है शक्ति उन्हें प्रजा के हित में उपयोग करने के लिए एक अमानत की तरह दी गई थी। वे राजशक्ति के केवल ट्रस्टी मात्र थे। राजा ने उन्हें इतना बड़ा अधिकार दिया था, इतना विश्वास पात्र समझा था, इतने बड़े पद पर प्रतिष्ठित किया था यही क्या कम गौरव की बात थी। इतने में ही उन्हें सम्मान, सुख और संतोष अनुभव करना चाहिए था। अमानत दी हुई शक्ति को व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दुरुपयोग करने का इन अफसरों को कोई अधिकार न था। अमानत में खयानत करने वाला कठोर दंड का, निंदा का, घृणा का, पात्र ठहराया ही जायेगा।

परमात्मा के सभी पुत्र हैं। सभी उसे समान रूप से प्यारे हैं। पर वह जिन्हें अधिक ईमानदार और विश्वसनीय समझता है उन्हें अपनी रोज शक्ति का एक भाग इसलिए सौंप देता है कि वे उसके ईश्वरीय उद्देश्यों की पूर्ति में हाथ बंटायें। धन, स्वास्थ्य, बुद्धि, चतुरता, शिल्प, योग्यता, मनोबल, नेतृत्व, भाषण, लेखन आदि की शक्तियाँ जिन्हें अधिक मात्रा में दी गई हैं वे उन्हें दैवी प्रयोजन के लिए दी गई हैं। जो अधिकार साधारण प्रजा को नहीं है वे अधिकार कलेक्टर को देकर राजा कोई पक्षपात नहीं करता वरन् अधिकारी से, योग्य से, अधिक काम लेने की नीति बनाता है। परमेश्वर कभी कुछ थोड़े से आदमियों को अधिक सम्पन्न बनाकर अपने अन्य लोगों के साथ अन्याय नहीं करता। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं। उसने सभी को समान रूप से विकसित होने के अवसर दिये हैं। वह पक्षपात और अन्याय करे तो फिर उसे समदर्शी, न्यायशील और दयालु कैसे कहा जा सकेगा?

भोजन वस्त्र रहने का घर, तथा जीवनयापन की उचित आवश्यकता पूरी करने वाली वस्तुएँ, यह प्रत्येक व्यक्ति का वेतन है। जो आलसी अकर्मण्य ऊटपटाँग करने वाले, अविचारी हैं उनका वेतन कट जाता है और उन्हें किन्हीं अंशों में अभाव ग्रस्त रहना पड़ता है। जो परिश्रमी, पुरुषार्थी, सीधे मार्ग पर चलने वाले हैं वे अपना उचित वेतन तथा समय पाते रहते हैं। इस वेतन के अतिरिक्त जिसके पास जो भी शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक एवं अनौपचारिक शक्तियाँ हैं वे केवल मात्र इस उद्देश्य के लिए हैं कि उनके द्वारा नीचे गिरे हुये लोगों को ऊपर उठाने में लगाया गया। हर समृद्ध व्यक्ति को ईश्वर ने यह कर्तव्य सौंपा है कि अपने से जो लोग कमजोर हैं उनको ऊँचा उठाने में इन शक्तियों का व्यय किया जाय। यदि कोई व्यक्ति सुशिक्षित है तो उसका फर्ज है कि अशिक्षितों में शिक्षा का प्रसार करे। कोई व्यक्ति बलवान है तो उसका कर्तव्य है कि निर्बलों को बलवान बनाने का नेतृत्व करे और गलत कहने वालों को रोकें। धनवान के पास वह धन इसलिए अमानत रखा गया है कि उससे विद्या, व्यवसाय, संगठन, सद्ज्ञान आदि का इस प्रकार आयोजन करें कि उससे पिछड़े हुए लोग भी चतुर्मुखी उन्नति कर सकें।

पिता के अतिरिक्त बड़े बेटे का कर्तव्य भी कुटुम्ब के स्त्री बच्चों के प्रति होता है। पिता अपने छोटे बच्चों की सुव्यवस्था एवं उन्नति चाहता है बड़ा बेटा जब कुछ समर्थ हो जाता है तो वह अनुभव करता है कि पिता के उत्तरदायित्व में हाथ बटाना मेरा भी फर्ज है। इसलिए वह अपने से छोटे भाई बहिनों के प्रति कर्तव्य पालन करता है। यदि वह इस कर्तव्य को पालन नहीं करता और ब्याह होते ही बहू को लेकर अलग हो जाता है, अपनी कमाई से आप गुलछर्रे उड़ाता है और छोटे भाई बहिनों की सहायता नहीं करता तो सत्पुरुषों की दृष्टि में वह क्षुद्र, स्वार्थी, कृतघ्न एवं घृणास्पद ठहरता है और धार्मिक एवं नैतिक दृष्टि से उसे अपराधी माना जाता है। यह ठीक है कि कानून में उसके इस अपराध के लिए कोई सजा नहीं रखी गई है। पर इससे क्या, वह ईश्वरीय अदालत में दंड से नहीं बच सकता। जिसके पास धन की भरी तिजोरियाँ हैं वह सेठ किसी को कानी कौड़ी न दे और खुद ही अनाप-सनाप गुलछर्रे उड़ावे। कोई वकील, डॉक्टर, कलाकार, वैज्ञानिक, शिल्पी, अपनी योग्यता से अपना ही स्वार्थ साधन करें, किसी का राई बराबर भी उपकार न करे तो कानूनन उसे इसके लिए विवश नहीं किया जा सकता, इस स्वार्थपरता के लिए उसे जेल फाँसी आदि भी नहीं दी जा सकती। पर इतना निश्चित है कि मनुष्य के बनाये हुए लंगड़े-लूले कानूनों की भी गिरफ्त में न आने पर भी वह चोर है, पापी है, अपराधी है। ईश्वरीय अदालत में उसे वैसे ही कर्तव्य भ्रष्ट ठहराया जाएगा जैसा कि राजसत्ता का दुरुपयोग करने वाले पूर्व कथित कलक्टर, कप्तान, जज आदि राजा के द्वारा अपराधी ठहराये जाते।

जब कि अधिकाँश मनुष्यों को पेट भरने और तन ढ़कने की व्यवस्था में ही जीवन का सारा समय लगाना पड़ता है और कई दृष्टियों से पिछड़ा हुआ रहना पड़ता है तब किसी समृद्ध आदमी के लिए गर्व करने का, सुखी होने का, संतोष करने का, ईश्वर को धन्यवाद देने का, यह पर्याप्त कारण है कि उसकी जीवन की आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो जाती हैं और उसे ऐसी योग्यताएं प्राप्त हैं जो असंख्यों मनुष्यों में नहीं है। सुसम्पन्न व्यक्ति को इतने से ही संतोष और आनन्द अनुभव करना चाहिए और भविष्य में और उत्तम स्थिति प्राप्त करने के लिए दूरदर्शिता पूर्वक अपनी शक्तियों को लोकहित में लगाना चाहिए। आज यह अवसर है कि वह रोटी की समस्या को आसानी से हल कर के परमार्थ भी कर सकती है। ऐसी स्थिति पूर्वकृत पुण्य फल से ही प्राप्त हुई है। यदि पिछला पुण्य भुगत जाये और आगे के लिए उपार्जन न किया जाय तो निश्चित है कि थोड़े दिनों में वह सम्पन्नता समाप्त हो जायगी और असंख्यों निर्धन व्यक्तियों की भाँति ऐसा अभाव ग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ेगा जिसमें परमार्थ के लिए अवसर पाना बड़ा ही कठिन कार्य होगा।

अधिक धन जोड़ना, अधिक भोग भोगना, यह दो ही कार्यक्रम आज कल सुसम्पन्न व्यक्तियों के देखे जाते हैं। यह मूर्खता का मार्ग है। गायत्री का ‘योनः’ शब्द कहता है कि इस खतरनाक मार्ग पर चलना किसी भी प्रकार बुद्धिमत्ता का द्योतक नहीं है। विद्रोही, उद्दंड, उच्छृंखल, मदोन्मत्त अफसर कुछ समय के लिए अपनी हेकड़ी के नशे में चूर होकर अट्टहास कर सकते हैं पर कुछ ही क्षण बाद उन्हें अपने अविवेक का कठोर मूल्य चुकाना पड़ता है। समृद्ध व्यक्ति यदि आज अपने धन, बुद्धि, विद्या, वैभव, ऐश्वर्य पर इतराते हैं और उनका उपयोग केवल मात्र “अधिक संचय और अधिक भोग“ में ही करना चाहते है तो भले ही आज उनका रास्ता कोई न रोके, वे अट्टहास करते हुए अपनी इस गतिविधि को जारी रखें पर वह दिन दूर नहीं जब उन्हें अपनी मदहोशी का पश्चाताप मर्मान्तक वेदनाओं और पीड़ाओं के साथ करना पड़ेगा। इतना अलभ्य अवसर पाकर भी मनुष्य शरीर और सुसम्पन्नता का स्वर्ण सुयोग उपलब्ध करके भी, जो उसका सदुपयोग नहीं कर सके, आत्मकल्याण का, पुण्य संचय का, साधन नहीं कर सके, वे अमार्ग इसी योग्य हैं कि अनंत-काल तक नारकीय यातनाओं में पड़े रहें। नैतिक अपराधों में सजा पाये हुए, बर्खास्त किये हुए, नौकर को पुनः सरकारी नौकरी में नहीं लिया जाता, जो लोग आज अपनी सुसम्पन्नता का दुरुपयोग कर रहे हैं वे भविष्य में फिर उसी पद पर नियुक्त किये जायेंगे इसकी आशा कैसे की जा सकती है?

गायत्री हर व्यक्ति को आगाह करती है कि ऐसी बुरी परिस्थिति में कोई आत्मकल्याण का पथिक अपने को न फँसा ले। “यो नः” की मृग तृष्णा में न भटकें। अपनी आवश्यकताएं कम से कम रखें। उन्हें पूरा करने के पश्चात बची हुई शक्ति का अधिक से अधिक भाग अपने से निर्बल, पिछड़े हुए, अविकसित, निर्धन, अल्पबुद्धि, अशिक्षित लोगों को अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा उठाने में खर्च करें। यह ईश्वरीय कार्य में हाथ बटाना और अपनी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता एवं कर्तव्य परायणता का प्रमाण देना है। हर आदमी किसी न किसी से ऊँचा है, सम्पन्न है, इसलिए उसे यह बहाना न ढूँढ़ना चाहिए कि मैं अमुक के बराबर धनी या शक्तिवान हो जाऊँगा तब परमार्थ करूंगा। वरन् यह सोचना चाहिए कि आज की स्थिति में किन लोगों की अपेक्षा में किस दृष्टि से अधिक सम्पन्न हूँ? इस दृष्टि से अपने में अनेकों सम्पन्नताएं प्रतीत होंगी और उन्हीं का सदुपयोग कर लेने का अवसर मिलेगा।

हमें अवसरवादी होना चाहिए। अवसर से लाभ उठाने में चूक करनी चाहिए। प्राप्त शक्तियों को अपने लिए मितव्ययिता के साथ खर्च करके उन्हें दूसरों के लिए बचाना चाहिए। यह “आत्मसंयम और परमार्थ” का दैवी मार्ग हमें ‘यो नः’ शब्द द्वारा बताया गया है। इस पर चलने वाला गायत्री उपासक जीवन लक्ष्य को प्राप्त करके रहता है।


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