आदेश बनाम विवेक

November 1950

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(राजर्षि श्री. पुरुषोत्तमदास जी टंडन)

मध्ययुगीन काल में जो हिन्दू राज्य थे उनका केन्द्र अधिकतर कोई एक व्यक्ति होता था। शासन का सूत्र उसके अथवा उसकी इच्छा के अनुसार चुने हुए मंत्रियों के हाथ में रहता था। साधारणतया परम्परा शैलियों के अनुसार कार्यपालन होता था। परन्तु आवश्यकता पड़ने पर परम्परा से हटकर भी निश्चय किये जाते थे। तथ्यों का प्रभाव था किन्तु किसी काल के संबंध में यह नहीं कहा जा सकता कि शासन का संपूर्ण आधार कोई एक नियत ग्रन्थ ही रहता था। समय-समय पर स्मृतियाँ रखी गयीं और उन पर टीकाएं बनीं। उन सब का आदर होता था। परंतु यह नहीं होता था कि किसी एक ग्रन्थ की लिखित आज्ञाएं जनमत या मंत्रियों के मत की अपेक्षा शासन में अधिक अधिकार प्राप्त करती रही हों। गणराज्यों में और भी अधिक जनता का मत ग्रन्थों की अपेक्षा बलवान था।

परम्पराओं का बल रहता था। किन्तु यह भी समझना भूल होगी कि परम्पराओं से हटकर विचार करना असम्भव अथवा कठिन था। बहुत से लोग प्राचीन या मध्ययुगीन भारतीयों को और उनके धर्म को रूढ़िवादी कहते हैं। इसमें केवल आँशिक सत्य है। संसार भर के स्थायी और पुराने शासनों में रूढ़ि और परम्परा का स्थान है। इस देश में सम्भवतः उनका बल अधिक था। परन्तु मौलिक रीति से भारत बुद्धिवादी रहा है। ग्रन्थों का बहुत मान करते हुए भी उसने कभी अपनी विचार धारा को किसी ग्रन्थ में सदा के लिए सीमित नहीं किया। ग्रन्थों का गहरा प्रभाव होते हुए भी यहाँ बुद्धि का ही वैभव था। ईश्वर के नीचे बुद्धि ही परमतत्व माना गया था ओर सब शास्त्र बुद्धि की सीमा के भीतर और उसके सजग नियंत्रण के अधीन थे। गीता का यह वाक्य -

“यवानर्थ उदपान सर्वतः सम्प्लुतोदके।

तावान सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।”

“सब स्थानों में जल फैला होने पर एक गड्ढ़े का जो उपयोग है वही ब्रह्मज्ञान के लिए सब वेदों का है।”

ज्ञान अथवा बुद्धि की महिमा को वेदों के भी ऊपर रखता है। बृहस्पति स्मृति का यह वाक्य -

“केवलं शास्त्रमाश्रत्य न कर्तव्यो विनिर्णयः।

युक्तिहीन विचारेतु धर्महानिः प्रजायते॥”

केवल शास्त्र का सहारा लेकर कर्तव्य का निर्णय नहीं होता। जिस विचार में युक्ति नहीं है। उससे धर्म की हानि होती है। शास्त्र को युक्ति अथवा बुद्धि से नियंत्रित बताया है। वेदों की व्याख्या के संबंध में भास्कराचार्य का यह प्रसिद्ध वाक्य ‘तर्को वै ऋषिरुक्तः” तर्क ही वेदों के अर्थ करने वाला ऋषि कहा गया है, बुद्धि की श्रेष्ठता का निर्देश करता है। मेरा तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल की परम्पराओं के बीच भी यह देश बुद्धि का मुख्य सहारा लेता था। जो बात समय के अनुकूल उचित होती थी उसको स्वीकार करने में हमारे देश में प्राचीन काल से बराबर ग्रन्थों और परम्पराओं से हट कर काम किया है। पुस्तकों के वाक्यों की अपेक्षा औचित्य पर कितना अधिक ध्यान दिया जाता था यह इस पुराने वाक्य से स्पष्ट है।

“उषयुक्तमनुपयुक्तं कर्त शक्यं नहि वचन सहस्रैः”

अर्थात् एक सहस्र (ग्रंथों के) वचन भी उचित को अनुचित नहीं कर सकते।

यह बात मानी हुई है कि हमें इस देश में गणतंत्र रखना है। स्पष्ट ही गणतंत्र में जनता का मत ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक चलेगा। ऐसे तंत्र की आधारशिला बुद्धि और युक्ति हो सकती है, कोई ग्रन्थ नहीं। इस सिद्धान्त को हमारा शिक्षित वर्ग जितना शीघ्र स्वीकार कर लेगा उतना ही शीघ्र हम जनता में फैले हुए मूढ़ग्राह से ऊपर उठाकर जनतंत्रीय शासन के लिए उपयुक्त बना सकेंगे।

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