गृहस्थों को भी ब्रह्मचारी रहना चाहिए।

November 1950

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(ले. महात्मा गाँधी)

हम लोगों के लिए, जो स्थिति को जानते हैं, ऐसे बुरे वातावरण में बच्चे पैदा करना क्या उचित है? जब तक हमें ऐसा मालूम होता है कि हम बेबस, रोगी और अकाल पीड़ित हैं, तब तक बच्चे पैदा करते जाकर हम निर्बलों और दुखियों की ही संख्या बढ़ाते हैं। जब तक हिन्दुस्तान सम्पन्न देश नहीं हो जाता, जो अकाल के समय अपने आहार का प्रबंध कर सके, मलेरिया, हैजा, इन्फ्लुएंजा और दूसरी बीमारियों का इलाज करना जान जाय, तब तक हमें बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं है। पाठकों से मैं यह दुख छिपा नहीं सकता, जो इस देश में बच्चों का जन्म सुनकर मुझे होता है। मुझे यह मानना ही पड़ेगा कि मैंने वर्षों तक धैर्य के साथ इस पर विचार किया है कि स्वेच्छा-संयम के द्वारा हम सन्तानोत्पत्ति रोक लें। हिन्दुस्तान को आज अपनी मौजूदा आबादी की भी खोज-खबर लेने की ताकत नहीं है।

सन्तानोत्पत्ति रोकी क्योंकर जा सकेगी? यूरोप में जो अनैतिक और अप्राकृतिक या कृत्रिम साधन काम में लाए जाते हैं, उनसे नहीं बल्कि आत्म-संयम और नियमित जीवन से। माता-पिता को अपने बालकों को ब्रह्मचर्य का अभ्यास कराना ही पड़ेगा। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार बालकों के लिए विवाह करने की उम्र कम से कम 25 वर्ष की होनी चाहिए। अगर हिन्दुस्तान की मातायें यह विश्वास कर सकें कि लड़के-लड़कियों को विवाहित जीवन की शिक्षा देना पाप है, तो आधे विवाह तो अपने-आप ही रुक जाएंगे। फिर, हमें अपनी गर्म जलवायु के कारण लड़कियों के शीघ्र रजस्वला हो जाने के झूठे सिद्धाँत में भी विश्वास करने की जरूरत नहीं है। इस शीघ्र परिपक्वता के समान दूसरा भद्दा अंधविश्वास नहीं देखा है। मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यौवन से जलवायु का कोई संबंध ही नहीं है। असमय के यौवन का कारण हमारे पारिवारिक जीवन का नैतिक और मानसिक वायुमंडल है।

माताएं और दूसरे संबंधियों द्वारा अबोध बच्चों को यह सिखलाना धार्मिक कर्त्तव्य सा मान बैठते हैं कि ‘इतनी बड़ी उम्र होने पर तुम्हारा विवाह होगा।’बचपन में ही, बल्कि कई बार माँ की गोद में ही, उनकी सगाई कर दी जाती है। बच्चों के भोजन और कपड़े भी उन्हें उत्तेजित करते है। हम अपने बालकों को गुड़ियों की तरह सजाते है। उनके लिए नहीं, बल्कि अपने सुख और घमंड के लिए। मैंने बीसों लड़कों को पाला है। उन्होंने बिना किसी कठिनाई के जो कपड़ा उन्हें दिया गया। उसे सानन्द पहन लिया है। लेकिन हमें उससे संतोष नहीं होता। उन्हें सैकड़ों तरह की गर्म और उत्तेजित चीजें खाने को देते है। अपने अन्धप्रेम में उनकी शक्ति की कोई परवाह नहीं करते। इसका निश्चित परिणाम होता है शीघ्र यौवन, असमय संतानोत्पत्ति और अकाल मृत्यु। माता-पिता पदार्थ पाठ देते हैं, जिसे बच्चे सहज ही सीख लेते है। अधिकारों के सागर में वे आप डूबकर आदर्श बन जाते हैं। घर में किसी लड़के के बच्चा होने पर भी खुशियाँ मनाई जाती हैं, बाजे बजाने और दावतें उड़ती हैं। आश्चर्य तो यह है कि ऐसे वातावरण में रहने पर भी हम और अधिक स्वच्छन्द क्यों हुए?

मुझे इसमें जरा भी शक नहीं है कि अगर उन्हें देश का भला मंजूर है और वे हिंदुस्तान को सबल, सुँदर और सुगठित स्त्री-पुरुषों का राष्ट्र देखना चाहते हैं, तो विवाहित स्त्री-पुरुष पूर्ण संयम से काम लेंगे और कम से कम अभी तो संतानोत्पत्ति करना बंद कर देंगे। नव-विवाहितों को में सही सलाह देता हूँ। कोई काम करते हुए छोड़ने से उसे शुरू में ही न करना सहज है, जैसे कि कभी किसी ने शराब न पी हो उसके लिए जन्म भर शराब पीना शराबी या अल्पसंयमी से शराब छोड़ने से कहीं सहज है। गिर कर उठने से लाख दर्जे सहज सीधे खड़े रहना है। यह कहना सरासर गलत है कि ब्रह्मचर्य की शिक्षा केवल उन्हीं को दी जा सकती है जो भोग भोगते-भोगते थक गए हों। निर्बल को तो ब्रह्मचर्य की शिक्षा देने का कोई अर्थ ही नहीं है। फिर मेरा तो मतलब यह है कि हम बूढ़े हों या जवान, भोगों से ऊबे हुए हों या नहीं, हमारा इस समय धर्म है कि हम अन्धाधुन्ध बच्चे पैदा न करें।

माता-पिताओं को मैं यह ख्याल दिला दूँ कि वे अपने पति या पत्नी के हकों के तर्क के जाल में न पड़े। भोग के लिए रजामन्दी की जरूरत पड़ती है, संयम के लिए नहीं। यह तो प्रत्यक्ष सत्य है।

नैतिकता को आत्मिक उन्नति का साधन न मानते हुए भी अंग्रेज शरीर से तो उसका पालन वे खूब ही करते हैं। देश के राजनैतिक जीवन जितने अंग्रेज लगे हुए हैं, उनमें हमसे कही अधिक एक ब्रह्मचारी और कुमारियाँ हैं। हमारे यहाँ कुमारियाँ तो प्रायः होती ही नहीं जो थोड़ी साधुनी कुमारियाँ होती हैं, उनका कोई असर राजनैतिक जीवन पर नहीं रह जाता, मगर यूरोप में हजारों ही ब्रह्मचर्य को मामूली रूप में ग्रहण करते हैं।

अब में पाठकों के सामने थोड़े सीधे-सादे नियम रखता हूँ, जिनका आधार मेरा और मेरे कितने साथियों का अनुभव है :--

(1)-लड़के लड़कियों का पालन सीधे-सादे और प्राकृतिक-रूप से यह पूरा विश्वास रख कर करना चाहिए कि ये पवित्र हैं और पवित्र रह सकते हैं।

(2)- अचार-चटनी या मिर्च-मसाले जैसे गर्म और उत्तेजक आहारों तथा मिठाई और तेल भुने हुए चिकने व भारी पदार्थों से हर किसी को परहेज करना चाहिए।

(3)-पति-पत्नी को अलग कमरों में रहना और एकान्त से बचना चाहिए।

(4)-शरीर और मन दोनों को बराबर अच्छे काम में लगाये रहना चाहिए।

(5)-जल्दी सोने और जल्दी उठने के नियम कर सख्ती पालन होना चाहिए।

(6)-सभी बुरे साहित्य से बचना चाहिए। बुरे विचारों की दवा भले विचार हैं।

(7)-विचारों को उत्तेजना देने वाले थियेटर, सिनेमा, नाटक, तमाशों से बचना चाहिए।

(8)-स्वप्न-दोष से घबराने की कोई जरूरत नहीं है। साधारण बलवान आदमी के लिए हर रोज ठण्डे पानी से स्नान कर लेना ही इसका सबसे अच्छा इलाज है। यह कहना गलत है कि स्वप्न-दोष से बचने के लिए कभी-कभी संभोग कर लेना चाहिए।

(9)-सबसे बड़ी बात तो यह है कि पति-पत्नी तक के बीच भी ब्रह्मचर्य को कोई असम्भव या कठिन न मान लें। इससे विपरीत, ब्रह्मचर्य को जीवन का स्वाभाविक और साधारण अभ्यास समझना होगा।

(10)-प्रति दिन सच्चे दिल से पवित्रता के लिए की गई प्रार्थना से आदमी दिनों दिन पवित्र होता है।


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