मुझे माँस नहीं चाहिए!

November 1950

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(ले. श्री रोबर्ड चीटले)

“बेटा ! यदि तुम माँस न खाओगे, तो बीमार पड़ जाओगे और मर जाओगे” कहती हुई माता की बचपन की याद आ जाती है। जब मैं कहता था “बस, अब मैं चावल के गुलगुले और न लूँगा।” लेकिन जब मैं कहता था- “मुझे माँस नहीं चाहिए” जो आश्चर्य और भय से उसके हाथ ऊपर उठ जाते थे और वह कहती थी - “तुम त्रिकाल में भी बलवान और बड़े आदमी न हो सकोगे।” इसलिए मैं वयस्क होने तक प्रतिदिन माँस खाता रहा।

कितने लोग माँस भक्षण को स्वस्थ रहने का उपाय बताकर विवाद करते हैं। कितने लोग नहीं समझते हैं कि वह क्या कह रहे हैं, जब वे माँस को स्वास्थ्य-वर्द्धक बताते हैं? क्यों उन्होंने माँस के गुण-दोषों का अध्ययन किया है?

मैं जितना बड़ा होता जा रहा हूँ, उतना ही मेरा विश्वास बढ़ता जा रहा है कि करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य उस स्वास्थ्य की छाया भी नहीं होता है, जो वास्तव में होना चाहिए। इसके साथ साथ मुझे इसमें भी संदेह नहीं है कि हमारे शरीर के उत्पन्न होने वाले रोगों में आधे रोगों का कारण अव्यवस्थित भोजन के सिवा कुछ भी नहीं है।

सत्य की खोज करने से मुझे ज्ञात हुआ है कि संसार के सबसे बड़े बलशालियों में कई निरामिषभोजी हैं। उदाहरण के लिए संसार प्रसिद्ध विचारक नाटककार जार्ज बर्नार्ड शा को ही देखिए। शा के डॉक्टरों ने कहा था कि माँस बिना तुम मर जाओगे। उसने निर्भीकता पूर्वक उत्तर दिया- ‘अच्छा, हमें केवल प्रयोग करके ही देखना चाहिए। यदि मैं जीवित रहा, तो आशा करता हूँ कि आप सब भी निरामिषभोजी हो जायेंगे।

जार्ज बर्नार्ड शा जीवित हैं तो भी आज 40 बाद डॉक्टर पुरानी बात कहते ही है ऐसे ही अवसर पर शा ने कहा था “मेरी स्थिति गंभीर है। मैं जी सकता हूँ बशर्ते माँस की बोटियाँ खाऊँ। लेकिन राक्षसी वृत्ति से मृत्यु अच्छी है। मैंने अपने मृत्यु-पत्र में अपनी अन्तिम क्रिया की विधि का भी संकेत कर दिया है जिसमें शोकार्त लोगों की घोड़ा गाड़ियाँ न जायेंगी बल्कि मेरे जनाजे के पीछे गाय, बैल, बकरी, मुर्गी, मुर्गा वगैरह पक्षी और जीवित मछलियों सहित एक छोटा सा बनावटी तालाब चलेगा। यह सब उस व्यक्ति के प्रति आदर प्रकट करने के लिए गले में सफेद रुमाल बाँधे रहेंगे जिसने उनके बन्धुओं को खाने की अपेक्षा मृत्यु को अधिक पसंद किया। मोह के आश्रय महावीर के समवशरण के बिना दृश्य संसार के लिए अभूतपूर्व होगा।

जार्ज बर्नार्ड शा अपनी मजबूत तन्दुरुस्ती के लिए मशहूर है। वह कहते हैं कि मैं हमेशा अन्त में एक सन्तरा खाकर अपना भोजन समाप्त करता हूँ। वह लिखते हैं जब हम उन लोगों का स्मरण करते हैं जिनके जीवन गाय, बकरी और बैल वगैरह को पालने में बीतते हैं - वे इन पशुओं को चराते हैं, जोतते हैं, रोगों से बचाते हैं और उनके लिए हजारों दिक्कतें उठाते हैं- और इस तरह उन्हें उन लोगों सरीखा ही हृष्ट पुष्ट और वयस्क बना देते हैं जिनके लिए वह व्यर्थ बलि चढ़ा दिए जाते हैं। मैं अपने से पूछता हूँ कि वह दिन कब आयेगा जब मारे जाने के लिए ही पशु-पालन अपराध घोषित किया जायेगा।

प्रसिद्ध साहसिक अभिनेता जोना-बीसमूलर को देखिए। उसने डॉक्टरों की सलाह के अनुसार अपने को आदर्श स्वस्थ बनाने के लिए तैरने को ही अपनाया था। वह पानी में इतना अधिक रहा है कि उसे सबसे अधिक उत्तम जल-थलचर मनुष्य कह सकते हैं। उनका कहना है कि मैं कभी मछली नहीं खाता हूँ क्योंकि वे वह कलियाँ हैं जिनसे मैं फूल बनकर निकला हूँ।

जॉर्ज अरलिस प्रसिद्ध अभिनेता ही नहीं हैं। बल्कि वह अपने पशु-प्रेम के लिए भी बहुत विख्यात हैं। वृद्धावस्था आ जाने पर भी उनकी तंदुरुस्ती और बुद्धि बहुत अच्छी है। उनका कहना है कि मैंने उन पशुओं को कभी नहीं खाया जिनमें से मैं प्रत्येक को पुचकार और दुलार सकता हूँ।

माँस भोजन के विरुद्ध होने वाला आँदोलन एक सुअवसर है। जब हम क्रमशः विकास करके इस बला से छुटकारा पा सकते हैं। आज अनेक बलवान पुरुष माँस नहीं छूते हैं। मुनि और योगी माँस की छाया से भी दूर रहते हैं पर उनका व्यक्तित्व आकर्षक होता है। जो उन्हें देखता है उस पर उनकी मधुर ध्वनि, प्रकाशमय नेत्र, निर्मल वर्ण और स्वस्थ सात्विक शरीर का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता है। तिब्बती साधु बर्फ में नंग बैठकर भी ठंड से बचे रहते हैं। सैकड़ों मील बिना ठहरे, दौड़कर भी वे थकान का अनुभव नहीं करते हैं। भारतीय साधु ऐसे साहसिक कार्य करते हैं जिन्हें हम पश्चिमी लोग मानते भी सकुचाते हैं।


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