सांई का पंछी बोले रे, साँई का पंछी बोले !
तिनके के पिंजरे में मुनियाँ सुधा और विष घोले रे॥
सावन का है बाग अनूठा,
सब कुछ सच्चा, सब कुछ झूठा।
रीझा सो पछताता लौटा,
पाया मीठा ऊल जो रूठा।
खुला खेल है, देखे जब तू, घूँघट का पट खोले रे। साँई
चटक चाँदनी और दिन का,
शीतल रजनी थोड़ी बाकी।
चुनले सुमन, सजाले डाली,
प्याली भर ले शेष सुरा की।
तेरी कथा कहेंगे कल, पैरों के फूटे फफोले रे। साँई
आशा और पंथ का मारा,
हाट-हाट घूमा बनजारा।
लाद-लाद कर जीवन बीता,
जीत-जीतकर सरबस हारा।
अब भी रहे लाज जो मनुआँ, मन से मन को तोले रे। सांई
(श्री मोहन लाल महतो ‘वियोगी’)