संसार में केवल ईश्वर ही सत् है

November 1950

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(श्री. स्वामी रामतीर्थ जी)

जहाँ ईश्वर को मन, बुद्धि से प्रतीत कहा गया है, वहाँ विषयात्मक मन, बुद्धि और जहाँ मन, बुद्धि के गोचर कहा गया है, वहाँ विषय विकार रहित मन, बुद्धि इस प्रकार समझना चाहिए। जिस मन, बुद्धि द्वारा मनुष्य इस संसार को सत्य मान कर और देह में आत्मबुद्धि करके संसार के विषय भोग को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है, उसे विषयात्मक मन, बुद्धि कहते हैं। और जिस मन बुद्धि द्वारा संसार की असारता का ज्ञान होता है। जिस बुद्धि द्वारा देही अपने आपको देह से भिन्न समझता है, और इस देह को बन्धन स्वरूप और सर्व दुखों का आधार समझ कर जन्म-मरण आदि बन्धन से मुक्ति पाने की चेष्टा करता है, और इस असार संसार के मूल में जो सार तत्व है उसको प्राप्त होने का यत्न करता है, उस मन, बुद्धि को विषय विकार रहित मन, बुद्धि कहते हैं।

इस संसार में सब कुछ ही असार है। सकल अदृश्यमान पदार्थ ही अस्थाई हैं, परिवर्तनशील हैं और कल था वह आज नहीं है, और जो आज है वह कल न होगा। जिस स्थान में किसी समय बड़े बड़े शहर बसे थे वहाँ आज उल्लू बोलते हैं, और जो आज उजाड़ वन है, वहाँ कल को सुँदर शहर आबाद होंगे। यह जो बड़े-बड़े पहाड़ दीखते हैं किसी समय में वह समुद्र के नीचे थे और जहाँ आज मीलों गहरा समुद्र है, वहाँ किसी समय बड़े पर्वत विद्यमान होंगे। परिवर्तन संसार का नियम है। दिन के पीछे रात, सुख के बाद दुख, जीवन के बाद मृत्यु इस प्रकार ही संसार का चक्कर जारी है। जो कल नहीं था, वह आज विद्यमान है और वह कल को फिर न रहेगा। बालक नेस्ती से हस्ती में आया, बालक से युवा हुआ, युवा से वृद्ध हुआ और तत्पश्चात मृत्यु।

इस संसार में सार क्या है? समुद्र में असंख्य तरंगें उठती हैं और फिर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, बुलबुले उठते हैं, लय को प्राप्त होते हैं। इन समुद्र की तरंगों और बुलबुलों में सार क्या है? और असार क्या है? तरंग क्या है? जल मात्र। बुलबुला क्या है? जल मात्र। जल आज बुलबुले के अस्तित्व में आने से पूर्व भी जल द्रव्य मौजूद था। उनकी विद्यमानता में भी उनमें जल द्रव्य मौजूद है और जब वे (तरंग और बुलबुला) लय को प्राप्त होंगे तब भी जल वैसे का वैसा बना रहेगा। अतः तरंग और बुलबुले असार हैं, उनका नाम और रूप भी उनमें जो जल द्रव्य है वही सार है। स्वर्ण से नाना प्रकार के भूषण बनते हैं। वह सब ही अनित्य हैं। अर्थात् उन स्वर्ण भूषणों में नाम और रूप अनित्य हैं और उनमें जो स्वर्ण द्रव्य है वह सदा एक-सा रहता है। नाम और रूप में परिवर्तन होने से स्वर्ण द्रव्य में किसी प्रकार का फर्क नहीं आता। इसी प्रकार इस संसार में परिवर्तन होता है केवल नाम और रूप में। इस दृश्यमान जगत के मूल में जो द्रव्य है उसका कभी परिवर्तन संबंध नहीं। वह सदा एक रस बना रहता है।

“नासतो विद्यते भ वो ना भावो विद्यते सतः।”

(भगवद्गीता 1/16)

“असत् जो न उसकी है हस्ती कभी भी।

कभी है न सद्वस्तु की नेस्ती ही॥”

पाश्चात्य भौतिक शास्त्र की नींव इसी सिद्धान्त पर है। भौतिक शास्त्र का प्रथम सिद्धाँत है- “जो पदार्थ विद्यमान है उसका कभी नाल नहीं होता, और कोई नई वस्तु पैदा नहीं की जा सकती।” अर्थात् संसार में पदार्थ का नाश नहीं होता, रूपांतर मात्र होता है।

भौतिक शास्त्र के पण्डितों ने सिद्धाँत किया है कि 66 रूढ़ पदार्थ इस पृथ्वी के समस्त पदार्थों का मूल कारण हैं। केवल 66 पदार्थ रूढ़ हैं, बाकी सब पदार्थ इन 66 पदार्थों के यौगिक मात्र हैं। चाँदी रूढ़ पदार्थ है। पारा रूढ़ पदार्थ है। प्रोफेसर प्रफुल्ल चन्द्र राय ने परीक्षा द्वारा सिद्ध किया है कि चाँदी और पारे में कई एक यौगिक पदार्थों के समान गुण हैं।

प्रोफेसर राय की इस नई शोध ने रसायन शास्त्र में एक नई लहर उत्पन्न कर दी है। क्या अजब कि बीसवीं सदी यह सिद्ध कर दे कि सोना, लोहे में, लोहा चाँदी में, अर्थात् एक रूढ़ पदार्थ दूसरे में परिणत हो सकता है।

अब भी अनेक विज्ञान-विशारद यह मानने लगे है कि संसार के समस्त पदार्थों का मूल ‘आकाश’ है और सृष्टि का आदि कारण है ‘पदार्थ’ और ‘शक्ति’ इसी पदार्थ और शक्ति को हिन्दू शास्त्र में प्रकृति और पुरुष कहा गया है, किन्तु वेदान्त शास्त्र इस से भी एक पग आगे जाते हैं। वह कहते हैं कि इन क्षेत्रों में प्रकृति और पुरुष का अभिकारण एक अद्वितीय ब्रह्म है, जो सत् है, चित् है, आनन्द-स्वरूप है।

इस प्रकार चिन्तन करते-करते जब मनुष्य को संसार के समस्त पदार्थों की असारता का ज्ञान होता है, तब वह इस संसार के मूल में जो आत्म-तत्व है उसे जानने के लिए व्याकुल होता है, और नेति-2 (यह भी ब्रह्म नहीं, वह भी ब्रह्म नहीं) इस प्रकार विचार करते-करते एक सत्ता मात्र उपलब्धि करता है, और उसे जानकर उसमें ही मग्न हो जाता है। उस सत्ता को ही श्रुति ने ब्रह्म कहा है। वह ब्रह्म ही सत् है, चित् है और आनन्द स्वरूप है।


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