अनेक रोगों का निवारक-एनीमा

June 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री लक्ष्मीनारायण जी टंडन ‘प्रेमी’, संपादक “खत्री-हितैषी”)

आपने स्टेशनों पर इंजनों के काम में आ चुके जले कोयले की राख को नीचे गिराते देखा होगा क्योंकि उस राख और फुजले से अब कोई काम इंजन का नहीं निकल सकता। हाँ यदि वह व्यर्थ पदार्थ इंजन में एकत्रित होता जाय तो एक समय के पश्चात् वह इंजन को समुचित ढंग से अपना कार्य करने में बाधक अवश्य सिद्ध होगा। बिल्कुल यही बात मनुष्य और भोजन के सम्बन्ध में लागू होती है। मानव-शरीर को जीवित तथा ठीक रखने के लिए हमें भोजन की आवश्यकता होती है। पेट में भोजन पहुँचने के बाद, उसका आवश्यक अंश आँतों की नसें सोख लेती हैं। जब वह भोजन पदार्थ निस्सार हो जाते हैं और शरीर के किसी काम के नहीं रह जाते तो गुदा द्वार से वह मल के रूप में बाहर निकल जाते हैं।

यदि नियमित रूप से-ठीक प्रकार से यह कार्य होता रहता है तो मनुष्य स्वस्थ रहता है। किन्तु निन्यानवे प्रतिशत ऐसा नहीं होता। बद्धकोष्ठता की बीमारी से आज सभ्य जगत पीड़ित है। भोजन का फुजला या पैखाना अब पूरा-पूरा नहीं निकलता अर्थात् हमें पैखाना साफ नहीं होता, तो जो फुजले का अंश बड़ी आँतों में भोजन करने के अठारह घंटे बाद रह जाता है, उसका विषैला रस बड़ी आँतों की नसें सोख कर हमारे शरीर के रक्त को विषैला कर देती हैं और यह बद्ध कोष्ठता ही प्रायः हमारे सब रोगों का कारण होती है। यह निर्विवाद सत्य है कि सब रोगों का एक ही कारण है-और वह है पेट। जिसके माने हैं कि किये हुए भोजन का समुचित रीति से न पचना और फुजले का बड़ी आँतों में अठारह घंटे से अधिक ठहरना।

अस्तु, यदि किसी प्रकार हम अपनी बड़ी आँतों को निरंतर फुजले से रहित करते रहें, उसकी सफाई करते रहें, तो न सड़ने वाली चीज रहेगी और न रोग होगा। तथा यदि हम रोगी हैं भी विशेष कर कोष्ठ बद्धता या उसके परिणाम स्वरूप अन्य रोगों के तो अपनी बड़ी आँतों की सफाई करके बहुत अंशों में रोग मुक्त हो जायेंगे। अतः बड़ी आँतों की सफाई अत्यधिक आवश्यक हुई।

यह सफाई हम अनेक प्रकार की दवाएं खा कर कर सकते हैं जैसे जुलाब लेकर, रेंड़ी का तेल पीकर आदि। ऊषापान नियमित पता साथ-2 चलने की कसरत करके, पेट की कसरतें तथा भौतिक क्रियाओं के द्वारा भी हम पेट और आँतों से बहुत कुछ उनका कर्त्तव्य करा सकते हैं। फल तथा हरी शाक भाजी को अधिक मात्रा में प्रयोग करके, नियमित आहार-विहार करके भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है। परन्तु इन सबको करने पर भी कभी-कभी पूर्ण सफाई बड़ी आँतों की नहीं हो पाती। अतः आँतों की सफाई के लिए हमें एनीमा का प्रयोग करना चाहिए।

मलाशय या बड़ी आँतें शरीर का वह अंग हैं जहाँ आमाशय और आँतों से होता हुआ भोजन आता है। यह लगभग पाँच फीट लम्बी मोटी नली है। यह पेट में दाहिनी ओर से नीचे से ऊपर उठती है और ऊपर ही बाँयी ओर ऊपर जाती है। फिर यह बाँयी ही ओर नीचे उतरती है। यहाँ यह थोड़ा सा मोड़ खाती है और अपेक्षाकृत पतली हो जाती है और गुदा-द्वार पर इसकी समाप्ति होती है।

एनीमा की उपयोगिता समझने के लिए बहुत संक्षेप में हमें इस मलाशय के विषय में समझना होगा। दाहिनी ओर, नीचे की तरफ, छोटी आँतों द्वारा पचे भोजन की लुबदी एक किवाड़ पर खिड़की से फेंक देती है। दोनों आँतों के बीच में इस दरवाजे की स्थिति ऐसी है कि मल या लुबदी इस दरवाजे के द्वारा छोटी आँतों से बड़ी आँतों में तो आ सकती है, पर बड़ी आँतों से मल छोटी आँत में नहीं चढ़ सकता।

आपने जानवरों को पैखाना फिरते देखा होगा। कितनी जल्दी उसका सारा का सारा पैखाना बाहर निकल जाता है। नैसर्गिक अवस्था में मनुष्य के सम्बन्ध में भी ऐसा ही होना चाहिये। किन्तु अस्वाभाविक खान-पान, पानी कम पीने के कारण तथा अप्राकृतिक ढंग से जीवन बिताने के कारण मल कड़ा पड़ जाता है और वह आँतों में चिपट जाता है। साधारण आदमियों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि जिन मनुष्यों को हम पूर्ण स्वस्थ और बलवान समझते हैं वह भी अपनी आँतों में पाँच से दस पौंड तक ऐसा मल सदा चिपटाये फिरते हैं। जिन लोगों ने लगातार कुछ दिनों तक नियमित रूप से एनिमा लिया है वह जानते हैं कि इतनी अधिक नित्य वह बलगम सी लसदार चीज को पैखाने के साथ निकलते देखकर उन्हें आश्चर्य में पड़ना पड़ता है। संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि पुराने चिपटे हुए मल से मलाशय भर जाता है या आँशिक भर जाता है। मलाशय की दीवारें इस गंदे विषैले पदार्थ के रस को चूसा करती हैं और शरीर को विषैला और रोगों का घर बनाती रहती है। आप ही सोचिये यदि एनीमा लेकर न हम केवल नित्य का बचा फुजला निकाल सकें, वरन् पहले का भी संचित कड़ा और चिपका मल भी हम ढीला करके निकाल सकें, तो हम रोगों की जड़ को ही काटे देते हैं।

पर जुलाबों द्वारा यह कड़ा तथा चिपटा मल नहीं निकल पाता। यह तो केवल एनीमा द्वारा ही संभव है और वह भी एक दो दिन एनीमा लेने पर नहीं, कुछ दिनों लगातार एनीमा लेने पर। पेट का दर्द जो मलावरोध के कारण हो, बच्चों के चुन्ने पड़ जाना, बवासीर आदि अनेक रोगों में तो एनीमा तुरन्त लाभ दिखाता है। हाथ कंगन को आरसी क्या। एनीमा की उपयोगिता की परीक्षा जो चाहे कर सकता है। अतः बदहजमी, पित्त की अधिकता, गुर्दे तथा यकृत रोग आदि जो बद्धकोष्ठता के ही फलस्वरूप होते है, एनीमा द्वारा दूर किये जा सकते हैं, यदि समझदारी और धीरज से काम लिया जाय। हम याद रखें कि छूत तथा कीटाणुओं द्वारा फैलने वाले रोगों के अनुकूल मलाशय वाला शरीर धारी अपने को बना लेती है। रोग के कीड़ों को अनुकूल भूमि ही न मिले तो कीटाणु असर ही क्या करेंगे। अस्तु एनीमा की उपयोगिता अब स्वतः सिद्ध है। एनीमा द्वारा हम प्रकृति की ओर फिर लौटते हैं।

एनीमा के आविष्कार की कथा बड़ी रोचक है। कहते हैं एक बार एक चिड़िया अत्यन्त थकी माँदी तथा अस्वस्थ सी कहीं से आकर नदी-तट पर बैठी। उसने अपनी चोंच में पानी भरा और चोंच गुदा द्वार में डालकर कई बार पानी भरा। इस प्रकार उसने अपनी आँत साफ कर ली और स्वस्थ और ताजी होकर उड़ गयी। इसी सिद्धान्त को लेकर एनीमा का आविष्कार हुआ। चार-पाँच रुपये में एनीमा सैट किसी दवा खाने की दुकान से खरीदा जा सकता है। एक पानी भरने का बर्तन, एक रबड़ की नली और लकड़ी का टोंटीदार वेंट-यह है सीधी-साधी एनीमा की पिचकारी। एक रबड़ की नली के बीच में रबड़ का बुल्ला होता है और सिर में लकड़ी का टोंटी पर बंटे होता है-यह भी एनीमा की पिचकारी होती है।

जैसी सीधी-साधी यह पिचकारी होती है उतना ही सरल इसका प्रयोग है। दीवार पर दो-तीन फीट की ऊंचाई पर एनीमा पात्र टाँग दीजिये। आप जमीन पर लेट जाइए। लकड़ी की टोंटी खोलकर कुछ पानी निकाल दीजिए ताकि हवा पानी के साथ आँतों में न चली जाय और दर्द हो। फिर टोंटी में चिकनाई लगा कर गुदा द्वार के थोड़ा अंदर कर दीजिये। टोंटी खोल दीजिये और पानी को आँतों में चढ़ने दीजिए। जब सब पानी ऊपर चढ़ जाय तो टोंटी निकाल लें। आप पेट को हाथ से मलते जायं और कभी इस करवट और कभी उस करवट लेटें। 5 मिनट से लेकर आध घन्टे तक जितनी देर हो सके आप पानी रोकें। पानी जोर मारेगा बाहर निकलने को, पर अभ्यास के बाद आप सुविधापूर्वक उसे रोक सकेंगे और अधिक देर तक। पानी आध सेर से आरंभ करें। 2-3 सेर तक पानी चढ़ाया जा सकता है अवस्था तथा परिस्थिति का विचार करते हुए। पानी में सोडा या नमक भी चाहें तो मिला सकते हैं। यदि नींबू का रस जल में मिला लें तो अति उत्तम। पानी ऋतु के अनुसार कुछ गर्म-ठंडा भी कर सकते हैं किन्तु जितनी खून की गर्मी आपकी होती है या जितना जाड़ो में कुएँ का ताजा भरा पानी गरम होता है, उतना गर्म रहे तो अच्छा। यों दर्द आदि में कुछ अधिक गर्म जल का प्रयोग किया जाय। नित्य-प्रति आँतों में बल देने के लिए कुछ दिनों ठंडे जल और आध सेर पानी का नित्य एनीमा लेना अच्छा होगा। इन बातों के लिए कोई निर्धारित नियम नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक परिस्थिति तथा दशा के अनुसार एनीमा के जल की मात्रा, जल की गर्मी और जल में मेल का विचार किया जा सकता है। पानी आँतों में रुक कर कड़े चिपके मल को ढीला करेगा। फिर आप पैखाने जायं। पानी पहली बार तो तेजी से निकल जायगा। फिर रुक-रुक कर दो तीन बार में धीरे-धीरे निकलेगा। 10-15 मिनट आप शौच गृह में रुकें पर जोर मत लगावें अन्यथा पानी बजाय नीचे आने के ऊपर चढ़ जायगा। स्वाभाविक रीति से उसे निकलने दें।

इस सम्बन्ध में दो तीन बातें बता देना आवश्यक है। छः-छः महीने तक लगातार लोगों ने एनीमा लिया है और बाद में छोड़ दिया है। अतः एनीमा लेने से एनीमा की आदत नहीं पड़ेगी। अतः यह डरना व्यर्थ है कि बिना एनीमा के हमें पैखाना ही न होगा। जो ठंडे तथा आध सेर जल से एनीमा लेते हैं उनको एनीमा की आदत कभी नहीं पड़ती। (ठंडे के माने बर्फ सा ठंडा पानी नहीं वह तो नुकसान करेगा) दूसरी बात यह है कि एनीमा किसी प्रकार से नुकसान कर ही नहीं सकता। जैसे दाँतों और मुँह की नित्य सफाई कभी हानि नहीं पहुँचा सकती वैसे ही आँतों की सफाई भला क्यों नुकसान पहुँचाने लगी? ऐसे योगी हैं जो योगिक-क्रियाओं द्वारा, गुदा-द्वार से पानी खींच लेते हैं और इस प्रकार अपने शरीर को मल रहित रखते हैं। हम सदा के लिए एनीमा-आदत डालने के विरोधी हैं।

साधारणतया एनीमा इस क्रम से लिया जाय तो अच्छा होगा। पहले दिन आध सेर गुनगुने पानी का एनीमा लें। दूसरी दिन का नागा कर दें और तीसरे दिन डेढ़ सेर का। फिर दो दिन का नागा करके दो सेर जल का एनीमा लें। दो सेर पानी तक आप मत डरिये। लोग तो 3-4 सेर तक का लेते हैं। महीने में एक बार दो बार यदि आँतों की सफाई हो जाया करे तो अच्छा हो।

पाठक पूछ सकते हैं कि एनीमा लेना तो अस्वाभाविक हुआ ठीक है, पर पेट में बरसों का पुराना मल एकत्रित रखना तो अत्यधिक अस्वाभाविक है और थोड़ा और कुछ दिनों एक अस्वाभाविक कार्य करके यदि हम बहुत बड़ी और स्थायी अस्वाभाविकता को दूर कर दें, तो क्या बुरा है? हाँ, प्रतिदिन 2-2 सेर जल पीना भी आप न भूलें चाहे प्यास लगे या न लगे। वैसे ही बंधे समय पर दो बार पैखाने जाना आप न भूलें, चाहे मालूम हो या न मालूम हो, अभ्यास में बड़ी शक्ति होती है।

अब एनीमा सम्बन्धी हम कुछ नियमों को लिखकर लेख समाप्त करते हैं। हमें समझना चाहिये कि एनीमा कब लें, कब न लें और कैसे लें। (1) अच्छा हो एनीमा स्वाभाविक पैखाना हो जाने के बाद लें (2) चौबीस घंटे में दो बार से अधिक न लें (3) फल और तरकारी आदि पर रहने पर नित्य एनीमा लें (4) उपवास काल में अवश्य एनीमा लें। यदि नित्य नहीं तो एक दिन छोड़ कर अवश्य लें। (5) सदा गर्म पानी का एनीमा न लें (6) एनीमा लेते समय जब पानी ऊपर चढ़ रहा हो तो जिस दिशा में घड़ी की सुइयाँ घूमती हैं, उसके विरुद्ध पेट मलें, और पानी चढ़ जाने के बाद जैसे घड़ी की सुइयाँ घूमती हैं उसी दिशा में पेट रगड़ें। याद रहे बड़ी आँतों को मल-त्याग का आदेश बड़े-कड़े शब्दों में दें (7) भोजन करने के कम से कम तीन घंटे तक एनीमा न लें (8) एनीमा लेने के 15 मिनट तक तो कुछ पियें भी नहीं। और एनीमा लेने के एक घंटे बाद तक भोजन या नाश्ता न करें (9) तुरन्त नहायें नहीं (10) तुरन्त धूप में न लेटें (11) एनीमा लेने के बाद तुरन्त कोई परिश्रम न करें वरन् 15 मिनट तक विश्राम करें (12) अत्यन्त क्षीण रोगी या जिस रोगी की प्राण-शक्ति कम हो गई हो, वह एनीमा न ले।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118