पत्थर

June 1949

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(श्री प्रभात सिंह इनामदार)

शहर के रास्ते पर पत्थर बिछे थे। एक गाड़ी वहाँ से निकली। एक पत्थर को उखाड़ती गई। पत्थर बोला, “अन्य पत्थरों के साथ मैं यहाँ क्यों पड़ा रहूँ? मैं तो स्वतंत्र जीवन बिताऊँगा।”

एक लड़का निकला। उसने पत्थर हाथ में लिया। पत्थर विचारने लगा, “सैर करने की मेरी इच्छा हुई कि यह प्रवास शुरू हुआ। देखो! यह मैं उड़ा। बहुत सरल बात है। जो मन से निश्चय किया, वही होता है।”

धड़ाम से पत्थर काँच की खिड़की से टकराया। काँच फूटा। फूटते-फूटते काँच चीख उठा, ‘अरे! जंगली! तू ने यह क्या किया? लेकिन पत्थर ने जवाब दिया, “मेरी राह में तू आया क्यों? जो मेरी राह में रोड़ा बन कर आता है, उस पर मुझे चिढ़ होती है। मेरी सहूलियत पहले-यही मेरा सिद्धाँत है।”

पत्थर मुलायम बिछौने पर जा गिरा। उसने विचार किया, “ठीक है, उड़ने से मैं थक गया हूँ। अब मैं घड़ी भर के लिए आराम करूंगा।”

नौकर आया। बिछौने से पत्थर उठाकर खिड़की के बाहर फेंक दिया। पत्थर रास्ते पर, अपनी असली जगह पर आ गिरा। पत्थर अपने दोस्तों से कहने लगा, “अच्छे तो हो न, मेरे दोस्तों! मैं अभी उस बड़े घर में मिलने गया था, पर धनवानों के साथ रहना मुझे अच्छा नहीं लगा। आम जनता के लिए मेरा दिल तरस रहा था, इसलिए मैं तुम्हारे पास वापस आया हूँ।”


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