ब्राह्मण तो वह है-जो

June 1949

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(श्री पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)

हस्तावुपस्थमुदरंवाक्चतुर्थी चतुष्टयम्।

एतत्सुसंयतं यस्य स विप्रः कथ्यते बुधैः॥

(गरुड़ पु. प्रेतखंड अ. 10)

जिसके हाथ, उपस्थ (शिश्न ) उदर, तथा वाणी से सुसंयत (बुरे कर्मों से बचे) हैं विद्वान् उसको ब्राह्मण कहते हैं॥

हस्त आदि का सुसंयत होना क्या है सो आगे स्पष्ट करते हैं-

परवित्तंन गृहणति न हिंसाँ कुरुते तथा।

अक्षक्रीडारतो यस्तु हस्तौ तस्य सुसंयतौ॥

जो दूसरे के द्रव्य को अनुचित रीति से नहीं लेता, किसी जीव को सताता नहीं, जुआ नहीं खेलता तो समझना चाहिए कि इस पुरुष के हाथ सुसंयत हैं अर्थात् बुरे कर्मों से बचे हैं।

पर स्त्री वर्जनरतस्तस्योपस्थं सुसंयतम्।

अलोलुपमिदंभुँक्ते जठरं तस्य संयतम्॥

जो पुरुष परस्त्री का त्यागी है उसकी उपस्थ इन्द्रिय संयत है अर्थात् कब्जे में है। और जिस की भोजन में लोलुपता नहीं, उसका उदर सुसंयत (बुरे कर्मों से बचा) है।

सत्यंहितंश्रितं ब्रूते यस्माद् वाक् तस्य संयता।

यस्यसंयतान्येतानि तस्य किं तपसोऽध्वरैः॥

जो पुरुष सत्य, हित और मितभाषी है तो समझो कि उसकी वाणी संयत है। जिसके ये हस्त आदि सुसंयत (बुरे कर्मों से बचे) हैं उसको तपस्या और यज्ञ से क्या प्रयोजन है। इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि सदाचार से रहना ब्राह्मण का लक्षण है। और भी देखिये-

वृत्तस्थमपिचाँडालस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥

(पद्म पु. सृष्टि खण्ड 47।193)

सदाचारी चाँडाल को देवता ब्राह्मण कहते हैं। निवृत्तः पापकर्मेभ्यो ब्राह्मणः स विधीयते।

शूद्रोऽपिशीलसम्पन्नो ब्राह्मणादधिकोभवेत्॥

(भविष्य पु. अ. 44)

जो पाप कर्म से बचा हुआ है वही ब्राह्मण है। सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है। आचार हीन ब्राह्मण शूद्र से गया बीता है।

चतुर्वेदोऽपि दुवृत्तः स शूद्रादतिरिच्यते।

योऽग्निहोत्रपरोदान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः॥

(म. भा. वन. 314।111)

चारों वेदों का जानकार यदि दुराचारी है तो शूद्र से भी गया बीता है जो अग्निहोत्री (काम क्रोधादि को हवन करने वाला) और इन्द्रिय निग्रही है वह ब्राह्मण है।

इस प्रकार के लक्षण वाले ब्राह्मण को लक्ष्य करके ही शास्त्रकार कहते हैं-

अहोतिदुर्भगा लोकाः प्रत्यक्षे केशवे द्विजे।

प्रतिमादिषु सेवन्ते तदभावेहि तत् क्रिया॥

तेषाँ पाणौ च यद्दत्तं हरिपाणौ तदर्पितम्।

(पद्म पु. आदि खंड 61)

आश्चर्य है कि दुर्भागी पुरुष प्रत्यक्ष ब्राह्मण केशव के होने पर प्रतिमा आदि का सेवन करते हैं योग्य ब्राह्मण के अभाव में प्रतिमा पूजन है॥ 51

उन ब्राह्मणों के हाथ में देना मानो भगवान के हाथ में देना है।

विप्राणाँ वपुरास्थाय सर्वाः तिष्ठन्ति देवताः।

अतः पूज्यास्तु ते विप्रा अलाभेप्रतिमादयः॥

(स्कं. पु. 7।1।106 64)

ब्राह्मणों के शरीर में देवता निवास करते हैं अतः ब्राह्मण पूजने योग्य हैं योग्य ब्राह्मण के अभाव में प्रतिमादि हैं। स्मरण रहे कि इसी प्रकार का वचन कूर्म पु. उत्तरार्ध (26। 36) पद्म पु. आदि खंड (57। 36) में आता है।

इन वचनों से सिद्ध है कि जहाँ कहीं शास्त्र में ब्राह्मणों की प्रशंसा के वचन हैं वे सदाचार संपन्न विद्वान ब्राह्मणों के विषय में है अनपढ़ के बारे में तो शास्त्रकार लिखते हैं कि-

अनधीयानमृत्विजम् (म. भा. उ. 23। 76)

बिना पढ़े पुरोहित को छोड़ देना चाहिए। विद्याहीनं गुरुं त्यजेत् (चाणक्य नीति)

विद्याहीन गुरु को त्याग देना चाहिए।

विवेक, सदाचार, स्वाध्याय और परमार्थ ब्राह्मणत्व की कसौटी है। जो इस कसौटी पर खरा उतरता है वही सच्चा ब्राह्मण है।


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