(श्रीमती रत्नेशकुमारी ‘ललन’मैन पुरी)
देवी भागवत में एक प्रार्थना की गई है-
“पत्नीं मनोरमाँ देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्,
तारिणी दुर्ग संसार सागरम्य कुलोद्भवाम्”
हिन्दु संस्कृति के अनुसार यह एक आदर्श पत्नी का भावपूर्ण चारु चित्र है। पर हम आज आइये इस पर विचार करें जिससे जो आर्य संस्कृति के अन्ध भक्त नहीं हैं वे भी इसकी उपयोगिता समझ सकें।
आर्य-संस्कृति में यह माना जाता है कि सम्बन्ध वही सत्य (चिरस्थाई) होता है जो तन, मन आत्मा के साथ जुड़ता है। प्रत्येक विचारशील यह स्वीकार करेगा कि जब तक दो मन एक नहीं हो जाते विवाहित जीवन सफल तथा सर्वदा आनन्दमय नहीं रह सकता। रूप का आकर्षण तो कुछ ही सालों में धीरे-2 फीका होते-2 समाप्त हो जाता है। दो हृदयों के एक होने का साधन संस्कृत के किसी कवि ने बतलाया है “सम विचार जनयेति सख्यम्” मनोविज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है कि समान विचारों से हृदय आकर्षित होता है और वही आकर्षण यदि अधिक सहचर्य प्राप्त होवे तो मित्रता अथवा अन्तरंगता में परिणित हो जाता है। अतएव इस प्रार्थना का इतना अंश तो निर्विवाद है कि “पत्नी मनोरमाँ देहि मनो वृत्तानुसारिणीम्”। मनोवृत्ति के अनुसार का अर्थ यह भी हो सकता है ‘मन में, भावनाओं ने भावी पत्नी का कल्पित आदर्श चित्र खींचा हो उसके अनुसार’ मनोविज्ञान इस अर्थ का भी समर्थन ही करेगा।
मनोरमा, का प्रयोग भी विचारणीय है पत्नी केवल आकर्षक न हो, जो अपने सौंदर्य से मन पर नशा चढ़ा दे, जिसे समय धीरे-2 उतारे दे, वरन् मनोरमा हो। अपने तन-मन दोनों के ही सौंदर्य से सदैव के लिए मन को रमा लेवे। वृद्धावस्था भी उस अनुराग के अकृत्रिम प्रेम बन्धन को शिथिल नहीं कर पाये। कुलवती इसलिए बतलाई गई है कि जैसे व्यक्तियों के बीच में बच्चा पलता है उनका भी बहुत कुछ प्रभाव उस पर पड़ता है। और माता-पिता के संस्कार तो बच्चों को विशेष रूप से प्रभावित करते ही हैं।
अब रहा एक गुण “संसार सागर से तारने वाली” यह विभूति आत्मा से सम्बंधित है। इसका तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त गुणों से जो पत्नी पति का मन आकर्षित कर लेवे वह कदाचित भी उसे कर्त्तव्य के पथ से विचलित न करे। वरन् यदि पति स्वयं ही मोह वश विपथ गामी होने लगे तो तन मन प्राण से उसको कर्त्तव्य मार्ग पर प्रेरित करने का पूर्ण प्रयत्न करें। आर्य नारियों के इन महान गुणों से भरे हुए अनेक चरित्र इतिहास गगन में नक्षत्रों की भाँति जगमगा रहे हैं।