क्रोध को कैसे जीता जाय?

June 1949

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(श्री रामखेलावन चौधरी बी. ए. बम्बई)

जैसे अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसकी शक्ति का पहले अन्दाजा लगा लें, और यह समझ लें कि उसकी शक्ति का उद्गम क्या है, वैसे ही हमें यह समझ लेना चाहिये क्रोध पैदा क्यों होता है। इतना समझ लेने के बाद, क्रोध को पचा लेने की शक्ति मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

ध्यायतो विषयान्पुँसः संगस्तेषूपायते,

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते॥

(गीता अध्याय 2 श्लोक 68)

उक्त पंक्तियों में क्रोध की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला गया है। मनुष्य की इन्द्रियों के विषय हैं- सौंदर्य, स्वाद, मधुर शब्द, कोमल स्पर्श आदि। मनुष्य सुन्दर वस्तुओं को देखने, अच्छे-अच्छे भोजन और रसों का स्वाद लेने, संगीत के जैसे कर्ण प्रिय स्वरों को सुनने आदि की चिंता करता है। यह तो स्वाभाविक ही है किन्तु खतरा यह है कि उनके संबंध में सोचते वह इतना आदी हो जाता है कि वह उनके पाने की इच्छा करने लगता है। उनके बिना वह रह नहीं सकता, बस यही क्रोध का कारण है, क्योंकि उन सब चीजों की प्राप्ति अपने वश की बात नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि क्रोध का सबसे बड़ा कारण है किसी से अत्यधिक इच्छा करना। आप अपने मित्र, पुत्र या पत्नी से इसीलिए नाराज होते हैं कि उसने आपकी इच्छानुसार कार्य नहीं किया। इच्छा करना बुरी चीज नहीं है, किन्तु जब हम किसी के ऊपर आवश्यकता से अधिक आशाएं बाँध लेते हैं और अपनी स्वार्थ सिद्धि का आधार समझ बैठते हैं, तभी क्रोध को मानो न्योता दे देते हैं। कोई व्यक्ति हमारी या आपकी इच्छाओं का पालन, मशीन की तरह नहीं कर सकता है। उसकी भी इच्छाएं हैं, जब पहले उसकी इच्छाएं पूरी हो जाएगी तभी वह आपकी तरफ ध्यान देगा। इसलिए क्रोध के विजय के मार्ग में सबसे क्षीण पहला कदम यह होगा कि हमें किसी से अंधाधुन्ध आशाएं नहीं करनी चाहिये। किन्तु यह केवल रक्षात्मक कार्य हैं। क्रोध पर पूरी तरह विजय प्राप्त करने के लिए किसी से कुछ कार्य सिद्धि की अभिलाषा करने के स्थान पर, यदि हम यह सोचना बल्कि करना आरम्भ कर दें कि हमें अपने मित्रों और प्रेमियों की सेवा करनी है। इस प्रकार की मनोवृत्ति उत्पन्न हो जाने पर क्रोध की कोई गुंजाइश न रहेगी।

अपनी ओर से तो क्रोध पैदा न होने देने का प्रबन्ध मनुष्य उपर्युक्त विधि से चाहे कर ले किन्तु उस स्थिति में क्या होगा जब दूसरे हमारा अपमान करते हैं, या हमें हानि पहुँचाते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, और हमारे आस-पास के जितने आदमी होते हैं वे प्रायः स्वार्थी ही होते हैं। जब एक की हानि होगी तभी दूसरे का लाभ होगा। ऐसी दशा में हानि पहुँचाने वाले के प्रति क्रोध कैसे न होने दिया जाय। इस सम्बन्ध में हमें उदारवृत्ति का अनुगमन करना चाहिए। जब संसार स्वार्थमय है और इसका प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से कुछ लेकर या छीन कर ही अपनी स्वार्थ लिप्सा पूरी करता है, तो उस पर क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। दुनिया के इस रवैये को समझ लेने के बाद क्रोध न आना चाहिए। अपना कर्त्तव्य यही है कि हम अपनी हानि को पूरी करें और उससे हमेशा बचते रहें।

लाभ-हानि के क्षेत्र के बाहर भी कुछ काम ऐसे होते हैं जिनसे दूसरे लोग हमें व्यर्थ में हानि पहुँचाते हैं या कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि अनजाने में दूसरों के द्वारा कुछ काम ऐसे हो जाते हैं जिसके कारण हमें क्रोध हो सकता है, जैसे कि आपकी पत्नी या पुत्र से असावधानी के कारण आपका गिलास या कलम टूट जाय। कभी-कभी कोई ऐसे नौकर मिल जाते हैं कि आप कहते हैं कि बाजार से आम ले आओ, वह ले आता है नींबू। इसी तरह मान लीजिये किसी ने आपके बच्चे को मार दिया, आपको क्रोध आ जाता है। इस प्रकार के छोटे-छोटे कारणों से क्रोध आता है। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। महात्मा गाँधी ने बताया है कि जब क्रोध आये तो हमें उस समय कोई काम ही न करना चाहिए। क्रोध की दशा स्थायी नहीं होती। थोड़ी देर तक ही मनुष्य हिताहित ज्ञान शून्य हो सकता है, बाद में विचार शक्ति काम करने लगती है और मनुष्य का क्रोध कम हो जाता है। करीब-करीब इसी सिद्धान्त का अनुसरण अब्राहम लिंकन ने भी अनेक अवसरों पर किया था। एक बार उसकी सेना के एक बड़े उच्च पदाधिकारी ने उसके बताये गये युद्ध सम्बन्धी अनुशासन को नहीं माना, फलतः बड़ी हानि उठानी पड़ी। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध आया। उसने उस पदाधिकारी के नाम एक कड़ा पत्र लिखा, किन्तु लिखने में विचार शक्ति से काम लेना पड़ता है। परिणाम यह हुआ कि उसका क्रोध ठंडा हो गया और वह पत्र भेजा नहीं गया। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मानसिक आवेग में लिखना उसकी तीव्रता को कम कर देता है। इसी प्रकार हमारे देश में प्रचलित एक किंवदंती भी है जिसमें बताया गया है कि क्रोध की दवा क्या है? एक मनुष्य को बहुत क्रोध आता था, एक वैध से उसने इसकी दवा पूछी। वैद्य ने खाली पानी एक बोतल में भर कर उसे दे दिया और कहा कि जब क्रोध आये तो यह दवा मुँह में भर लो और भरे रहो, थोड़ी देर में तुम्हारा क्रोध कम हो जायेगा। तात्पर्य यह कि जब क्रोध आ जाय तो अपने को रोक कर किसी काम में लग जाने पर क्रोध कम हो जाता है।

मनुष्य जो कुछ दूसरों का अपराध कर बैठते हैं, वह उनके स्वभाव की निर्बलता है, यह सोचने और इस पर ध्यान देने से क्रोध बिल्कुल आता ही नहीं। अगर मनुष्य यह समझ ले कि अपराधी अज्ञान में अपराध करता है, तो क्रोध आये ही नहीं। महान् पुरुषों ने इसी तत्व को हृदयंगम करके ही क्रोध पर विजय प्राप्त की है। ईसा मसीह को जिन लोगों ने उन्हें सूली पर चढ़ाया, उन पर क्रोध करने की अपेक्षा, उनकी अज्ञानता के प्रति उन्हें दया थी। कृष्ण को जब बहेलिए ने अज्ञान वश बाण से बेध दिया तो अपने हत्यारे को देख कर वे केवल मुस्कराये थे और बोले कि इसमें तुम्हारा क्या दोष, यह तो होनहार ही था। संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने जीवन भर किसी विषय पर बड़े परिश्रम से खोज की थी। उन गवेषणाओं पर टीका-टिप्पणी करके उसने तमाम कागजात एक मेज पर रखे थे। एक दिन वह अपनी अध्ययनशाला में बैठे पढ़ रहे थे कि उसका कुत्ता डायमंड एकदम उचका और जलते हुए लैम्प को गिरा दिया। पलभर में सारे मूल्यवान कागज जलकर भस्म हो गये। जीवन भर का परिश्रम कुत्ते ने नष्ट कर दिया पर न्यूटन शान्त रहे। क्रोध पर उसकी विजय बेमिसाल विजय थी, उसका हृदय भारी था, उसने कुत्ते के सर पर हाथ फेरते हुए उसने कहा- “डायमंड, डायमंड, तुम क्या जानो, तुमने क्या कर डाला।” उसकी जगह पर शायद कोई दूसरा होता तो क्रोध में अंधा होकर कुत्ते को गोली ही मार देता। इन महान व्यक्तियों ने क्रोध पर इसीलिए विजय पाई थी कि वे अपराधी का अपराध को कारण न मानकर, उसकी अज्ञानता को कारण मानते थे। गाँधी जी कहा करते थे- “अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं।”

‘क्रोध’ की उत्पत्ति संकीर्ण हृदय में होती है। जिसके विचार इतने संकुचित हैं कि वह अपने दृष्टिकोण को छोड़ कर दूसरों के विचारों के प्रति आदर नहीं रखता, वह पग-पग पर क्रोध करता चलता है। इसी तरह रूढ़िवादिता भी क्रोध की जड़ है। किसी धर्म के प्रति किसी रीति या परम्परा के प्रति आस्था रखना बुरी बात नहीं है, पर किसी अपने से भिन्न विचारों के प्रति, घृणा करना बुरी बात है। बहुत से वृद्ध, नौजवानों से इसीलिए क्रोधित हो जाते हैं कि नये ढंग से कपड़े पहनते हैं, पुराने रीति-रिवाजों को नहीं मानते। यह ठीक है कि बहुत सी बातें आधुनिक जीवन प्रणाली में बुरी भी हैं, पर हमें यह न भूल जाना चाहिए कि समय बदला करता है, जिस संस्कृति के आप पक्षपाती हैं, किसी समय में वह भी इसी तरह नयी रही होगी। मनुष्य को हमेशा प्रगतिशील होना चाहिए। परिवर्तनों और नवीन व्यवस्थाओं से घृणा या क्रोध करके कोई लाभ नहीं होता है। समय बदलता ही है, इस पर ध्यान रखने से क्रोध नहीं आ सकता।

क्रोध पर विजय प्राप्त करने का सबसे उत्तम उपाय है, अपने में न्याय की प्रवृत्ति का पैदा कर लेना। मनुष्य के अनेक कार्य उनमें से किसी की हानि या अपकार या अपराध कर डालने वाले काम उसके खुद के द्वारा नहीं होते। कभी-2 परिस्थितियाँ ऐसी आ जाती हैं कि मनुष्य ऐसे काम करने को मजबूर हो जाता है। ऐसे कामों में आत्म-हत्या, चोरी, व्यभिचार, डाका और कत्ल जैसे जघन्य अपराध भी शामिल हैं। यद्यपि यह ठीक है कि कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो जान बूझ कर ऐसे अपराध करते हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं है। अधिकतर मनुष्य ऐसे गुरु अपराध भावावेश या परिस्थितियों के कारण कर डालते हैं। अब मनोवैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह बात सिद्ध भी हो गई है। इसलिए जेलखानों में अपराधियों की मानसिक स्थिति को समझना और उनका सुधार करना राज्य का एक कर्त्तव्य बन गया है। इसी सत्य का पालन हम अपने व्यक्तिगत जीवन में कर सकते हैं यदि किसी मित्र, सम्बन्धी या पास पड़ोसी ने अपमान या अपकार भी कर डाला हो, तो हमें उसके प्रति न्याय करना चाहिए और वह न्याय कैसे हो? यदि हम अपने को अपराधी की परिस्थितियों में रख दें और सोचें कि उन अमुक परिस्थितियों में हम क्या करते? तो यह समझ में आ जायगा कि हमारा भी काम शायद वैसा ही होता जैसा कि अपराधी कर चुका है। बस यह विचार आते ही अपराधी के प्रति क्रोध न आकर इसमें सहानुभूति पैदा हो जाती है और क्षमा भाव जाग्रत हो उठता है।


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