(श्रीयुत् रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
मैं निश्चय रूप से कह सकता हूँ कि पाश्चात्य सभ्यता की उन्नति का अर्थ स्त्री के लिए अधिकाधिक कष्ट और विपत्ति है। स्त्री, समाज के व्यक्तियों को केन्द्र की ओर आकर्षित करती है, यह उसका व्यक्तिगत गुण है। परन्तु पश्चिम में स्त्री की यह शक्ति दिन पर दिन क्षीण होती जाती है। स्त्री की केन्द्र की ओर खिंचने वाली शक्ति पृथक करने वाली शक्ति के मुकाबले में असफल हो रही है। वहाँ जीवन-संग्राम बढ़ रहा है। पुरुष अधिक धनोपार्जन की लालसा में विदेश जा रहे हैं, अधिक सुख प्राप्ति के लिए वे विवाह के बन्धन में पड़ना नहीं चाहते। फलतः क्वारों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और स्त्री साम्राज्य नष्ट हो रहा है। कन्याओं को पति प्राप्त करने के लिए कई-कई वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यदि सौभाग्यवश उन्हें पति मिल भी जाता है तो भी उनकी समस्या हल नहीं होती। वह कमाने के लिए बाहर चला जाता है, पत्नी घर में बैठ कर ठण्डी साँसें छोड़ती है। पुत्र भी बड़ा होकर पृथक हो जाता है। स्त्री इस अकेलेपन से घबरा कर संघर्ष के संसार में उतर आती है यद्यपि उसका शरीर और मस्तिष्क दोनों इस योग्य नहीं हैं। पश्चिम में महिलाओं का घर से बाहर संघर्ष में सम्मिलित होना स्पष्ट प्रकट करता है कि वहाँ का सामाजिक गठन हो रहा है।
यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य सभ्यता में शक्ति जीवन की अनिवार्य वस्तु है। निःशक्त के लिए-चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष-वहाँ कोई स्थान नहीं। चारों ओर से ‘काम करो’ की ध्वनि कर्ण गोचर होती है। जो काम नहीं करता उसे निकृष्ट समझा जाता है। पाश्चात्य महिला ने भी अनुभव किया कि यदि उसे समाज में आदरणीय जीवन व्यतीत करना है तो उसे भी यह सिद्ध करना होगा कि वह सशक्त है और पुरुष के समक्ष परिश्रम करने की क्षमता रखती है। यदि वह ऐसा नहीं करती तो उसे जीवन-संग्राम में आत्म-ग्लानि और अनादर के स्थान पर सन्तोष करना होगा।
यही स्थिति है जिसके वशीभूत हो पाश्चात्य महिला संकटावस्था में अपना दिन व्यतीत कर रही है। परन्तु इतने पर भी जब मैं देखता हूँ कि यूरोपीय महानुभाव भारतीय महिला की दुखावस्था पर आँसू बहाते हैं और उसकी सहायतार्थ अपनी सेवाएं समर्पित करने को तैयार होते हैं तो मुझे खेद होता है कि वे अपनी सहानुभूति व्यर्थ नष्ट कर रहे हैं। भारतीय गृहिणी के सादे परन्तु सुन्दर आभूषणों ने तथा उसकी हंसमुख आकृति, निर्मल प्रेम और सरल स्वभाव ने घर को स्वर्गधाम बना रखा है। जब कभी उसे कोई कष्ट होता है तो उसकी आँखों में आँसू भर आते हैं-परन्तु अत्याचारी पति और अयोग्य पुत्र कहाँ नहीं होते? क्या यूरोप इन से खाली है? हमने कभी शिकायत नहीं की कि हम अपनी स्त्रियों के साथ प्रसन्न नहीं और न हमारी स्त्रियों ने ही कभी यह शिकायत की कि हमें कष्ट है, फिर यह हजारों मील की दूरी पर बैठे हुए अपरिचित प्राणी क्यों हमारी स्त्रियों के दुख और कष्टों को स्मरण कर रुदन करते हैं।
मेरे विचार से इसका एक कारण है। वह यह कि लोग दूसरों के सुख-दुख का अनुमान लगाने में प्रायः भूल करते हैं। यदि सभ्यता की उन्नति मछली को मानव में परिणित कर दे तो निश्चय सब लोग अपने आपको जल-मग्न पायेंगे। पश्चिम की खुशी घर से बाहर है, हमारा सौख्य घर के अन्दर है। पश्चिम यह कैसे जान सकता है कि हम घर के आँगन में प्रसन्न हैं या नहीं? इसी प्रकार हम भी पश्चिम के लोगों के मनोभावों का अनुभव नहीं कर सकते। वह लोग खेल-कूद और विलास सामग्री को इतना चाहते हैं कि उसके सामने स्त्री बच्चों की तनिक भी परवाह नहीं करते। उनके लिए भोग विलास पहले और प्रेम बाद में है। इसके विपरीत प्रेम हमारे जीवन की सबसे महान आवश्यकता है। मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं कि हम भारतीय प्रेम के बिना जीवित नहीं रह सकते। मत्स्य पानी के अन्दर रहता है, किन्तु श्वास लेने के लिए उसे जल-धरातल पर आना पड़ता है, नहीं तो वह मर जायगा। इसी प्रकार यदि हमें जीवित रहना है तो हमें अपने घर के अन्दर जाना होगा।
प्रश्न होता है कि क्या भारतीय नारी कष्ट में है? मैंने जहाँ तक इस प्रश्न पर विचार किया है, मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि हमारे समाज के वर्तमान विधानानुसार भारतीय नारी पर्याप्त रूपेण प्रसन्न है। यह अन्य बात है कि हमारा देश हमारे लिए अनुकूल नहीं। पश्चिम का पुरुष क्या समझे कि नारी का वास्तविक सौख्य प्रेम में ही है?
यहाँ पश्चिम की वृद्ध कुमारियों और भारत की युवती विधवाओं की तुलना करना अनुचित न होगा। दोनों जातियों की संख्या के विचार से इनका अनुपात लगभग एक-सा ही है। परन्तु उनकी दशा समान नहीं। भारतीय विधवा का स्त्रीत्व कभी व्यर्थ नहीं जाता। उसकी गोद कभी खाली नहीं रहती, उसके हाथ कभी निष्काम नहीं रहते, उसका हृदय कभी सूना नहीं रहता। वह अपने समधियों के बाल-बच्चों के लिए माँ बन जाती है और इस प्रकार उसके जीवन में मनोरंजन और आकर्षण प्रस्फुरित होता है। सम्मिलित परिवार के बच्चे उसकी आँखों के सामने पैदा होते हैं। वह अपने देवरों, अपने भाइयों से प्रेम करती है, उनके साथ खेलती है और समादर का जीवन व्यतीत करती है। अतः यह एक भ्रम है कि हमारी नारी अपनी पश्चिम की बहन से कम प्रसन्न है।
पश्चिम की नारी उमंगों के तूफान में रहती है। वह पुरुषों का मुकाबला करती है। बाजार में जाती है और अपने कुंआरेपन तथा यौवनकाल को कुत्ते पाल कर अथवा सिनेमा थियेटर देख कर व्यतीत करती है। मैं यह नहीं कहता कि हमारी सामाजिक स्थिति सुसम्पन्न है और हमारी स्त्रियाँ भय की दुनिया में जीवन-व्यतीत नहीं करतीं।
हमारी महिला को यद्यपि लिखना पढ़ना नहीं आता परन्तु वह एक उच्च कुल में रह कर व्यावहारिक शिक्षा ग्रहण करती है। हाँ एक बात हमें माननी पड़ेगी, वह यह कि सम्मिलित परिवार प्रथा ने हमारी उन्नति को कुचल दिया है। आज कल हमारे परिवार इतने बढ़ गये हैं कि हमें उनसे बाहर की स्थितियों पर ध्यान देने का अवकाश ही नहीं, हमारा समाज एक सघन वन के समान है। इसमें हजारों छोटे-छोटे वृक्ष हैं। वे दूसरों को उन्नति करने का अवसर ही नहीं देते। सम्मिलित परिवार-प्रथा की कड़ियों में जकड़े रह कर हम एक जाति, एक राष्ट्र स्थापित करने में तथा विश्व विजयी शक्ति संगठित करने में असमर्थ रहे हैं। हमारे मध्य अच्छे माता-पिता और भाई जो उत्पन्न हुए हैं, उनके साथ ही हमने उच्च कोटि के त्यागियों को भी जन्म दिया है, परन्तु हम ऐसे व्यक्ति उत्पन्न नहीं कर सके जो संसार के लिए जिएं। हमारे लिए हमारा कुटुम्ब ही संसार है, यूरोप में घर का प्रेम कम है। हम कहते हैं कि एक अविवाहित व्यक्ति अर्द्ध पुरुष है, पाश्चात्य लोग कहते हैं कि जिस व्यक्ति के लिए कब्र नहीं वह अपूर्ण मनुष्य है। हमारा विचार है कि बिना बच्चों के घर सुनसान जंगल के समान है, उनका मत है कि विलास-सामग्री रहित घर, घर नहीं। जहाँ भौतिक ऐश्वर्य का समादर हो वहाँ यह समाज के लिए एक क्रूर स्वामी का काम देता है। धनाधीश गुणी-विद्वान को घृणा और सरल व्यक्ति को दया की दृष्टि से देखने लगता है। संपत्ति पहले-पहले योग्यता का बाह्य चिह्न प्रतीत होती है, किन्तु बाद को योग्यता का कुछ भी मान नहीं रहता जब तक कि उसके हाथ लक्ष्मी का आडम्बर न हो।
यदि मेरा अनुमान सत्य है तो यूरोपीय सभ्यता अपने लिए मृत्यु का विस्तृत क्षेत्र तैयार कर रही है। भौतिक ऐश्वर्य और विलास-सामग्री को एकत्रित करने से शनैः शनैः घर की प्रसन्नता विनष्ट हो रही है-उस घर की जो मनुष्य के प्रेम और शुभ भावनाओं का केन्द्र स्थान है, जो कि विशुद्ध हृदयता का अनन्त स्रोत है, जो मनुष्य के लिए एक ऐसी आवश्यक वस्तु है, जिसके मुकाबले में अन्य वस्तुएँ तुच्छ और नगण्य हैं।
पृथ्वी के उस भूभाग में जहाँ घर कम हो रहे हैं और होटल बढ़ रहे हैं, जहाँ एक व्यक्ति अपने आराम की चिंता में है और तदनुकूल सुख प्राप्त करने के लिए अपनी आराम-कुर्सी, अपना कुत्ता, अपना घर, अपनी बंदूक, अपना तम्बाकू और जुआ खेलने के लिए अपना क्लब रखता है, वहाँ हमें समझ लेना चाहिए-स्त्री की महत्ता कम हो रही है।