यौगिक शिथिलीकरण

June 1949

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(श्री स्वामी कुवलयानन्द)

आज मैं आपको यौगिक शिथिलीकरण अर्थात् उन योगिक आसनों के विषय में, जिनके द्वारा शरीर की स्नायु प्रणाली और माँस-पेशियों का शिथिलीकरण होता है, कुछ बातें बताना चाहता हूँ। किन्तु इन आसनों के टेकनिक अथवा विशेषता के सम्बन्ध में विचार प्रकट करने तथा आधुनिक युग के मनुष्य के लिए इनकी महान उपयोगिता बताने के पूर्व मैं यह आवश्यक समझता हूँ कि शरीर के भीतर स्नायु और माँस-प्रणालियों के कार्यों का संक्षिप्त रूप से सिंहावलोकन करा दूँ।

पहले मैं स्नायु प्रणाली को लेता हूँ। हम देखते हैं कि हमारे समस्त कार्य शरीर के ढांचे को ढ़कने वाली माँस पेशियों के संकोचन पर निर्भर करते हैं। कूदना, दौड़ना, टहलना, फेंकना, उठना, बैठना, लिखना, बातचीत करना अथवा साँस लेना आदि जो भी हम कार्य करते हैं वह हमारे शरीर की निर्दिष्ट माँसपेशियों के संकोचन के ही द्वारा होता है। कुछ वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमारे सोचने अथवा विचार करने की मानसिक क्रिया में भी माँसपेशियों में कुछ संकोचन होने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार आप देखेंगे कि सम्पूर्ण जाग्रतावस्था में हमारी माँसपेशियों में बराबर संकोचन होता रहता है। संकोचन की यह क्रिया किस हद तक होती है यह हम जो कार्य करते हैं उसके प्रकार अथवा किस्म पर निर्भर है।

अब इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि माँसपेशियों के जिस संकोचन का उल्लेख ऊपर किया गया है वह स्नायु प्रणाली द्वारा नियन्त्रित होता है। यह स्नायु प्रणाली मस्तिष्क में और मेरु-दण्ड में शक्ति का सृजन करती है और तार की सी नाड़ियों के मार्ग से शरीर के प्रत्येक अवयव में पहुँचती है, जिसमें शरीर को ढ़कने वाली माँसपेशियों के अवयव भी सम्मिलित हैं। स्नायविक शक्ति संवेग के रूप में नाड़ियों के मार्ग से संचारित होती है। और जब किसी माँसपेशी में प्रविष्ट हो जाती हैं तो वहाँ पर संकुचन होता है। इस संकुचन का दायरा वहाँ पर पहुँचाई गई शक्ति की मात्रा पर निर्भर करता है। इस प्रकार स्नायु-संवेग जितना प्रबल होगा उसी अनुपात से मांसपेशियों का संकोचन भी होगा। ये स्नायु संवेग बिजली का सा गुण रखते हैं और यद्यपि सम्भव है हममें से अधिकाँश इससे अपरिचित रहते हों, किंतु सच बात तो यह है कि हमारे शरीर में मस्तिष्क और मेरुदण्ड से लेकर मांसपेशियों तक और फिर ज्ञानेन्द्रियों से चलकर मस्तिष्क और मेरुदण्ड तक नाड़ियों के मार्ग से विद्युत धाराएं लगातार प्रवाहित होती रहती हैं। ये विद्युत धाराएं साधारण विद्युत धारा की गति नहीं रखतीं। इनकी गति प्रति सेकेंड केवल 40 गज से लेकर 100 गज तक ही होती है। ये विद्युत धाराएं मनुष्य की चेतना में भी प्रविष्ट नहीं होतीं।

स्नायु संवेग की विद्युत का सबसे पहले पता सन् 1842 में लगाया गया था, लेकिन इस विद्युत की क्षीणतम धारा को व्यक्त करने के लिए यन्त्र तैयार करने में वैज्ञानिकों को करीब एक शताब्दी का समय लग गया। अब डॉ. जैकाब्सन ने ‘बेल टेलीफोन’ प्रयोगशाला की सहायता से एक ऐसा यन्त्र तैयार किया है जो एक ‘वाल्ट’ के 1 बटा 1000000 अंश को भी माप सकता है। आपके लिए यह एक दिलचस्पी की बात होगी कि यह यन्त्र बिजली की शक्ति का माप एक ऐसे तार से करता है जिसका व्यास केवल 1।10000 इंच है।

डॉ. जैकाब्सन तथा उसी के समान अन्य कई वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किये गए यन्त्रों के द्वारा स्नायुओं के तनाव का ठीक-ठीक माप किया जाना सम्भव हो गया है। आधुनिक सभ्य देशों में निवास करने वाला मनुष्य प्रतिदिन के कार्यों को पूर्ण करने में अपार स्नायुविक शक्ति खर्च करता है। आजकल के जीवन में कितनी अधिक स्नायुविक शक्ति व्यय करने की जरूरत पड़ती है। इसे समझने के लिए हमें केवल अपने कार्य में व्यस्त हुए किसी डॉक्टर, वकील, व्यवसायी, राजनीतिक या अधिकारी के कार्यों का अवलोकन मात्र करने की आवश्यकता है। इन लोगों को हर रोज बहुत अधिक व्यक्तियों से निपटना होता हैं। जिनमें से प्रत्येक अपनी एक अलग समस्या उपस्थित करता है और उसे तत्काल हल करा लेना चाहता है। उस डॉक्टर, उस वकील, उस राजनीतिक या उस व्यवसायी को हर बार नये आने वाले व्यक्ति के कारण शक्ति रूपी बिजली का बटन दबाना और छोड़ना पड़ता है। जिस गति अथवा तेजी के साथ हम अपने जीवन को बिता रहे हैं उसका अन्दाज हम रेलगाड़ियों, इंजनों, वायुयानों तथा तार, टेलीफोन, रेडियो आदि को देखकर लगा सकते हैं इन तेज रफ्तार वाले कार्यों के फलस्वरूप हमारे शरीर के ‘डाइनेमो’ को प्रायः अविराम चलते रहना पड़ता है, जिसका फल यह होता है कि हमारे स्नायुओं को लगातार ऊंचे दरजे के तनाव की अवस्था में रहना पड़ता है और हमारे शरीर की माँसपेशियाँ स्वभावतः संकुचित हो जाती हैं। वैज्ञानिक परीक्षाओं से यह प्रकट हो चुका है कि आवश्यकता से अधिक कार्य करने वाले व्यक्ति के स्नायु नींद की अवस्था में भी शान्त नहीं होते और उसकी माँसपेशियाँ शिथिल नहीं होतीं। उनका शरीर बराबर तनाव की अवस्था में रहता है जो एक प्रकार की आदत बन जाती है।

आमतौर पर हम सभी यह जानते हैं कि मशीनें भी बिना विश्राम अथवा आराम के कार्य नहीं कर सकतीं। अगर मशीनों को आराम न करने दिया जाये तो जल्द खराब हो जायेंगी, तो फिर जिन व्यक्तियों के स्नायु विश्राम करना जानते ही नहीं उन्हें स्नायविक रोगों का अगर शिकार होना पड़े तो क्या यह कोई आश्चर्य की बात होगी? प्रत्येक चिकित्सक यह जानता है कि स्नायु-दौर्बल्य के कारण अजीर्ण, कोष्ठबद्धता, अनिद्रा का रोग, रक्त-चाप का बढ़ना, नपुँसकता और उन्माद रोग हमारे नगरों की धनी आबादियों में लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इसका कारण हम आसानी के साथ समझ सकते हैं। वह यही है कि हम बिना विश्राम के लगातार आवश्यकता से अधिक स्नायविक शक्ति खर्च कर रहे हैं।

इन बुराइयों से हम छुटकारा कैसे पा सकते हैं? क्या हमें अधिक स्नायविक तनाव पैदा करने वाले कार्यों से अपना पिण्ड छुड़ाकर अपने स्नायुओं को आराम देना चाहिए था हमें इसके लिए रेलवे लाइनें तोड़कर, टेलीफोन और तार की लाइनों को नष्ट करके, रेडियो स्टेशन बन्द करके तथा वायुयानों द्वारा सफर करने पर रोक लगा, इन तेज रफ्तार से कार्य करने वाले साधनों से मुक्त हो जाना चाहिए। यह प्रायः सभी स्वीकार करेंगे कि हम चाहने पर भी ऐसा नहीं कर सकेंगे। जो भी हो, अगर हम चाहते हैं कि हमारा भविष्य सुखपूर्ण हो तो हमें अपने शरीर को बराबर तनाव की अवस्था में न रखकर उसे विश्राम देना होगा। और चूँकि हमारे जीवन के दायरे के चारों तरफ जो अवस्थाएं उत्पन्न हुई हैं उन्हें हम बिल्कुल बदल नहीं सकते इसलिए हमें इसके लिए व्यक्तिगत रूप से ही मुक्त होने के लिए उपाय करना पड़ेगा। हमारे लिए केवल यही एक मार्ग खुला है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि रूढ़िवादी डॉक्टर स्नायुविक खराबियों को दवाएं देकर दूर करना चाहेगा। डाक्टरी चिकित्सा करने वाला मनोवैज्ञानिक कुछ हद तक रोगी का मनोविश्लेषण करके इलाज करेगा। इन चिकित्सा प्रणालियों, पद्धतियों और विशेषतः पुराने स्नायविक रोगों की जाने वाली चिकित्सा प्रणालियों की सफलता अथवा असफलता के सम्बन्ध में व्यक्तिगत रूप से कोई विचार प्रकट करने के बजाय मैं आप लोगों को यह बताना चाहता हूँ कि डाक्टरों का एक ऐसा भी वर्ग है जिसके सदस्यों का ख्याल है कि स्नायविक विकार से पीड़ित होने वाले रोगी को आराम तथा उसकी माँसपेशियों को विश्राम दिलाकर उसे रोगमुक्त किया जा सकता है।

हमारे रूढ़िवादी डॉक्टर भी स्नायु सम्बन्धी रोगियों को आराम करने की सलाह देते हैं। लेकिन खेद की बात यह है कि माँसपेशियों के शिथिलीकरण के बिना आराम करने का कोई विशेष लाभ रोगी को नहीं पहुँचाया जा सकता। रोगी चारपाई पर लेट तो जाता है लेकिन वह बराबर बेचैन बना रहता है और अपने शरीर को आराम पहुँचाने वाली स्थिति में करने के लिए खींचतान करता रहता है। इसका कारण यह है कि उसकी नाड़ियों के मार्ग से विद्युत शक्ति लगातार माँसपेशियों की ओर प्रवाहित होती रहती है, जिसके कारण नाड़ियों में बहुत अधिक तनाव और माँसपेशियों में संकुचन रहता है। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में किये गये प्रयोगों के द्वारा अन्तिम रूप से यह प्रमाणित किया जा चुका है कि जब तक शरीर की माँसपेशियों का शिथिलीकरण नहीं किया जाता तब तक नाड़ियों के मार्ग से प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा को रोका नहीं जा सकता और नाड़ियों के तनाव को दूर नहीं किया जा सकता। उन प्रयोगों से यह भी प्रकट हुआ है कि शरीर की माँसपेशियों को पूर्ण विश्राम पहुंचा कर माँसपेशियों में विद्युत शक्ति के प्रवेश को भी पूरी तौर से रोका जा सकता है और नाड़ियों को पूरा आराम पहुँचाया जा सकता है।

डॉक्टर जैकाब्सन ने शरीर की माँसपेशियों का ऐच्छिक शिथिलीकरण करने का साधन निकाला है, जो संक्षेप में इस प्रकार है- रोगी पीठ के बल चारपाई पर लेट जाता है और तब वह धीरे-धीरे और सजगतापूर्वक अपने शरीर के किसी खास अंग की-उदाहरण के लिए दाहिना हाथ ले लीजिये- मांसपेशियों को सिकोड़ता है। इसके साथ ही दूसरी ओर वह माँसपेशियों को संकुचन पैदा होने के ज्ञान का अधिकाधिक अनुभव करने की चेष्टा करता है। जब उसे माँसपेशियों के संकुचन का ज्ञान प्राप्त करने की पूर्ण सफलता मिल जाती है तो उसके उपरान्त वह उस मन्द संकुचन को भी रोकने की चेष्टा करता है जो कि आराम करने की हालत में भी माँसपेशियों में बना रहता है और जिसे अवशिष्ट संकुचन कहते हैं। इस बचे हुए संकुचन को भी दूर करने का प्रयत्न इच्छाशक्ति के द्वारा किया जा सकता है और जब इसमें सफलता मिल जाती है तो उसके उपरान्त यह अवशिष्ट संकुचन मिट जाता है और माँसपेशियों का पूर्ण शिथिलीकरण हो जाता है। इसी प्रकार जब शरीर की समस्त माँसपेशियों का शिथिलीकरण हो जाता है तो उसे साधारण शिथिलीकरण कहते हैं।

इसका उपयोग हमारे यहाँ के योगीगण साँस्कृतिक तथा रोगों का निवारण दोनों उद्देश्यों से करते आ रहे हैं। अब हम बतायेंगे कि शिथिलीकरण के ये तरीके क्या हैं?

साधारण शिथिलीकरण के लिए दो तरह के आसन करने की सलाह दी जाती है। वे हैं शवासन और प्राणधारण। शवासन करने के लिए पीठ के बल लेट कर जहाँ तक सम्भव हो सके वहाँ तक अपने शरीर को ढीला करना चाहिए। आंखें बन्द करके शरीर की माँसपेशियों के स्थानीय ढीलेपन अथवा शिथिलीकरण का बोध करना चाहिए। इसके लिए पाश्चात्य पद्धति के अनुसार संकुचन की अनुभूति को उन्नत बनाने की आवश्यकता नहीं है। इस नियम के अनुसार जब कोई व्यक्ति शिथिलीकरण की दिशा में कुछ उन्नति कर लेता है तब वह दूसरे आसन-प्राणधारण का लाभ उठाता है इसके लिए आसन करने वाला व्यक्ति एक ओर माँसपेशियों के शिथिलीकरण में कोई बाधा इत्यादि उत्पन्न नहीं होने देता तो दूसरी ओर साँस के बाहर निकलने तथा भीतर आने की क्रिया पर ध्यान आकर्षित करता है और धीरे-धीरे श्वास निश्वास के संचालन के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस सतर्क तथा सामंजस्यपूर्ण साँस लेने की क्रिया से समूची स्नायु प्रणाली पर निषेधात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके द्वारा न केवल हृदय तथा फेफड़े को काफी शिथिलता प्राप्त होती है बल्कि शरीर की माँसपेशियों के प्रत्येक अवयव का पूरी तौर से शिथिलीकरण हो जाता है। शिथिलीकरण के सम्बन्ध में प्राणधारण आसन के उपयोग से न केवल शिथिलीकरण की क्रिया कहीं अधिक आसान हो जाती है बल्कि श्वास संचालन क्रिया पर अधिकार स्थापित कर लेने के फलस्वरूप माँसपेशियों का शिथिलीकरण अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण हो जाता है और उसके द्वारा वह मनुष्य दिन के चौबीसों घंटे श्वास को स्थिर रख सकने में समर्थ हो सकता है।


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