मानसिक चिकित्सा के आधार संकल्प और आवेश

June 1949

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(श्री सुरेशचन्द्र वेदालंकर, हाटा)

वेदों में मानसिक चिकित्सा का वर्णन बड़े विशद एवं स्पष्ट रूप में पाया जाता है। यह मानसिक चिकित्सा या वह आदेश जिसके उच्चारण मात्र से रोगी व्यक्ति या पात्र पर प्रभाव पड़ जावे मंत्र-विद्या है। इस प्रकार सहसा, प्रभावकारी अनुष्ठान या प्रयोग को साधारण ग्रामीण लोग मंत्र विद्या कहते हैं। वेदों में इसके पाँच अंग पाए जाते हैं। 1- संकल्प या आवेश 2- अभिमर्श या मार्जन, 3- आदेश, 4- मणिबंधन (जिसे आजकल लोग गंडा ताबीज आदि के रूप में चला रहे हैं।) और 5- कृत्या और अभिचार है। जिसे ओज भ्रान्ति से लोगों ने टोना टोटका का रूप दिया हुआ है।

इन पाँच बातों का उद्देश्य शारीरिक रोगों को हटाना तथा कथित भूतादि बाधाओं को दूर करना, दारिद्रय, निराशा, ईर्ष्या आदि का शमन करना, दुष्ट स्वप्न के प्रभाव को मिटाना वीरता आदि गुणों का आवेश करना है। आज हम आपको सबसे पूर्व संकल्प या आवेश पर कुछ बताएंगे।

प्रबल तथा साधिकार इच्छा का नाम ‘संकल्प’ है और इसका बार-बार आवर्तन आवेश कहलाता है। यही दो वस्तुओं मनोविज्ञान का सर्वप्रथम आधार क्षेत्र हैं। संकल्प के बिना मानसिक प्रगति संभव नहीं और बिना मन की प्रगति के न तो मनुष्य अपनी ही उन्नति कर सकता है और न दूसरों की ही। यह संकल्प ही मनुष्य के आँतरिक जीवन को मूर्ति एवं बाह्य जीवन की पूर्ति है।

हम जब कोई भी काम करने को प्रस्तुत होते हैं तो सबसे पूर्व हमारे मन में संकल्प उत्पन्न होता है, वह संकल्प जब बारबार उत्पन्न होता है तो हम अपने संकल्प को क्रिया रूप में प्रेणित करने को हो जाते है। इसलिए वेद के अन्दर इस संकल्प को मन का सार और मनोविकार का कारण एवं आधार माना गया है। एक मंत्र आया है- कामस्तदग्रे समवर्तत मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। स काम कामेन वृहता स योनी रायस्पोषं यजमानाय धेहि।

(कामः अग्रे समवर्तत-) किसी मनुष्य के मन में संकल्प ही सर्व प्रथम उठता है (तत् यत्) वह जो कि (मनसः प्रथम रेतः आसीत्) मन का प्रथम सार है। (स काम) वह तू संकल्प। (वृहता कामेन) पुनः उठे हुए संकल्प के साथ (सयोनी) से मानस्थानी (यजमानाय) शरीर यज्ञ के याजक आत्मा या जीव के लिए (रायस्पोषं) ऐश्वर्य पुष्टि को (धेहि) धारण करो।

इस मंत्र का भाव यह है कि संकल्प ही मन का सार हेत और मनोविकास का कारण है। जब हम कोई भी काम करना चाहते हैं तो हमारे मन के अन्दर संकल्प समुद्भूत होता है और हम उस संकल्प से प्रभावित होकर कार्य करते हैं। यही संकल्प जब विद्युत की भाँति अभीष्ट की ओर बारबार अपनी तरंगें फेंक रहा होता है तब यह आवेश कहलाता है और तब मनुष्य अपने कार्य में सचेष्ट हो जाता है।

इस संकल्प द्वारा हम शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों तरह के पापों एवं दुखों को दूर कर सकते हैं। मानसिक पाप को दूर भगाने का स्पष्ट उल्लेख निम्न वेद मन्त्र में आया है-

परोपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि, परेहि न त्वा कामए वृक्षाँ घनानि संचर गृहेषु गोषु में मनः।

(मनस्पाप) ओ मन के पाप। तू (परः अपेहि) दूर हट (किम-) क्योंकि तुझे तो (अशस्तानि शंससि) निन्दित बातें ही अच्छी लगती हैं (परेहि) दूर हट जा, (न त्वाँ कामये) मैं तुझे देखना तक नहीं चाहता। तू मेरे आस-पास भी कहीं न रह (वृक्षान् वनानि संचार) तू दूर जंगल में वृक्षों एवं वनों को प्राप्त हो मैं मेरा मन (गृहेषु) स्त्री पुत्रादि में (गोषु) पशुओं में लगा रहे।

इस मंत्र में पाप को दूर करने के लिए दो उपाय बताए हैं। इन दोनों उपायों को वेद में बोध और प्रतिरोध नाम से कहा गया है। बोध का मतलब अभी भाव में लगा रहना अर्थात् जिस अच्छे कार्य को हम करना चाहते हैं, जिस सुखद वस्तु को हम पाना चाहते हैं उस ओर मन का लगाए रखना है। अपने मन में शैतानियत विचारों को न आने देने के लिए यह आवश्यक है कि मन को हर समय किसी काम में प्रवृत्त रखा जाय। खाली मन तो शैतान का घर होता है। श्री स्वामी श्रद्धानन्दजी कहा करते थे कि मनुष्य को हर समय कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। यदि उसके पास कोई काम न हो तो निठल्ला बैठे रहने से यह कहीं अच्छा है कि वह अपनी धोती को फाड़े और फिर सीए। यह मन की बोध शक्ति है।

प्रेतिबोध अनभीष्ट को हटाता रहता है, उसे अभीष्ट से मिलने नहीं देता। जहाँ बोध के द्वारा अभीष्ट गुणों को मनुष्य अपने में प्रकाशित करता है वहाँ प्रतिबोध द्वारा मनुष्य अपने अंदर से पाप निर्बलता और त्रुटि दूर कर कसता है तथा सद्गुण, बल, आशा और उत्साह का अपने में आवेश कर सकता है।

इस मन्त्र में भी पाप को दूर करने को उन्हीं दो उपायों को प्रयोग किया गया है। एक तो अनभीष्ट पाप की प्रवृत्ति को दूर करने के लिए, उसके प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए उसे एकान्त देश, जंगल या वन में जाकर रहने को कहा गया है और दूसरी ओर मन को किसी काम में प्रवृत्त करने के विचार से घर के स्त्री पुत्रों बन्धुओं के प्रति अपने कर्त्तव्य का विचार करके उसे किसी काम में लगाए रखने का निर्देश है। इस प्रकार इन दोनों उपायों द्वारा मनुष्य में जब यह भावना आ जाती है कि मैं इस दोष को दूर करके रहूँगा, इसे दूर करना मेरे लिए कोई कठिन नहीं मैं तो इसे हटा ही दूँगा तब वह अपने इस कार्य में सफल हो जाता है और इस संकल्प की अपने में अधिक वृद्धि होने पर वह न केवल अपने अपितु दूसरों के दोष भी दूर कर सकता है।

वेद का एक और मंत्र है जिसमें बड़े जोरदार शब्दों में आशा उत्साह और सफलता की प्राप्ति के लिए संकल्प किया गया है। मंत्र है-

कृतं में दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः

गौजिद भूयासम्श्वजिद धनंजयो हिरण्यजिद।

इस मंत्र का भाव है कि कर्म करना तो मेरा दांये हाथ का खेल है और विजय तो मेरे बांये हाथ में रखी हुई हैं। मैं गौओं इन्द्रियों, भूमि, राष्ट्र, धन, आयु संपत्ति तथा यश का विजेता होऊँगा- इससे मुझे कोई नहीं रोक सकता।

जब हम, किसी काम को इतने दृढ़ निश्चय उत्साह एवं आशा से करेंगे तो असफलता हमें हो ही नहीं सकती।

इस प्रकार तेज, बल, वीर्य, ओज, मन और सहनशीलता की प्राप्ति के लिए भी संकल्प की आवश्यकता है, बिना संकल्प के ये वस्तुएं नहीं प्राप्त हो सकती। मन्त्र है-

तेजोसि तेजो मयि धेहि, वीर्यमसि वीर्यमयि धेहि, बलंमसि बलंमयि धेहि, ओजोसि ओजोमयि धेहि, मन्युरसि मन्यु मयि धेहि, सहोसि सहो मयि धेहि।

इस मंत्र में प्रभु से प्रार्थना की गई है कि तू तेजस्वरूप है तू मुझे तेज दे, तू बल स्वरूप है मुझे बल दे, तू पराक्रम स्वरूप है मुझे पराक्रम दे, तू ओज स्वरूप है मुझे ओज दे, तू मन्यु है मुझे मन्यु दे, तू सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति है इसलिए मुझे भी तू सहनशील बना। इस प्रकार इस मन्त्र में तेजादि गुणों से विशिष्ट परमात्मा की उपासना की गई है और उससे प्रार्थना की गई है कि तू मुझे तेजादि गुणों से युक्त कर। यहाँ परमेश्वर के गुणों का ध्यान करके अपने अन्दर मनुष्य उन गुणों की स्थापना के लिए निश्चय करता, संकल्प करता है और निश्चय करने के बाद उन गुणों की प्राप्ति का प्रयत्न करता है।

जिस प्रकार इस संकल्प या आदेश द्वारा मनुष्य अपने अन्दर और दूसरों के अन्दर सद्गुणों की स्थापना कर सकता है ठीक उसी प्रकार इसके द्वारा अपने तथा दूसरे के रोग भी दूर किए जा सकते हैं। और स्वास्थ्य एवं बल की स्थापना की जा सकती है।

अपेहि मनसस्पते अपक्राम परश्चर परो निक्रत्या अवक्ष्ब बहुधा जीवतो मन।

ओ मन को पतित करने वाले दुख देने वाले रोग, हट जा, दूर हो जा, परे भाग जा जीवन धारण करते हुए जीते हुए के मन को दुख से अनेक प्रकारों से (परः आचक्ष्व)-दृष्टि से परे हो जा विलुप्त हो जा।

मन का स्थान हृदय है, हम बीमारी से जल्दी अच्छे नहीं होते, इसका कारण हमारी मानसिक शक्ति की कमी, विश्वास की कमी होती है। प्रायः क्षय आदि रोग तो लोगों को वहम से हुआ करते हैं। ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि हमें अपनी मानसिक कामनाओं को पुष्ट करना चाहिए। अपने संकल्पों को दृढ़ करना चाहिए और जिस समय हमारे प्राणों की गति मानसिक भावनाओं से पुष्ट होगी तो रोगों का बहिष्कार और स्वास्थ्य तथा बल का संचार शरीर में हो जाना अनिवार्य है।

इस प्रकार वेद द्वारा हमें यह मालूम हो गया कि संकल्प की अपनी कितनी ताकत है। यदि हम अपने संकल्प को दृढ़ कर लें तो यह हो नहीं सकता कि हम कोई काम करना शुरू करें और उस कार्य में हमें सफलता न मिले। इस तरह जिस व्यक्ति ने अपना संकल्प दृढ़ कर लिया, जिसने मन की पवित्रता उत्तम संकल्प, एवं आत्मिक बल प्राप्त कर लिया है वह अपनी भावनाओं और दृढ़ इच्छाओं से दूसरों को भी प्रभावित कर सकता है। अपने मन के शुद्ध विचारों एवं स्फुरणाओं से अन्य व्यक्तियों को भी प्रभावित कर सकता है और उनसे अपनी मानसिक शक्ति के प्रभाव से अपनी इच्छा के अनुसार आचरण करवा सकता है। यही कारण है कि साधु पुरुषों एवं महात्माओं के साधुवाद एवं आशीर्वाद हमारा कल्याण करते हैं। सद्वैर्थों के स्वास्थ्य लाभ कराने वाले वाक्य तथा आश्वासन रोगी के रोग को दूर करने में समर्थ होते हैं।

इस प्रकार मानसिक चिकित्सा के अभ्यास करने वाले को अपनी संकल्प शक्ति की वृद्धि सर्वप्रथम करनी आवश्यक है।


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