जागते रहिए! सावधान रहिए!!

June 1949

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मनुष्य का जीवन काल दो प्रकार से कटता है (1) जागते हुए (2) सोते हुए। आमतौर से लोग दिन में जागते हैं और रात को सोते हैं। सोना जरूरी भी है क्योंकि बिना उसके शारीरिक और मानसिक थकान नहीं मिटती। दिन भर काम करने से जो शक्तियाँ व्यय होती हैं उनकी क्षति पूर्ति के लिए निद्रा की आवश्यकता होती है। रात भर सोकर जब मनुष्य प्रातःकाल उठता है तो उसमें स्फूर्ति और ताजगी होती है। काम करने की नई क्षमता उसमें आ जाती है। यदि दो चार दिन भी लगातार न सोया जाय तो इतनी थकान हो जायेगी कि जीवन यात्रा का चलना तक दुर्लभ दिखाई देगा।

जिस प्रकार सोना जरूरी है उसी प्रकार जागना भी जरूरी है। क्योंकि जितने भी काम होते हैं जागृत अवस्था में होते हैं। निर्वाह और विकास की समस्त कार्य प्रणाली जागृत अवस्था में ही चलती है। यदि निद्रा ही प्रधान रूप धारण कर ले और जागरण कम हो जाय तो भी जीवन में विकट संकट उत्पन्न हो जाता है। जिस प्रकार गाढ़ी निद्रा में सोने से थकान पूरी तरह मिट जाती है और नई प्रफुल्लता पैदा होती है उसी प्रकार पूरी तरह से जागृत रहने से जागृत जीवन की कार्य प्रणाली सुचारु रूप से चलती है।

कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो जागृत अवस्था में भी सोते रहते हैं। उनके मस्तिष्क का एक अंश जागृत रहता है और शेष भाग सोता रहता है। इस अर्ध मूर्च्छित अवस्था में रहने वाला मनुष्य एक प्रकार से लुँज हो जाता है। उसकी दशा करीब-करीब, अर्ध विक्षिप्त की सी, भुलक्कड़ बालक की सी एवं अपाहिज की सी हो जाती है। यह ‘जागृत तन्द्रा’ का रोग ऐसी भयंकरता से फैला हुआ है कि आजकल अधिकाँश मनुष्य इसके शिकार मिलते हैं।

इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, पाठक अविश्वास न करें। सचमुच ही यह रोग बड़े भयंकर रूप से फैला हुआ है और अधिकाँश जन समूह इससे ग्रसित हो रहा है। इस रोग का रोगी देखने में अच्छा भला, तन्दुरुस्त, हट्टा कट्टा और भला-चंगा मालूम पड़ता है, शारीरिक दृष्टि से इसकी तन्दुरुस्ती में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता है फिर भी ‘जागृत तन्द्रा’ के कारण उसके जीवन का सारा विकास रुका हुआ होता है। उसकी सारी प्रतिष्ठा एवं साख नष्ट हो जाती है और जिम्मेदारी के साथ होने वाले सभी महत्वपूर्ण कार्यों से वह वंचित रह जाता है।

जागृत तन्द्रा के तीन दर्जे हैं। उन तीनों के पृथक नाम भी हैं-(1) लापरवाही, (2) आलस्य, (3) प्रमाद। तीनों ही दर्जे क्रमशः अधिक भयंकर एवं घातक हैं। कहने और सुनने में यह तीनों बहुत मामूली बातें प्रतीत होती हैं क्योंकि अधिकाँश लोग इनमें ग्रसित होते हैं। पर “अधिकाँश लोग किसी बात से ग्रसित है” इसीलिए उसकी भयंकरता कम नहीं हो जाती। अधिकाँश लोग झूठ बोलते हैं, नशा करते हैं असंयम, नशेबाजी कब्ज या प्रमेह की भयंकरता कम नहीं होती, यह घातक तत्व जहाँ रहते हैं वहाँ भयंकर परिणाम उत्पन्न किये बिना नहीं रहते।

यह सुनिश्चित तथ्य है कि जिस कार्य को मनुष्य पूरी दिलचस्पी से, जागृत मन से, ध्यानपूर्वक करेगा वह कार्य ठीक, निर्दोष और सुन्दर होगा। इस जागृति एवं दिलचस्पी की जितनी कमी होगी उतना ही फूहड़पन रह जायगा और भूलें होगी। घोड़ा जितनी तेज चलता हैं उतनी ही तेजी से ताँगे का पहिया घूमता है। पहिया स्वतंत्र रूप से नहीं चलता उसकी गति घोड़े की चाल के ऊपर निर्भर है। घोड़ा मन्द या तीव्र जैसी चाल से चलता हैं उसी गति से ताँगे का पहिया घूमने लगता है। मन की जिस कार्य में जितनी रुचि होगी वह उतना ही अच्छा बन पड़ेगा। यही हाल दिलचस्पी की कमी के साथ किये जाने वाले कामों का होता है वे अनेक प्रकार के दोषों से भरे हुए होते हैं।

क्रिया पद्धति के साथ पूरी दिलचस्पी को न जोड़ना जागृत तन्द्रा का प्रमुख चिह्न है। इस अवस्था में किये हुए कार्यों का ठीक प्रकार पूरा होना असंभव है। जिस वक्त कोई व्यक्ति झपकियाँ ले रहा हो उस समय उसे एक रेखा गणित का प्रश्न हल करने को दिया जाय तो वह उसे सही रूप से हल न कर सकेगा इसी प्रकार जो आधे मन से, अर्धजागृत अवस्था में कार्य करता है वह अपने सामने रखे हुए कार्यों को भली प्रकार पूरा न कर सकेगा। इस प्रकार की अधूरे मन के साथ की हुई कार्य प्रणाली को लापरवाही, असावधानी, आलस्य एवं प्रमाद कहा जाता है।

हर काम को सफल बनाने के लिए दो बातों का ध्यान रखना पड़ता है एक यह कि “इस कार्य को उत्तमता के साथ पूरा किया जाय”, दूसरा यह कि-”कहीं यह कार्य खराब न हो जाय” सफलता का लोभ और असफलता का भय-इन दोनों वृत्तियों का समन्वय ही जागरुकता है। जैसे गरम (पॉजिटिव) और ठंडे (नेगेटिव) तारों के मिलने से बिजली की धारा का संचार होता है वैसे ही उपरोक्त लोभ और भय का ध्यान रखने से मानसिक जागरुकता उत्पन्न होती है। यह जागरुकता सतेज होकर शरीर और मस्तिष्क की काम करने वाली शक्तियों को संगठित और संयोजित करके सुव्यवस्थित रूप से कार्य में प्रवृत्त करती है तब वह कार्य सफल हो जाता है।

परन्तु जब मनुष्य असफलता की लज्जा को भूल जाता है और सफलता के गौरव की उपेक्षा करता है तब उस जागरुकता रूपी विद्युत शक्ति का संचार नहीं होता। नाड़ियाँ शिथिल पड़ जाती हैं। कार्यकारिणी शक्ति मंद हो जाती है। सामने पड़ा हुआ काम पर्वत के समान भारी प्रतीत होता है। उसे करते हुए मन में स्फूर्ति नहीं उठती वरन् बेगार के भार की तरह झुँझलाते हुए उसे किया जाता है। जब उस कार्य में रस नहीं आता तो उसके बिगाड़ सुधार की बारीकियों की ओर भी मन नहीं जाता। फलस्वरूप कार्यकाल में वे बातें सूझ नहीं पड़तीं कि कहाँ बिगाड़ करने वाली भूल हो रही है और क्या सुधार करने वाली गतिविधि छूटी जा रही है।

जागरुकता का अभाव ही असावधानी या लापरवाही कहा जाता है। ऐसे स्वभाव के आदमी में दो प्रकार के दोष और आ जाते हैं वह (1) आगे और पीछे के कार्यक्रम की परवा नहीं करता (2) अपने उत्तरदायित्व को अनुभव नहीं करता। जहाँ पहुँच गये बस वहाँ की बातों में उलझ गये। ताश खेल रहे हैं तो खेल में इतने मशगूल हैं कि कारखाने में मजदूरों द्वारा क्या नफा-नुकसान हो रहा होगा, इसका ध्यान नहीं। जरूरी काम को छोड़ कर दस मिनट के लिए किसी से मिलने गये हैं, तो वह जरूरी काम जहाँ का तहाँ पड़ा है पर दस मिनट की जगह तीन घंटे निरर्थक गप्प हाँकने में लगा दिये। लौट कर देखते हैं कि बहुत काम हर्ज हुआ। उस वक्त कुछ अफसोस भी करते हैं पर फिर वही रफ्तार। दूसरे दिन फिर वैसी ही लापरवाही। किसी रिश्तेदारी में या दोस्ती में दो रोज के लिए जावें तो दस रोज में लौटें। नियत समय पर उनका कोई भी काम नहीं हो पाता। स्नान, भोजन, सोना, जागना कुछ भी उनका समय पर नहीं होता। जीविका उपार्जन का जो व्यवसाय है वह भी ऐसा ही खंड-खंड हो जाता है। दुकान पर कभी बैठते हैं कभी नहीं बैठते, कोई सामान है, कोई बीता हुआ पड़ा है। निराश ग्राहक लौट जाते हैं। अगर कहीं नौकरी करते हैं तो देर में पहुँचते हैं, समय पर ठीक तरह काम पूरा करके नहीं देते, ऐसी दशा में असंतुष्ट मालिक की झिड़कियाँ सुनने को मिलती हैं। ऐसी दशा में जीविका के जो साधन हैं उनसे बहुत थोड़ी आमदनी हो पाती है। न तो निराश लौटने वाले ग्राहकों को अधिक नफा मिल सकता है और न असंतुष्ट मालिक वेतन बढ़ा सकता है। फल यह होता है कि लापरवाह व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति गिरने लगती है और धीरे धीरे दरिद्र बन जाते हैं।

लापरवाह व्यक्तियों से अपने वचन का पालन नहीं हो सकता। क्योंकि हर एक वचन को पूरा करने के लिए वह समय ध्यान रखना पड़ता है जब कि उसे पूरा करना है साथ ही वह सामग्री भी जुटानी पड़ती है जो वचन पूरा करने के लिए प्रस्तुत की जाने वाली है। लापरवाह मनुष्य पहले तो सोचता रहता है कि अभी क्या जल्दी है बहुत समय पड़ा है, इस काम को तो बहुत जल्द पूरा कर देंगे, ऐसे ही टालते-2 समय बीतता चला जाता है और जब वचन पूरा करने की अवधि बिल्कुल पास आ जाती है तब उसके हाथ पैर फूल जाते हैं कि अब यह कार्य कैसे पूरा हो। अन्त में दाँत निपोर कर रह जाते हैं।

जिनमें जागरुकता नहीं है उनकी सारी चीजें अस्त-व्यस्त रहती हैं। उनके निवास स्थान पर जाकर देखिए तो सारी चीजें इधर-उधर अस्त-व्यस्त कूड़े-कचरे की तरह जहाँ-तहाँ पड़ी होंगी। चूहे, दीमक, मकड़ी, छिपकली कीड़े-मकोड़े उनकी चीजों का निर्द्वन्द्व उपयोग कर रहे होंगे। बालों में चीलर, कपड़ों में जुएं रेंग रहे होंगे। शरीर पर जहाँ-तहाँ मैल जम रहा होगा, बदबू आ रही होगी, देह पर कपड़े बेढंगे भद्दे और मैले कुचैले होंगे। कहीं हजामत बढ़ रही है तो कहीं बटन टूटे हुए हैं। जूते की सिलाई उखड़ गई है तो यह न बन पड़ेगा कि जल्दी ही उसकी मरम्मत करा लें भले ही वह कीमती जूता थोड़े ही दिनों में इस छोटी सी भूल के कारण खराब हो जाय। इस प्रकार फटी-टूटी, अस्त-व्यस्त, मैली-कुचैली दशा में उनकी वस्तुएं पड़ी रहतीं हैं, यदि कोई दूसरा व्यवस्था करने वाला न हो तो उनके चारों ओर दरिद्र महाराज छाये हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

ऐसे लोग दूसरों के यहाँ अपनी चीजें पड़ी रहने देते हैं, अपने यहाँ किसी की चीज आ जाय तो लौटाते नहीं। यदि भाग्यवश खोने या नष्ट होने से बच गई तो बार-बार तकाजे होने पर टूटी-फूटी या खराब दशा में वापिस करते हैं। जो एक बार चीज उधार दे देता है वह आगे के लिए होशियार हो जाता है और फिर उन्हें देने की भूल नहीं करता। आये दिन उनकी चीजें गुम होती रहती हैं-अपने बुरे स्वभाव के कारण वे चीजों को जहाँ-तहाँ पटक देते हैं फिर जरूरत के वक्त पर बेतहाशा इधर-उधर ढूँढ़ते फिरते हैं, नहीं मिलती तो कभी किसी पर झल्लाते हैं, कभी किसी पर नाराज होते हैं। घर में चीज निपट गई है पर लाई नहीं जाती। ईंधन, अनाज, नमक, तेल आदि की पुकार पड़ी रहती है।

लापरवाही का बड़ा भाई आलस्य है। मानसिक असावधानी को लापरवाही कहते हैं। इसमें जब बढ़ोत्तरी होती है तो वह शरीर पर भी अपना कब्जा कर लेती है और परिश्रम करना बहुत बुरा लगने लगता है। छोटा या बड़ा कोई भी परिश्रम क्यों न हो जहाँ तक बन पड़ता है उसे टालते हैं। जब तक अत्यन्त उग्र प्रेरणा न हो तब तक मेहनत करने को देह नहीं उठती। अपना काम दूसरों से कराने के अवसर ताका करते हैं। शरीर को उठाकर इधर-उधर ले जाना ऐसा लगता है मानो पहाड़ उठाने का काम उन्हें करना पड़ रहा हो। पलंग, आराम कुर्सी या गद्दी पर पड़े रहना उन्हें पसंद होता है। घर छोड़कर बाहर निकलना ऐसा प्रतीत होता है मानो मौन से युद्ध करने की मुसीबत उनके ऊपर आई हो। समय को वे निरर्थक गंवाते रहते हैं और हर काम को नियत अवधि से पीछे करते हैं। कई बार तो रेल आदि के टाइम से भी पिछड़ जाते हैं। शौच, स्नान, भोजन, शयन में भी उनका आलस्य साथ नहीं छोड़ता। नियत और उपयोगी समय पर उनका एक भी कार्य नहीं हो पाता, आलस्य में उनके जीवन के क्षण निरर्थक बर्बाद होते रहते हैं।

प्रमाद इन दोनों से भी आगे बढ़ी हुई स्थिति है। जानबूझ कर, अधिक उपयोगी एवं आवश्यक कार्यों की घृष्टतापूर्वक उपेक्षा करना, उन्हें बिगड़ने देना, प्रमाद कहलाता है। आलसी या लापरवाह व्यक्ति अपनी भूल के लिए कुछ पश्चाताप करता है। अन्यमनस्कता के कारण भूल करते समय उसे सूझ नहीं पड़ता कि इससे क्या अनर्थ होने की सम्भावना है। वह वस्तुस्थिति के दुष्परिणाम का ठीक-ठीक अन्दाज नहीं लगा पाता और ‘साधारण बात’ समझ कर नियत कार्य में ढील छोड़ देता है। किन्तु प्रमादी व्यक्ति बौद्धिक दृष्टि से उन सब बातों को जानता है, उसे अन्दाज होता है कि इस प्रकार की लापरवाही करने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है। फिर भी अपनी ‘हेकड़ी’ के आधार पर उसकी परवाह नहीं करता। अहंकार, घृष्टता और निर्लज्जता की उसमें प्रधानता रहती है। वह घमंड के मारे दूसरों की हानि या घृणा की चिन्ता नहीं करता, औरों को तुच्छ या नाचीज समझता है, कर्त्तव्य पालन न करने पर जो भर्त्सना होती है, उससे शर्मिंदा होने के स्थान पर वह घृष्टतापूर्वक बेतुके जवाब देता है। अपनी भूल का निराकरण या सुधार करने के स्थान पर वह भर्त्सना करने वाले के दोष दिखाने लगता है। वह साबित करना चाहता है कि मैंने यह गलती की, तो तुम अमुक गलती कर चुके हो, फिर तुम्हें मेरी आलोचना क्यों करनी चाहिए?

लापरवाही, असावधानी, गैर-जिम्मेदारी, आलस्य, प्रमाद जैसे भयंकर दोष ‘जागृत तन्द्रा’ के कारण पैदा होते हैं। यह दोष साधारण दृष्टि से देखने पर बहुत छोटे मालूम पड़ते हैं, इनसे किसी भयंकर अनर्थ की आशंका नहीं मालूम पड़ती, इसलिए अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि- ‘छोटी-छोटी आदतों से ही जीवन निर्माण होता है।’ छोटे-2 परमाणुओं के संघटन से कोई बड़ी वस्तु बनती है। पीले और नीले रंग के नन्हे-नन्हे परमाणु अमुक मात्रा में मिल जाते हैं तो हरा रंग बनता है पर यदि उनकी मात्रा में न्यूनाधिकता रहे तो दूसरी प्रकार का रंग बनेगा। दवाओं में पड़ने वाली औषधियों की मात्रा में थोड़ा अन्तर कर दिया जाय तो उसके गुणों में भी भारी अन्तर आ जाता है। निशाना लगाते समय यदि बन्दूक की नाल एक जौ भर नीची हो जाय तो निशाने तक गोली के पहुँचने में कई गज का अन्तर पड़ जाता है। इसी प्रकार छोटे-छोटे गुण और छोटे-छोटे दोषों का अन्तर जीवन की अंतिम सफलता में जमीन आसमान का फर्क कर देता है।


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