धर्म का सच्चा स्वरूप

April 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(एक तुच्छ सेवक)

बहुत से लोग तो धर्म को केवल पुस्तकों में सुरक्षित रखने की वस्तु और वेद गीता आदि धर्म ग्रन्थों को अलमारियों में बन्द रहने की चीज समझते हैं। “इनका ख्याल है कि धर्म व्यवहार और आचरण में लाने की वस्तु नहीं-असली जीवन में उसका कोई सरोकार (सम्बन्ध) नहीं”। कोई-कोई तो ऐसी अनर्गल (बे सिर पैर की) बातें कहते हुए सुने जाते हैं कि “मैंने सब कुछ किया-चोरी की-जारी की, ठगी की-मक्कारी की, लेकिन धर्म नहीं खोया।” उस भोले भाले मानस से पूछो कि आखिर तुमने ‘धर्म खोना’ किस बात में समझ रखा है? यह तुरन्त उत्तर देगा कि “मैंने किसी के हाथ का छुआ नहीं खाया, दो-दो सौ मील का सफर किया, परन्तु कभी रेल में भोजन नहीं किया, चौके से बाहर पूड़ी, पराँठे की बात दूर, चने भी नहीं चाबे।

धर्म का वास्तविक रूप वह है जिसके धारण करने से किसी का अस्तित्व बना रहे, जैसे अग्नि का धर्म प्रकाश और गरमी है, अन्यथा राख का ढेर। इसी प्रकार मनुष्य का धर्म वह है जिससे उसमें मनुष्यत्व बना रहे-इन्सानियत कायम रहे, यदि किसी कार्य से इन्सान में इन्सानियत की जगह वहशीपन आ जावे और उसके कारण वह दूसरों को मारने लगे-उनसे लड़ने लगे, तो यह उसका धर्म नहीं। जिसके द्वारा मनुष्य में-इन्सान में इन्स अर्थात् प्रेम का भाव उत्पन्न हो एक दूसरे की सेवा और सहायता का ख्याल पैदा हो वह ही धर्म है। शास्त्रों में लिखा है “यतोऽभ्युदय निश्रेयस सिद्धिःस धर्म” जिसके द्वारा मनुष्य ऐहिक उन्नति करता हुआ साँसारिक ऐश्वर्य भोगता हुआ आवागमन के चक्र से छूटकर मुक्ति लाभ करे- मोक्षधाम (नजात) प्राप्त करे, वह ही मनुष्य का धर्म है।

दूसरे शब्दों में धर्म लौकिक और पारलौकिक दोनों सुखों का साधन है। जो भी पुस्तक ऐसे धर्म का प्रतिपादन करे वह ‘धर्म-ग्रन्थ’ कहलाने की अधिकारिणी है चाहे वह वेद हो, बाईबल हो, कुरान, तौरेत हो या जिन्दावस्ता।

जो पुस्तक एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का शत्रु बनावे अथवा एक मनुष्य समुदाय को दूसरे मनुष्य समुदाय के नाश के लिए उद्यत करे, वह पुस्तक कदापि ‘धर्म-ग्रन्थ, ईश्वर की ओर से ‘इलहामी’ कहलाने के योग्य नहीं और न ऐसा धर्म ही ईश्वर की और से हो सकता है, ईश्वरीय धर्म तो वह है जो सब की भलाई चाहे-जिससे विश्वभर का हित साधन हो।

धर्म के लिए यदि कोई अंग्रेजी शब्द उपयुक्त (मौजूँ) हो सकता है तो Virtue (नेकी या सदाचार) अथवा Duty (कर्त्तव्य या फर्ज) है Religion (मजहब) नहीं।

धर्म किसी एक गुण या कार्य का नाम नहीं, जैसे वृक्ष की बहुत सी शाखाएँ होती हैं। इसी प्रकार धर्म के भी मानव धर्म शास्त्र मनुस्मृति में जो स्मृतियों में, सब से अधिक माननीय है, दस लक्षण गिनाये हैं-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥

धैर्य क्षमा दम शौच शम, विद्या बुद्धि-विवेक।

क्रोध-त्याग-परधन-हरण, सत्य धर्म की टेक॥

ये धर्म के लक्षण पातंजल योग शास्त्र के पाँच यम और पाँच नियमों के आधार पर बने प्रतीत होते हैं। जो मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के सर्वोपरि साधन और मोक्ष पद प्राप्ति की प्रथम दो सीढ़ियाँ हैं। परन्तु केवल इनके जान लेने से कुछ नहीं होता, असली चीज तो इन धैर्य क्षमा आदि धर्म के अंगों का पालन करना अर्थात् आचरण में लाना है जैसा कि श्रीकृष्ण महाभारत में धर्मोपदेश देते हुए कहते हैं- जैसे भोजन के बिना तृप्ति नहीं होती है वैसे ही कर्म न कर केवल वेदज्ञ हो जाने से ब्राह्मण कदापि मोक्ष नहीं पाते। भगवान-वृहस्पति ने इन्द्रिय विरोध कर ब्रह्मचर्य धारण किया था इसी से वह देवताओं के आचार्य हुये।

महात्मा गाँधी के कथनानुसार- “जिस धर्म का हमारे दैनिक आचार व्यवहार पर कुछ असर न पड़े वह एक हवाई ख्याल के सिवा और कुछ नहीं है। मैं तो धर्म को ऐसी ही आवश्यक वस्तु समझता हूँ जैसे वायु, जल और अन्न। जैसी चाह आजकल बहुत से नवयुवकों को सिनेमा और अखबारों की है कि बिना अखबार पढ़े, बिना सिनेमा देखे, चैन ही नहीं पड़ता, ऐसी ही भूख धर्म की लगनी चाहिये। प्रतिदिन कोई न कोई परोपकार कार्य, दूसरों की भलाई का काम, अवश्य हो जाना चाहिए और न होने पर सिगरेट की तलब और सिनेमा की चाह की तरह, दिल में एक प्रकार की तड़प उठनी चाहिए कि अफसोस! आज का दिन व्यर्थ गया।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118