(श्रीमती ब्रह्मवती देवी, वारा)
आधुनिक समय में अधिकतर लोग दुःखी दिखाई देते हैं, परन्तु उस दुःख का कारण नहीं समझते कि इस दुःख की क्यों उत्पत्ति होती है? थोड़ा सा विचार करने पर हमें यह विदित हो जाता है कि हम दुःखी क्यों होते है? इसका एकमात्र कारण हमारी साँसारिक इच्छाओं का पूर्ण न होना ही है। ज्यों-2 हमारी ये इच्छाएं आवश्यकता से अधिक बलवती होती हैं त्यों-2 उनकी पूर्ति कठिन होती जाती है। एवं उनकी पूर्ति न होने से उतना अधिक दुःखी होते हैं। इसके अतिरिक्त यदि इच्छायें क्रमशः ज्यों-2 पूरी होती जाती हैं त्यों-2 उससे भी अधिक तृष्णा बढ़ती जाती है, कहने का तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण चक्रवर्ती राज्य मिल जाने पर भी अशान्ति बढ़ती जाती है और कभी भी शान्ति नहीं प्राप्त होती है।
इसका मुख्य अभिप्राय यह है कि इन वस्तुओं में लोभ और काम होता है। दोनों ही मनुष्यों को पतनावस्था पर पहुँचाने वाले हैं और जो जितना ही पतनावस्था पर होगा उतना ही दुःखी होगा ईशोपनिषद् में लिखा है कि-
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
तत्वम्पूषन्नपावृणु सत्यं धर्माय दृष्टये।
चमकीली वस्तुओं की इच्छा के ढक्कन से सत्यता का सुख ढ़का हुआ है। हे उन्नति चाहने वाले जीव! तु सत्य धर्म को देखने के लिए उसका मुख खोल।
हमें यह तृष्णा रूपी ढक्कन खोल देना चाहिए क्योंकि जब तक हमारे हृदय में इन चमकीली वस्तुओं की प्रबल इच्छा होगी हम सत्यता से कभी अपना जीवन नहीं व्यतीत कर सकते हैं। यही कारण है कि आजकल संसार अतिशय पीड़ित हैं। चोरी, डकैती, घूसखोरी, बेईमानी, व्यभिचार, स्वार्थपरता आदि इन सबका कारण यही भोग्य वस्तुओं के अति संग्रह की तृष्णा है, इन इच्छाओं को दूर करना ही दुःख से दूर रहना है। जब तक हम इस इच्छा से पृथक नहीं होंगे तब तक हमारा दुःखों से मुक्त होना और उन्नति करना असम्भव है, ये ही तृष्णायें अत्यन्त दुःखदायी हैं।
अज्ञानी लोगों का कथन है कि- “रुपया कमाये मक्कर से, रोटी खाये ही शक्कर से।” ऐसे व्यक्ति किसी हद तक सुखी देखे भी गये हैं परन्तु वे क्षणिक सुखी हैं। कहते है कि सर्प स्पर्श में कोमल प्रतीत होता है परन्तु काटने से मृत्यु हो जाती है इसी भाँति ये चमकीली तृष्णाएं हमें सत्य ज्ञान रूपी सुख से हटाकर अज्ञान रूपी दुःख के गर्त में धकेल देती हैं।
अतः हमें परमात्मा के आदेशानुसार इच्छा रूपी आवरण को जिससे सत्य का मुख छिपा हुआ है हटा देना चाहिए।