गायत्री मंत्र का अर्थ-संदेश

April 1949

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वेदमाता गायत्री का मंत्र छोटा सा है। उसमें 24 अक्षर हैं। पर इतने थोड़े में ही अनन्त ज्ञान का समुद्र भरा हुआ है। जो ज्ञान गायत्री के गर्भ में है वह इतना सर्वांग पूर्ण एवं परिमार्जित है कि मनुष्य यदि उसे भली प्रकार समझ लें और अपने जीवन में व्यवहार करें तो उसके लोक परलोक सब प्रकार सुख शान्तिमय बन सकते हैं।

आध्यात्मिक और साँसारिक दोनों ही दृष्टि कोणों से गायत्री का संदेश बहुत ही अर्थपूर्ण है। उसे गंभीरता पूर्वक समझा और मनन किया जाय तो सद्ज्ञान का अविरल स्रोत प्रस्फुटित होता है। नीचे संक्षिप्त सा गायत्री मंत्रार्थ दिया जाता है।

ओमित्येव सुनामध्येयमनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः।

सर्वेष्वेव हितस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम्।

यं वेदा निगदन्ति न्याय निरतं श्रीसच्चिदानन्दकम्

लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकार हिनं प्रभुम्॥

अर्थ- जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानंद सर्वेश्वर, समदर्शी, नियामक, प्रभु और निराकार कहते हैं। जो विश्व में आत्मा रूप से व्यापक है। उस ब्रह्म के समस्त नामों के श्रेष्ठ नाम पाप रहित पवित्र और ध्यान करने योग्य ॐ यह ही मुख्य नाम माना गया है।

भावार्थ- परमात्मा को प्राप्त करने और प्रसन्न करने का मार्ग उसके नियमों पर चलना है। वह निन्दा, स्तुति से प्रभावित नहीं होता, वरन् कर्मों के अनुसार फल देता है। परमात्मा को सर्वत्र व्यापक समझकर गुप्त रूप से भी पाप न करना चाहिए। प्राणियों की सेवा करना परमात्मा की ही पूजा है। परमात्मा को अपने अन्तर में अनुभव करने से आत्मा पवित्र होती है और सत् चैतन्यता तथा आनन्द की अनुभूति होती है।

भूर्वै प्राण इति ब्रु वन्ति मुनयो वेदान्त पारंगताः।

प्राणः सर्व विचेतनेषु प्रसृतः सामान्य रूपेण च॥

एतेनैव विसिद्धयते हि सकलं नूनं समानं जगत्।

दृष्टव्यं सकलेषु जन्तुषु जनैर्नित्यं ह्यतश्चाव्मवत॥

अर्थ- मुनि लोग प्राण को भूः करते हैं। यह प्राण समस्त प्राणियों में समस्त रूप से फैला हुआ है। इससे सिद्ध है कि यहाँ सब समान हैं। अतएव सब मनुष्यों और प्राणियों को अपने समान ही देखना चाहिए।

भावार्थ- अपने समान सबको कष्ट होता है इसलिए किसी को सताना न चाहिए। दूसरों से वही व्यवहार करना चाहिए जो हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। सब में समत्व की दृष्टि रखनी चाहिए। कुल, वंश, देश, जाति, समुदाय स्त्री-पुरुष आदि विभागों के कारण किसी को नीच-ऊंच, छोटा-बड़ा नहीं समझना चाहिए। उच्चता और नीचता का कारण तो भले बुरे कर्म ही हो सकते हैं।

भुवर्नाशो लोके सकल विपदाँ वै निगदितः।

कृतं कार्य कर्त्तव्यमिति मनसा चास्य करणम्॥

फलाशा मर्त्याये विद्धति न वै कर्म निरताः।

लभन्ते नित्यं ते जगति हि प्रसादं सुमनसाम्॥

अर्थ- संसार में समस्त दुखों का नाश ही भुवः कहलाता है। कर्त्तव्य भावना से किया गया कार्य ही ‘कर्म’ कहलाता है। परिणाम के सुख की अभिलाषा छोड़कर जो कर्म करते हैं वे मनुष्य सदा प्रसन्न रहते हैं।

भावार्थ- मनुष्य का अधिकार कर्म करना है, फल देने वाला ईश्वर है। अमुक वस्तु प्राप्त होने पर ही सुख माना जाय ऐसा सोचने की बजाय ऐसा सोचना चाहिए कि कर्त्तव्य पालन ही हमारे लिए आनन्द का सर्वोत्तम केन्द्र है। जो अपने कर्त्तव्य कर्म को ही अपना लक्ष मान लेता है वह कर्मयोगी हर घड़ी सुखी रहता है, जो इच्छित फल की आशा के लिए लटका रहता है उस तृष्णावान को सदा बेचैनी रहती है और अनेक बार निराश एवं दुखी होना पड़ता है। सदुद्देश्य के लिए मनुष्य को सदा सत्कर्म करते रहना चाहिए। गीता के कर्म योग का यही तत्व है।

स्वरेषो वै शब्दो निगदति मनः स्थेर्य करणम्।

तथा सौख्यं स्वास्थ्य ह्यु पदिशति चित्तस्यचलतः

निमग्नत्वं सत्यव्रत सरसि चा चक्षत उत।

त्रिघाँ शान्तिह्येभिर्भुविच लभते संयम रतः॥

अर्थ- ‘स्वः’ शब्द मन की स्थिरता का निर्देश करता है। चंचल मन को सुस्थिर और स्वस्थ रखो यह उपदेश देता है। सत्य में निमग्न रहो यह कहता है। इस उपाय से संयमी पुरुष तीनों प्रकार की शान्ति को प्राप्त करते हैं।

भावार्थ- अनिच्छित परिस्थिति प्राप्त होने पर प्रायः मनुष्य शोक, दुख, क्रोध, द्वेष, दीनता निराशा, चिन्ता, भय, बेचैनी आदि से उद्विग्न होकर अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने का अहंकार, मद, उद्दंडता, खुशी में फूलकर अस्वाभाविक आचरण करना, इतराना, अपव्यय, शेखी, आदि से ग्रस्त हो जाते हैं। यह दोनों ही स्थितियाँ एक प्रकार के नशे या ज्वर हैं, यह विवेक को अन्धा कर देते हैं। जिससे विचार और कार्यों की उचित शृंखला नष्ट भ्रष्ट हो जाती है और आदमी अंधा तथा बावला बन जाता है। इन सत्यानाशी तूफानों से आत्मा की रक्षा करने के लिए मन को स्थिर, संतुलित, स्वस्थ एवं वास्तविक बनाना चाहिए तभी मनुष्य को आत्मिक, बौद्धिक तथा शारीरिक शान्ति मिल सकती है।

ततोवैनिष्पत्तिः स भुविमतिमान् पण्डितवरः।

विजानन् गुह्यं जीवन मरणयोर्यस्तु निखिलम्॥

अनन्ते संसारे विचरति भयासक्ति रहितः।

तथा निर्माणं वै निज गति विधीना प्रकुरुते॥

अर्थ- तत् शब्द यह बतलाता है कि इस संसार में वही बुद्धिमान है जो जीवन मरण के रहस्य को जानता है। भय और आसक्ति रहित होकर जीता है और अपनी गतिविधियों का निर्माण करता है।

भावार्थ- मृत्यु सदा सिर पर खड़ी नाचती रहती है, इस समय साँस चल रही है अगले ही क्षण बन्द हो जाय इसका क्या ठिकाना है। यह सोचकर इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिए। और थोड़े जीवन में क्षणिक सुख के लिए पाप क्यों किये जायं? जिससे चिरकाल तक दुख भोगने पड़ें ऐसा विचारना चाहिए।

यदि विद्याध्ययन, समाज सुधार, धर्मप्रचार आदि श्रेष्ठ कार्य करने हों तो ऐसा सोचना चाहिए कि जीवन अखण्ड है। यदि इस शरीर से यह कार्य पूरा न हो सका तो अगले में पूरा करेंगे। यह निर्विवाद है कि जो इस जीवन का सदुपयोग कर रहा है उसे मृत्यु के पश्चात भी आनन्द ही मिलेगा, परलोक पुनर्जन्म आदि में सुख ही प्राप्त होगा, पर जो इन जीवन क्षणों का दुरुपयोग कर रहा है उसका भविष्य अंधकारमय है। इसलिए जो बीत चुका उसके लिए दुख न करते हुए शेष जीवन का सदुपयोग करना चाहिए।

सवितुस्तु पदं वितनोति ध्रुवं,

मनुजोवलवान् सवितेवभवेत्।

विषया अनुभूति परिस्थितय,

श्च सदात्मन एवं गणेदति सः॥

अर्थ- सवितुः यह पद बतलाता है कि मनुष्य को सूर्य के समान बलवान होना चाहिए और सभी विषय अनुभूतियाँ अपने आत्मा से ही संबंधित हैं ऐसा विचारना चाहिए।

भावार्थ- सूर्य को वीर्य और पृथ्वी को रज कहा जाता है। सूर्य की शक्ति से संसार की सब क्रियाएं होती हैं। इसी प्रकार आत्मा अपनी क्रिया शीलता द्वारा विविध प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। प्रारम्भ, भाग्य, दैव आदि भी अपने प्राचीन कर्मों का ही परिपाक मात्र है। इसलिए अपने लिए जैसी परिस्थिति अच्छी लगती है उसी के योग्य अपने को बनाना चाहिए। अपना भाग्य निर्माण करना हर मनुष्य के अपने हाथ में है। इसलिए आत्म निर्माण की ओर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। बाहर की सहायता भी अपनी अन्तरंग स्थिति के अनुकूल ही मिलती है।

मनुष्य को तेजस्वी, बलवान, पुरुषार्थी बनना चाहिए। स्वास्थ्य, विद्या, धन, चतुरता, संगठन, यश, साहस और सत्य इन आठ बलों से अपने को सदैव बलवान बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

वरेण्यंचैतद्वै प्रकटयति श्रेष्ठत्वमनिशम्।

सदा पश्येच्छेष्ठं मननमपि श्रेष्ठस्य विदधेत्॥

तथा लोके श्रेष्ठं सरलमनसा कर्म च भजेत्।

तदेत्थं श्रेष्ठत्वं व्रजति मनुजः शोभित गुणैः॥

अर्थ- वरेण्य यह शब्द प्रकट करता है कि प्रत्येक मनुष्य को नित्य श्रेष्ठता की और बढ़ना चाहिए। श्रेष्ठ देखना, श्रेष्ठ चिन्तन करना, श्रेष्ठ विचारना, श्रेष्ठ कार्य करना, इस प्रकार मनुष्य श्रेष्ठता को प्राप्त होता है।

भावार्थ- मनुष्य वैसा ही बनता है जैसे कि उसके विचार होते हैं। विचार साँचा है और जीवन गीली मिट्टी। जैसे विचारों में हम डूबे रहते हैं, हमारा जीवन उसी ढांचे में ढल जाता है, वैसे ही आचरण होने लगते है, वैसे ही साथी मिलते हैं। उसी दिशा में जानकारी, रुचि तथा प्रेरणा मिलती है। इसलिए यदि अपने को श्रेष्ठ बनाना है तो सदा श्रेष्ठ मनुष्यों के संपर्क में रहना, श्रेष्ठ पुस्तकें पढ़ना, श्रेष्ठ बातें सोचना, श्रेष्ठ घटनायें देखना, श्रेष्ठ कार्य करना आवश्यक है। दूसरों में जो श्रेष्ठताएं उनकी कद्र करना और उन्हें अपनाना, श्रेष्ठता में श्रद्धा रखना यह सब बातें उन लोगों के लिए बहुत आवश्यक हैं जो अपने को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं।

भर्गोवेतिपदं च व्याहरति वै लोकः सुलोको भवेत्।

पापे पाप विनाशने त्वभिरतो दत्तावधानो वसेत्

दृष्ट्वा दुष्कृतिदुर्विपाक निचयं तेभ्यो जुगुप्सेद्धिच वन्नाशाय विधीयताँ च सततं संधर्षमेभिः सहः॥

अर्थ- भर्गः यह पद बताता है कि मनुष्यों को निष्पाप बनना चाहिए, पापों से सावधान रहना चाहिए। पापों के दुष्परिणामों को देखकर उनसे घृणा करें और निरन्तर उनको नष्ट करने के लिए संघर्ष करना चाहिए।

भावार्थ- संसार में जितने दुख हैं पापों के कारण हैं। अस्पतालों में, जेलखानों में तथा अन्यत्र नाना प्रकार के अन्य कष्टों से पीड़ित मनुष्य अब के या पुराने पापों से ही दुख भोगते हैं। नरक में भी पापी ही त्रास पाते हैं। सन्त और परोपकारी पुरुष दूसरों के पापों का बोझ अपने सिर पर लेकर दुख उठाते हैं और उन्हें शुद्ध करते हैं। चाहे दूसरों का दुख कोई सन्त सहे चाहे पापी स्वयं सहे। हर हालत में दुखों का कारण पाप ही है। इसलिए जिन्हें दुख का भय है और सुख की इच्छा है उन्हें चाहिए कि पापों से बचे, दूसरों को बचावें और भूतकाल के पापों के लिए प्रायश्चित करें। पापों से सावधानी रखना और उन्हें भीतर बाहर से नष्ट करने के लिए संघर्ष करना यह बहुत बड़ा पुण्य कार्य है। क्योंकि इससे अगणित प्राणी दुखों से छुटकारा पाकर सुखी बनते हैं। निष्पापता में ही सच्चे आनन्द का निवास है।

देवस्येति तुव्याकरोत्यमरताँ मर्त्योऽपि संप्राप्यते।

देवानामिव शुद्ध दृष्टि करणात् सेवापचाराद्भुवः

निःस्वार्थं परमार्थकर्म करणात् दीनाय दानात्तथा

बाह्यभ्यन्तरमस्य देव भुवनं संसृज्यते चैवहि॥

अर्थ- देवस्य यह पद बतलाता है कि मरणधर्मा मनुष्य भी अमरता अर्थात् देवत्व को प्राप्त हो सकता है। देवताओं के समान शुद्ध दृष्टि रखने से, प्राणियों की सेवा करने से, परमार्थ कर्म करने से, निर्बलों की सहायता करने में मनुष्य के भीतर और बाहर देवलोक की सृष्टि होती है।

भावार्थ- परमात्मा की बनाई हुई इस पवित्र सृष्टि से जो कुछ है पवित्र और आनन्दमय ही है। इस दृष्टि से संसार को प्रसन्नता की दृष्टि से देखना, उसमें मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की गई बुराइयों को दूर करना और ईश्वरीय श्रेष्ठताओं को विकसित करना, प्रचलित करना, देव कर्म है। इस देव दृष्टि को धारण करने से मनुष्य देवता बन सकता है। जो अपने को शरीर न समझकर आत्मा अनुभव करता है। वह अमर है, उसके पास से मृत्यु का भय दूर चला जाता है। प्राणियों को प्रेम और आत्मीयता की पवित्र दृष्टि से देखना, अपने आचरणों को पवित्र रखना, अपने से निर्बलों को ऊँचा उठाने के लिए अपनी शक्तियों का दान करना, यह देवत्व है। इन गुणों वाले के लिए यह भूलोक भी देवलोक के समान आनन्दमय बन जाता है।

धीमहि सर्वविधं हृदये शुचि,

शक्तिचयं वयमित्युपदिष्द्वा।

नो मनुजोलभते सुखशान्ति,

मनेन विनेति वदन्ति हि वेदाः॥

अर्थ- हम सब लोग हृदय में सब प्रकार की पवित्र शक्तियों को धारण करें। वेद कहते हैं कि इसके बिना मनुष्य सुख शान्ति को प्राप्त नहीं होता।

भावार्थ- संसार में भौतिक शक्तियाँ अनेक हैं। धन, पद, वैभव, राज्य, शरीर बल, संगठन, शास्त्र, विद्या, बुद्धि, चतुरता, कोई विशेष योग्यता आदि के बल पर लोग ऐश्वर्य और प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं, पर यह अस्थायी होती है। इनसे सुख मिल सकता है और वह छोटे मोटे आघात में ही नष्ट भी हो सकता है। स्थायी सुख आध्यात्मिक पवित्र गुणों में है, जिन्हें “दैवी संपदाएं” या “दिव्य शक्तियाँ” भी कहते हैं। निर्भयता, विवेक, स्थिरता, उदारता, संयम, परमार्थ, स्वाध्याय, तपश्चर्या, दया, सत्य, अहिंसा, नम्रता, धैर्य, अद्रोह प्रेम, न्यायशीलता, निरालस्य, आदि दैवी गुणों के कारण जो सुख मिलता है उसकी तुलना किसी भी भौतिक सम्पदा से नहीं हो सकती, इसलिए अपना दैवी सम्पदाओं का कोष बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।

धियोवोन्मथ्याच्छागमनिगम मंत्रान् सुमतिवान्।

विजानीयात्तत्वं विमल नवनीतं परमिव।

यतोऽस्मिन् लोके वै संशयगत विचार स्थलशते।

मतिः शुद्धैवाँछा प्रकटयति सत्यं सुमन से॥

अर्थ- बुद्धिमान को चाहिए कि वेद शास्त्रों को बुद्धि से मथकर मक्खन के समान उत्कृष्ट तत्व को जाने। क्योंकि शुद्ध बुद्धि से ही सत्य को जाना जाता है।

भावार्थ- संसार में अनेक विचारधाराएं हैं, उनमें से अनेकों आपस में टकराती भी हैं। एक शास्त्र के सिद्धान्त दूसरे शास्त्र के विपरीत भी बैठते हैं, इसी प्रकार एक विद्वान या ऋषि का विचार दूसरे विद्वान या ऋषि के विचारों में विचलित न होना चाहिए। देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार जो बात एक समय बिल्कुल ठीक होती है वही भिन्न परिस्थिति में गलत भी हो सकती है। जाड़े के दिनों में जो कपड़े लाभदायक होते हैं, उनमें गर्मी में काम नहीं चल सकता, इसी प्रकार एक परिस्थिति में जो बात उचित है वह दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो जाती है। इसलिए किसी ऋषि, विद्वान, नेता या शास्त्र की निन्दा न करते हुए हमें उनमें से वही तत्व लेने चाहिए जो आज की स्थिति के अनुकूल हैं। इस उचित अनुचित का निर्णय, तर्क, विवेक और न्याय के आधार पर वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।

योनोवास्ति तु शक्तिसाधनचयो न्यूनाऽधिकश्चाथवा

भागं नूनतमं हितस्य विदधेमात्मप्रसादाय वै।

तत्पश्चादवशिष्ट भागमखिलं त्यक्तवा फलाशाँहृदि

तद्द्यीनेष्वमिलाषवस्तु वितरेमाँगीपुनित्यंवयम्॥

अर्थ- हमारी जो भी शक्तियाँ एवं साधन हैं चाहे वे न्यून हों अथवा अधिक हो उनके न्यून से न्यून भाग को अपनी आवश्यकता के लिए प्रयोग में लावें। शेष को निस्वार्थ भाव से उन्हें अशक्त व्यक्तियों में बाँट दें।

भावार्थ- भगवान ने मनुष्य को ज्ञान, बल तथा वैभव एक अमानत के रूप में इसलिए दिया है कि इन विभूतियों से सुसज्जित होकर अनेकों मान, यश, सुख तथा पुण्य का श्रेय प्राप्त करें परन्तु इनका लाभ अधिक से अधिक मात्रा में दूसरों को उठाने दें। अपने ऐश, आराम, भोग, संचय या अहंकार की पूर्ति में इनका उपयोग नहीं होना चाहिए। वरन् लोक हित के लिए अपने से निर्बलों की सहायता के लिए इनका उपयोग किया जाना चाहिए। विद्वान, बलवान या धनवान का गौरव इसी बात में है कि उनके द्वारा कम ज्ञान वालों को, निर्बलों को, निर्धनों को ऊंचा उठाने का प्रयत्न किया जाय। जैसे, वृक्ष, कूप, तड़ाग उपवन, पुरुष, अग्नि, जल, वायु, बिजली आदि श्रेष्ठ समझे जाने वाले पदार्थ अपनी महान शक्तियों को लोक हित के लिए सदैव वितरित करते रहते हैं। वैसे ही हमें भी अपनी शक्तियों का जीवन निर्वाह मात्र भाग अपने लिए रखकर शेष को जनहित के लिए समर्पित कर देना चाहिए।

प्रचोदयात् स्वं त्वितराँश्च मानवान्,

नरः प्रयाणाय च सत्य वर्त्मनि।

कृतं हि कमिखिल मित्थ मंगिना,

विपश्चितैर्धर्म इति प्रचक्षते॥

अर्थ- मनुष्य अपने आपको तथा दूसरों को सत्य मार्ग पर चलाने के लिए प्रेरणा दे। इस प्रकार किये हुए सब कामों को विद्वान लोग धर्म कहते हैं।

भावार्थ- प्रेरणा संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसके बिना सारी साधन सामग्री बेकार है चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो। प्रेरणा से उत्साहित और प्रवृत्त हुआ मनुष्य यदि कार्य आरम्भ कर देता है तो साधन अपने आप जुटा लेता है, उसे ईश्वरीय सहायताएं मिलती हैं और अनेक सहयोगी प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए अपने आपको सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा तथा प्रोत्साहन देना चाहिए तथा दूसरों को उत्तमता की दिशा में अग्रसर करने के लिए उन्हें प्रेरित करना चाहिए। वस्तुएं देकर किसी का उतना उपकार नहीं किया जा सकता जितना कि उसे प्रेरणा देकर उन्नत या समृद्ध बनाया जा सकता है। सत्कार्य के लिए प्रेरणा देना, इतना बड़ा पुण्य कार्य है कि उसकी तुलना में छोटी-मोटी पुण्य क्रियाएं बहुत ही तुच्छ बैठती हैं।


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