इन्हें पालन कीजिए, आप निरोग और बलवान बन जायेंगे।
(1) प्रातःकाल शौच जाने से पूर्व एक गिलास पानी पिया कीजिए, इससे दस्त साफ होता है और रात का बिना पचा हुआ भोजन पचने में सहायता मिलती है।
(2) आपके लिए हल्का व्यायाम आवश्यक है। सुबह शाम तेज चाल से, दोनों हाथों को हिलाते हुए, सीना निकाल कर काफी दूर तक टहलने जाया करें। यह टहलना इतना होना चाहिए कि शरीर में गर्मी काफी बढ़ जाय और थोड़ा पसीना तक झलक आवे। कमजोर आदमियों के लिए यह सर्वोत्तम व्यायाम है। इससे समस्त रक्त का दौरा तेज होता है। कल पुर्जे ठीक प्रकार काम करने लगते हैं।
(3) प्रातःकाल की सहज धूप शरीर पर लिया करें। इससे रोगों के कीटाणु नष्ट होते हैं और जीवनी शक्ति प्राप्त होती है।
(4) स्नान से पूर्व शरीर पर धीरे-धीरे तेल मालिश किया करें। गर्मी के दिनों में सरसों का और जाड़े के दिनों में तिली का तेल प्रयोग करना चाहिए। तेल मालिश एक बड़ा ही उपयोगी व्यायाम है।
(5) आप ऐसे स्थान में स्नान किया करें जहाँ खुली हवा के झोंके न लगते हों। एक मोटे खुरदरे तौलिये को पानी में भिगो कर उससे धीरे-धीरे बहुत देर तक सारे शरीर को रगड़ते रहें जिससे त्वचा लाल हो जाये और शरीर के सारे छिद्र खुल जावें इससे शरीर के भीतर की विषैली गर्मी बाहर निकल जाती है और त्वचा तथा माँसपेशियों का व्यायाम हो जाता है। बीमार आदमी चारपाई पर पड़े-पड़े भी गरम पानी में तौलिया भिगोकर बिना भिगोये हुए भी घर्षण स्नान कर सकते हैं।
(6) नाश्ता करना छोड़ दें। करना ही हो तो दूध, मट्ठा, नींबू का शरबत आदि कोई पतली चीज थोड़ी मात्रा में ले लें। दोपहर और शाम दो बार ही नियत समय पर भोजन किया करें। भूख से कम खावें। प्रत्येक ग्रास को इतना चबावें कि वह खूब बारीक पिस जावे। पेट को एक चौथाई खाली रखना चाहिए। ठूँस-ठूँस कर खाने वाले और दिन भर बकरी की तरह मुँह चलाने वाले अपने दाँतों से अपनी कब्र खोदते हैं। भोजन के साथ कम से कम पानी पीना चाहिए।
(7) सुपाच्य, स्वादिष्ट फल, शाक तथा हरे अन्न हमारी सर्वोत्तम खुराक हैं। जो कच्चे नहीं खाये जा सकते उन्हें तथा पत्ती हर शाकों को उबाल कर खाना चाहिए। मेवे भी पौष्टिक हैं। अन्नों को दलिया या खिचड़ी के रूप में रसीला बनाकर उबाल कर रसीला बना लिया जाय तो वह रोटी की अपेक्षा हल्के रहते हैं। दूध, दही मट्ठा तीनों ही उपयोगी हैं।
तले हुए पूड़ी, पकवान, मिठाइयाँ, चाट, पकौड़ी, जली भुनी हुई चीजें सर्वथा हानिकारक हैं। भोजन ताजा होना चाहिए और स्वच्छतापूर्वक बनाना तथा खाना चाहिए।
(8) चाय, दूध आदि कोई चीज गर्म न लेनी चाहिए और न बर्फ अधिक या बर्फ मिश्रित अधिक ठंडी चीजें सेवन करनी चाहिए, इससे दाँत और आँत दोनों में ही विकार उत्पन्न होते हैं।
(9) पानी खूब पिया कीजिए। जाड़े के दिनों में 5-6 गिलास और गर्मी के दिनों में 8-10 गिलास तो कम से कम पीना ही चाहिए। पानी एक साथ सड़ाके से नहीं पी जाना चाहिए वरन् घूँट-घूँट कर पियें, जिससे मुँह की लार उसमें काफी मात्रा में मिल जाय। दूध, मट्ठा आदि अन्य पेय पदार्थ भी इसी प्रकार पीने चाहिए।
(10) चाय, तमाखू, भाँग, अफीम, गाँजा, शराब आदि नशीली चीजों से, हींग, गरम मसाला, मिर्च, लहसुन आदि उत्तेजक गरम, पदार्थों से तथा माँस मछली आदि अभक्ष वस्तुओं से बचते रहना चाहिए। यह चीजें स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली हैं। इनका पूर्णतया त्याग करना, न बन पड़े तो भी जितना कम किया जा सके करते चलना चाहिए।
(11) कपड़े जहाँ तक हो सके कम ही पहना करें। जो पहनें वे कसे हुए न हों। कड़ा शरीर से सदा वायु का स्पर्श होते रहना चाहिए, मुँह ढ़ककर न सोवें। बिस्तर को धूप में सुखाते रहना चाहिए। जिनमें पसीना लगता है ऐसे शरीर का स्पर्श करने वाले कपड़ों को नित्य धोना चाहिए।
(12) कमजोर और बीमारों को ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए, ताकि शक्ति संचय हो। जितना कम काम सेवन किया जाय उतना ही अच्छा है।
(13) रात्रि को जल्दी सो जावें, सवेरे जल्दी उठें! अधिक रात्रि तक जागना और नेत्रों पर जोर डालने वाले काम करते रहना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।
(14) आलस्य और अति परिश्रम दोनों ही बुरे हैं। अत्यधिक दिमागी काम करना स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। चिन्ता, क्रोध, भय, निराशा, शोक, बेचैनी, घबराहट, ईर्ष्या, द्वेष, छल कपट आदि मनोविकारों से बचना चाहिए क्योंकि यह जिसके मस्तिष्क में रहते हैं उसका स्वास्थ्य चौपट कर देते हैं।
(15) सप्ताह में एक दिन उपवास करना चाहिए। निराहार रहना सबसे अच्छा है। न हो सके तो एक समय फल दूध आदि हल्की चीजें स्वल्प मात्रा में लेना उपवास है। यह भी न हो सके तो एक समय दलिया, खिचड़ी, साबुदाना आदि पानी में पकाये हुए अन्न ले सकते हैं। उपवास के दिन पानी खूब पीना चाहिए। यदि इच्छा हो तो पानी में नींबू, सोडा, नमक या शहद मिला सकते हैं।
(16) एक एनिमा यंत्र बाजार से खरीद लीजिए या किसी वैद्य डॉक्टर के यहाँ से माँग लिया कीजिए। उपवास के लिए प्रातःकाल शौच जाने के उपरान्त थोड़े गुनगुने एक सेर पानी में नहाने का साबुन घोलकर एनिमा द्वारा पेट में चढ़ाइए। चित्त लेट कर एनिमा की नली को गुदा मार्ग में लगा लेने से पेट में पानी पहुँचता है। जब पानी पेट में जा रहा हो तो पेट को धीरे-धीरे मसलते रहना चाहिए जिससे जमा हुआ मल इस पानी से घुल जाय। जब पानी पेट में चला जावे तब दस पाँच मिनट उसे रोकना चाहिए। इसके बाद शौच जाना चाहिए। इस विधि से पेट की सफाई बड़ी अच्छी तरह हो जाती है। रोगों की जड़ पेट में होती है। पेट साफ हो जाने से बीमारी तुरन्त हट जाती है और उपचार करने पर वह शीघ्र ही जड़मूल से दूर हो जाती है। सप्ताह में एक दिन एनिमा लेना और उपवास करना स्वास्थ्य ठीक करने का अनुभूत उपाय है। बीमार लोग उपवास एनिमा कई दिन लगातार जारी रख सकते हैं। इससे उनका रोग जल्द अच्छा होगा।
(17) कमजोर और बीमार को कुछ समय पूर्ण विश्राम करने के लिए समय निकालने का प्रयत्न करना चाहिए। नित्य कामों में काफी शक्ति खर्च होती रहती है। उसे बचा लिया जाय तो वह बची हुई शक्ति रोग दूर करने में सहायता करती है।
(18) खुली हवा और खुले प्रकाश में रहना चाहिए। रहने का मकान ऐसा हो जिसमें धूप और हवा भली प्रकार पहुँच सके। अच्छी जलवायु के स्थान में रहने से बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य भी सुधर जाता है। शरीर, मन, वस्त्र, घर, भोजन, पात्र तथा उपयोग में आने वाली अन्य वस्तुओं की सफाई पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। गंदगी स्वास्थ्य की शत्रु है और सफाई मित्र।
(19) चित्त को प्रसन्न, चेहरे को हँसमुख, मस्तिष्क को शान्त रखने का बार-बार प्रयत्न करना चाहिए। दिन में कई बार ऐसा प्रयत्न किया जाय तो प्रसन्न रहने की आदत पड़ जाती है जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी है।
(20) अब तक जिन मिथ्या आहार-विहारों की आदत रही हो अब उनको दृढ़तापूर्वक छोड़ देने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और नित्य प्रति परमात्मा से सच्चे हृदय से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में सहायता प्रदान करें।
(21) मन ही मन बिना मुख से शब्द उच्चारण किये, नित्य प्रति गायत्री मंत्र का जप किया करें। इससे बड़े-बड़े संकट दूर हो जाते हैं और आनन्दमय परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं।