महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति सन्मार्ग से ही संभव है।

April 1949

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(ले.- श्री निरंजन प्रसाद गौतम, पटलौनी)

मनुष्य स्वभावतः महत्वाकाँक्षी है। उसकी इच्छा बड़प्पन प्राप्त करने की होती है, वह बड़ा बनकर रहना चाहता है। दूसरे लोग उसका सम्मान करें, उसे महत्वपूर्ण समझें, उसकी चर्चा करें उसकी सलाह का मूल्य समझें, उसका नेतृत्व स्वीकार करें ऐसी भावनाओं से वह प्रायः ओत-प्रोत रहता है। भोजन, निद्रा, मनोरंजन और दाम्पत्य जीवन की आवश्यकता पूर्ति के अतिरिक्त जो समय और शक्ति बचती है उसे प्रायः लोग महत्व प्राप्ति में ही लगाते हैं।

महत्व प्राप्ति की दो दिशाएं हैं। एक उचित दूसरी अनुचित। उचित वह है जिस और धर्म, यश और सद्गति की प्राप्ति होती है। दान, लोक सेवा, परोपकार, त्याग, संयम, ईश्वर भक्ति, स्वाध्याय, सत्संग आदि कार्यों द्वारा उत्तम महत्व की प्राप्ति होती है तथा ऐसे परिणाम प्राप्त होते है। जिनसे सुखदायक विकास होता है। दूसरी दिशा वह है जिस पर चलने से साँसारिक भोग विलास के साधन, धन-संपदा आदि को प्राप्त किया जाता है।

इन दोनों मार्गों में अन्तर यह है कि उचित मार्ग पर चलने वाला जहाँ आन्तरिक सुख, मानसिक शान्ति को उपलब्ध करता है, वहाँ उसे उचित साँसारिक आवश्यकताओं से भी वंचित नहीं रहना पड़ता। परन्तु जब उन्नति का वास्तविक तात्पर्य आन्तरिक उन्नति, आत्मोत्थान होता है तब विशेष रूप से अधिक मात्रा में वही मिलती है, भौतिक संपदाएं उतनी ही मिल जाती हैं जितनी कि जीवन स्थिर रखने के लिए आवश्यक है। जिस ओर विशेष आकर्षण होता है उस दिशा में विशेष सफलता मिलती है दूसरी ओर स्वभावतः उतना लाभ नहीं होता। इसलिए देखा गया है कि जो श्रेय मार्ग पर चलने वाले हैं वे प्रायः भोग ऐश्वर्य से सम्पन्न नहीं हो पाते।

दूसरी ओर जो इन्द्रिय भोग और धन दौलत, पद आदि साँसारिक सम्पन्नता द्वारा सुखी होना चाहते हैं, महत्व प्राप्त करना चाहते हैं वे इस लक्ष को प्रधानता देकर आगे बढ़ते हैं। आत्मोन्नति का लक्ष गौण हो जाता है। जब भोग में, संचय में, प्रवृत्ति अधिक बढ़ती है तो मनुष्य सोचता है कि अधिक से अधिक और जल्द से जल्द सफलता मिलनी चाहिए। भोगों को भोगने और धन को जमा करने में जो तात्कालिक सुख मिलता है। उसकी चाह इतनी तीव्र होती है कि आत्मोन्नति का लक्ष गौण भी नहीं रहता, वह उपेक्षित होता है और बहुत अंशों में उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है क्योंकि प्रधान रूप से धर्म पालन ही वह बाधा प्रतीत होती है। जिसके कारण साँसारिक सम्पन्नताओं की प्राप्ति में रुकावट पड़ती इसलिए उन्हें धर्म को उठाकर ताक पर रख देना पड़ता है। और जैसे भी बने वैसे धन और भोग के साधनों को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए लगना पड़ता है। यह ऐसा ढालू मार्ग पर जिस पर फिसल पड़ने के बाद लुढ़कने की गति क्रमशः तीव्र होती जाती है और मनुष्य तेजी से प्रेम मार्ग पर चलते हुए आत्मिक पतन के गर्त में गहरा उतरता जाता है।

नाना प्रकार के प्रपंच, छल, ठगी, झूठी, दगाबाजी, आडम्बर, धूर्तता, चोरी, अपहरण आदि दुष्कर्मों का एकमात्र कारण यह है कि मनुष्य बहुत शीघ्र धनवान बनना चाहता है और धन के द्वारा जो साँसारिक सुख मिल सकते हैं उन्हें प्राप्त करना चाहता है, इस मार्ग पर आज अगणित मनुष्य चलते हुए दिखाई पड़ते हैं। पर हम यह भी देखते हैं कि जिस कामना से विपुल भोग ऐश्वर्य प्राप्ति की इच्छा से इस मार्ग पर उन्होंने तीव्र गति से पदार्पण किया था, उसमें वे प्रायः असफल ही रहते हैं। सारा जीवन रस निचोड़ देने पर भी उनके हाथ मृग तृष्णा में भटकते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता। जीवन भर के कठोर श्रम के बदले से सुख तो नाममात्र का भोग पाते है अपितु पापों की एक भारी गठरी उनके पल्ले बँध जाती है, जिसकी अग्नि में उनका वर्तमान और भविष्य बुरी तरह झुलसता है।

हमारी स्वाभाविक आवश्यकताएं बहुत ही सीमित हैं, उन्हें आसानी से पूरा किया जा सकता है। पर आज तो कृत्रिम आवश्यकताएं उत्पन्न करना, दिन दिन अनाप-शनाप जरूरतें बढ़ाते जाना, और उन बढ़ी हुई जरूरतों की पूर्ति के लिए समस्त शारीरिक और मानसिक शक्तियों को निचोड़ देना आज की सभ्यता का प्रधान चिह्न बना हुआ है। “आग लगाना और फिर उसे घी से बुझाते दौड़ना” यह कुचक्र कभी बन्द नहीं हो सकता, इसकी प्रगति तो तीव्र ही होती चलेगी। जरूरतों की बढ़ोतरी का कोई अन्त नहीं, परन्तु अपनी सामर्थ्य का अंत है चाहे कितना ही प्रयत्न करे मनुष्य एक सीमा तक ही उपार्जन और उपभोग कर सकता है। ऐसी दशा में यह हो नहीं सकता कि सन्तोष, शान्ति और तृप्ति उपलब्ध हो सके। एक और अतृप्त तृष्णा की जलन दूसरी ओर पाप के दंडों की मार, इस चक्की में पिसता हुआ वह भोगैश्वर्यवादी प्राणी सदा पीड़ा और व्यथा अनुभव करता रहता है।

कितने ऐसे मनुष्य हैं जो इस गोरख धंधे की उलझन को सुलझा कर अपने लिए किसी सुनिश्चित लक्ष का निर्णय करते हैं। अधिकाँश को हम मृगतृष्णा में भटकता हुआ और दाने के लोभ से जाल में फँसे हुए कबूतर की तरह तड़पता देखते हैं। आश्चर्य यह है कि हम सब एक दूसरे को इस प्रकार की दुर्घटना में ग्रस्त देखते हुए भी स्वयं सावधान नहीं होते वरन् उसी सत्यानाशी मार्ग पर चलने के लिए कदम बढ़ाते हैं। क्या ही अच्छा होता, यदि हम अपनी जीवन दिशा को विवेकपूर्वक चुनते और उस और कदम बढ़ाते जिसमें जीवन यापन की सामग्री और आत्म शान्ति दोनों ही सुविधापूर्वक प्राप्त होती है और उस महान महत्वाकाँक्षा को प्राप्त करते हैं जिसकी क्षुधा हमारी आत्मा में हर घड़ी उठती रहती है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि साँसारिक कोई भी संपदा आत्मा की महत्वाकाँक्षा को तृप्त नहीं कर सकती, उसकी तृप्ति तो परमात्मा की प्राप्ति से ही होती है और यह लाभ केवल श्रेयपथ पर, सन्मार्ग पर, चलने से ही प्राप्त हो सकता है।


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