क्रोध का स्वास्थ्य पर प्रभाव

April 1949

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

स्वास्थ्य का मन से अकाट्य सम्बन्ध है। उत्तम स्वास्थ्य का उदय मन की शान्त, उत्साहपूर्ण, आशावादी, सचेष्ट सद्प्रेरणा मनः स्थिति से होता है। हमारी आन्तरिक प्रेरणाएं भाव, स्वयंभू वृत्तियाँ और इच्छाएँ गुप्त मन द्वारा संचालित होती हैं। मन के अन्दर से ही पोषक तथा संजीवनी क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। गुप्त मन के संस्कार और अन्तःप्रेरणा शरीर में पोषण क्रिया रखती हैं। अन्तर के आदेश ही हमारी पाचन शक्ति को ठीक रखती, गुर्दे को क्रियाशील बनाती, यकृत का महत्वपूर्ण कार्य कराती हैं। मन को ठीक स्थिति में रखने तथा उससे पूरा-पूरा काम लेने की शक्ति होने के कारण ही मनुष्य का स्थान सब प्राणियों से ऊँचा है।

प्रकृति का नियम यह है कि यदि भोजन शान्त अवस्था में किया जाय तो उसका प्रभाव कल्याणकारी होगा पर यदि वही भोजन करते समय आप खिंचे हुए हों तो इष्ट का प्रभाव भी अनिष्ट हो आयेगा, पेटभर भोजन न किया जा सकेगा, कमजोरी आयेगी, रक्त दूषित होगा, पाचन शक्ति में निर्बलता आ जायेगी। खाद्य पदार्थों पर क्रोध के कारण दूषित प्रभाव पड़ता है।

कुदरत चाहती है कि हम शान्त रहें, प्रसन्न रहें और आशावादी बने रहें, मस्त और उन्मुक्त रहें-ऐसी निर्लिप्त अवस्था में ही दूध, फल, तरकारी, अन्न इत्यादि अपना शुभ प्रभाव दिखाते हैं। मानसिक तनाव या उद्विग्न अवस्था में अन्दर के अंग-प्रत्यंग अपना कार्य उचित रीति से नहीं कर पाते। सद्विचारों से ज्ञान तन्तु पुष्ट होते हैं, मनोविकारों से उनकी स्वाभाविक शक्ति ठंडी पड़ती है, प्राण शक्ति का क्षय होता है, शरीर यंत्र गतिहीन हो जाता है, मनुष्य पशु तुल्य बन जाता है। भोजन द्वारा स्वास्थ्य एवं जीवाणु तत्व प्राप्त करने के हेतु मन को उत्पादक स्थिति में रखना बड़ा कल्याणकारी है।

उस व्यक्ति के स्वास्थ्य की कल्पना करना सरल है जो भोजन करते समय कुढ़ता रहता है। जिसके मुख से कुत्सित शब्दों का उच्चारण होता रहता है और जो नाक भौं सिकोड़े मानसिक तनाव की अवस्था में जल्दी-जल्दी भोजन ठूँस लेता है। उसे भोजन में क्या स्वाद आयेगा? उससे कैसे पौष्टिक तत्व प्राप्त होंगे? भोजन अपना नैसर्गिक कार्य न कर सकेगा। ईर्ष्या और क्रोध दोनों दाहक हैं। देह और मन को जलाते हैं। मनुष्य को पनपने का अवसर नहीं देते। क्रोध से बनी विचार-मूर्तियाँ नीचे ऊपर, मानस पटल के प्रत्येक कोने पर छा जाती हैं और उसे मोहाच्छन्न कर देती हैं। इन विचार-मूर्तियों में एक प्रकार का कम्पन होता रहता है तथा ये जैसी है वैसी ही किरणें निकलती रहती हैं। साथ ही, जैसे-2 ये विचार मूर्तियाँ हमारे मानसिक जगत् में बनती है, वैसे ही, उसी क्षण, जिसके निमित्त ये बनी हैं, उनकी और दौड़ जाती हैं।

क्रोध के समय आपका मुख मंडल कैसा रहता है, जरा शीशे में देखिए। कैसा मुख लाल जो जाता है, कटु शब्दों का उच्चारण करने से शरीर काँपने लगता है, भुजाएँ फड़कने लगती हैं, भृकुटि चढ़ जाती है, नेत्र लाल हो जाते हैं, होठ चबने लगते हैं। मन में उद्वेग, विकलता, गर्व, उग्रता, अमर्ष इत्यादि अनुभव उदय होते हैं। प्रत्येक मानसिक व्यापार या क्रिया का सम्बन्ध चेहरे के सौंदर्य से है। मन के विकार का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से शरीर के अवयवों पर लक्षित होता है। जिस प्रकार समुद्र के धरातल पर आने वाली सूक्ष्म तरंगों का प्रभाव समूचे समुद्र पर पढ़ता है, उसी प्रकार साधारण से होकर उन्नत एवं परिपुष्टतम विचार हमारी सूक्ष्म पेशियों को प्रभावित किया करते हैं। मन के आदेश से अनेक अहेतुकी क्रियाएँ हम किया करते हैं।

क्रोधी व्यक्ति बार-बार एक विशेष प्रकार की मुख मुद्रा बनाता है, परनिन्दा करता है। अपकारक या अनुचित शब्दों का प्रयोग करने से दुख की मुद्राएँ एक आदत बन जाती है। क्रोधयुक्त मुख ही स्थायी रूप धारण कर लेता है। सम्पूर्ण सौंदर्य विनष्ट हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों के मुख में आप नेत्र लाल देखेंगे, भृकुटि चढ़ी हुई होगी, होठ चबाये जा रहे होंगे, माथे और कपोलों पर झुर्रियाँ पड़ी हुई होंगी।

क्रोध सौंदर्य का शत्रु है। सौंदर्य में मन का शील, मधुरता, उत्तम स्वभाव, शुभ्र भावनाएँ, आध्यात्मिक सजीवता सम्मिलित है। सौंदर्य एक आत्मिक गुण है। यदि हम आनन्दमयी वृत्ति में रहेंगे, मन को शुभ कल्पनाओं, पूर्ण निर्दोष, स्वास्थ्यमय शुभेच्छाओं से भरी रक्खेंगे, तो ये हमारे अंतर्मन में प्रविष्ट हो जायेंगे। पुनः-पुनः इन्हीं शुभ भावनाओं का अभ्यास करने से ये हमारे मुख मंडल पर प्रकट हो जायेंगे। इसके विपरीत यदि हम क्रोधाग्नि में जलते रहेंगे। अपकारक विकारों या गर्व, उग्रता, अमर्ष इत्यादि मानसिक विषों से भरे रहेंगे, तो मुख भी विवर्ण हो जायेगा, चेहरा रौद्र रूप धारण कर लेगा। ऐसी भयानक सूरत दिखाकर हम यह प्रकट करते हैं कि हमारे शरीर में मानसिक उद्वेग हो रहा है।

क्रोध रहित होना उच्च जीवन, विचारशीलता और शुभ्र दैवी अंतःवृत्ति का परिचायक है। क्रोध, कुत्सित है, अस्वाभाविक और पापयुक्त है। यह छल, कपट, नीचता, हिंसा, अधर्मता, लज्जा, अनीति, का जन्मदाता है, तमोगुण का आवरण उत्पन्न कर मनुष्य का दैहिक, दैविक और आध्यात्मिक अहित कराने वाला दुष्ट शत्रु है। यह वह विष है जो शरीर के अंगों को बिगाड़ता, तेज, स्वास्थ्य, कान्ति, बल और आयु को क्षीण करता है। क्रोध में अविवेक उत्पन्न होता है।

संत प्रवर बिनोवा लिखते हैं- ‘क्रोध पर ही क्रुद्ध होने के अतिरिक्त इस दुर्जय पाप वृत्ति का अन्य कोई सदुपयोग नहीं हो सकता’। छिपाने से अन्य पाप वृत्तियों का पोषण संभव है, किन्तु क्रोध कभी छिपाया नहीं जा सकता। वह तो नेत्रों की दृष्टि से दीप्त अग्नि शिखा की तरह प्रकाशित होकर समग्र मुख मंडल को रक्तवर्ण का बना देता है। अग्नि की ही तरह सामने वह जिस किसी वस्तु को पाता है, उसी को जला देता है।

क्रोध आते समय उसे जितना दमन करना चाहोगे, उतना ही वह दुर्दमनीय हो उठेगा। कुछ व्यक्ति किसी प्रकार भी संयम या तिरस्कार के योग्य नहीं हो सकते। अन्य पाप वृत्तियों की सीमा हो सकती है, उनका शासन हो सकता है, किन्तु क्रोध के समान दुःशासन अन्य कुछ भी नहीं हो सकता कोई भी सीमा उसे सर्वत्र नहीं कर सकती। यहाँ तक कि जीवन के श्रेष्ठ और पवित्रतम बन्धन या आकांक्षाएं भी उसका प्रतिरोध करने में असमर्थ हो जाती हैं। क्रुद्ध हृदय से जब हम अभिसंघात करते हैं, अथवा मन ही मन, क्षुब्ध और विरक्त होते हैं, उस समय हमारे मन की वह अवस्था स्वर्ग राज्य के विरुद्ध प्रयत्न की तरह भयानक होती है, क्योंकि क्रोध से अन्धे होकर हम उस सर्व शक्तिमान विधान की निरन्तर सुलभ अपार करुणा को एकदम भूल जाते हैं। क्रोधान्ध व्यक्ति के विचार और कल्पना मदिरासक्त की तरह प्रमत्त होते हैं। वह किसी भी प्रकार के विरोध के आधीन नहीं हो सकता।


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