दूसरों के दोष ही गिनने से क्या लाभ

April 1949

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(श्री दोलतराम कटरहा बी. ए., दमोह)

भगवती पार्वती के दो पुत्र थे- स्वामिकार्तिक और गणेश। दोनों आपस में खूब लड़ते थे। गणेश, स्वामिकार्तिक की आँखें गिनते एक, दो, तीन, चार और स्वामिकार्तिक गणेश की सूँड़ नापते और फिर दोनों आपस में लड़ने लगते। पार्वती जी इनकी लड़ाई से तंग आ गई और एक दिन उन्होंने उन दोनों को कृपा सागर शिवजी के सामने हाजिर किया और कहा कि महाराज ये लड़ाके लड़के खूब लड़ते हैं, कृपा करके इन्हें किसी प्रकार समझा दीजिए। शिवजी ने उन्हें प्यार से गोद में बैठाकर समझा दिया कि दूसरों की बुराई देखना बुरी आदत है।

अगर है मंजूर तुझको बेहतरी,

न देख ऐब दूसरों का तु कभी।

कि बदबीनी आदत है शैतान की,

इसी में बुराई की जड़ है छिपी।

महात्मा ईसा ने कहा है कि “दूसरों के दोष मत देखो जिससे कि मरने के उपरान्त तुम्हारे भी दोष न देखे जावें” और तुम्हारा स्वर्गीय पिता तुम्हारे अपराधों को क्षमा कर दें। यदि आप दूसरों के दोषों को क्षमा नहीं करते तो आप अपने दोषों के लिए क्षमा पाने की आशा क्यों करते हैं?

मनुष्य का पेट क्यों फूला-फूला सा रहता है और उसकी पीठ क्यों पिचकी रहती है इसका कारण तनिक विनोद पूर्ण ढंग से एक महाशय इस प्रकार बताते हैं कि इन्सान दूसरों के पाप देखा करता है इसलिए दूसरों की पाप रूपी गठरी उसके सामने बंधी रहती है पर उसे अपने ऐब नहीं दिखाई देते, वह उनकी और पीठ किए रहता है इसलिए उसकी पीठ चिपकी रहती है।

एक बार भगवान बुद्ध के पास दो व्यक्ति परस्पर लड़ते-झगड़ते हुए हुए आए। एक दूसरे के लिए कहता था कि महाराज इसके आचरण कुत्ते जैसे हैं इसलिए यह अगले जन्म में कुत्ता होगा। दूसरा पहले के लिए कहता है कि महाराज इसके आचरण बिल्ली जैसे हैं और यह अगले जन्म में बिल्ली होगा। भगवान बुद्ध ने बात समझ ली ओर पहले से कहा कि तेरा साथी तो नहीं पर तुझे ही अगले जन्म में कुत्ता होना पड़ेगा क्योंकि तेरे हृदय में कुत्ते के संस्कार जम रहे हैं कि कुत्ता इस प्रकार आचरण करता है। इसी तरह उन्होंने दूसरे से कहा कि वह खुद बिल्ली होगा।

भविष्य में क्या होगा यह तो ठीक-ठीक नहीं जाना जा सकता पर यह तो बिल्कुल सही है कि जो दूसरों के ऐब देखता है वह अपना मिथ्या अहंकार बढ़ाता है और उसके स्वभाव में क्रोध और घृणा की वृद्धि होती है। वह दूसरों के सम्बन्ध में अहंकार पूर्ण धारणाएं बनाता है और अपने आपको सबसे अच्छा समझने लगता है। वह अपनी बुराइयों की ओर से अन्धा हो जाता है और उसमें एक तरह का छिछोरापन या चुगली खाने की आदत आ जाती है।

एक बार महात्मा ईसा के पास कुछ लोग एक स्त्री को लेकर आये और कहने लगे कि प्रभु इसने व्यभिचार किया है इसे पत्थर मार-मार कर मार डालना चाहिए। महात्मा ईसा ने कहा है कि अच्छी बात है पर इसे वह पत्थर मारे जिसने एक भी पाप न किया हो। उस स्त्री को मारने की किसी की हिम्मत न पड़ी और सब लोग एक-एक करके चुपचाप वहाँ से खिसक गए। तब महात्मा ईसा ने उस स्त्री से दयापूर्वक कहा कि अब आगे ऐसा न करना। अपने प्राण-रक्षक के इन शब्दों का इस स्त्री पर इतना प्रभाव हुआ कि वह स्त्री एक साध्वी महिला बन गई। सच है हमारे ऐब देखने वाले हमारे चरित्र को उतना नहीं सुधार सकते जितना कि हम पर दया और सहानुभूति रखने वाले। महात्मा ईसा ने उस समय यह भी बतला दिया कि कोई भी मनुष्य इतना पवित्र नहीं हो सकता कि वह दूसरों के व्यक्तिगत पापों पर निगाह डाले और उनके लिए उसे स्वयं दंड दे। केवल एक परमात्मा ही पूर्ण है और वही हमें हमारे व्यक्तिगत पापों के लिए दण्ड दे सकता है। अतएव हमें महात्मा कबीरदास की नम्रतापूर्ण उक्ति को सदा ध्यान में रखना चाहिए।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय।

जो दिल खोजा आपना, मुझ सा बुरा न होय॥

दूसरों के व्यक्तिगत दोषों के प्रति हमारा क्या रुख होना चाहिए इसका विवेचन करते हुए महात्मा तुलसी दास लिखते हैं कि “साधुओं का चरित्र कपास जैसा निर्मल और शुभ्र होता है, उसका फल परम गुणमय होता है और वह स्वयं दुख सहकर दूसरों के पाप रूपी छिद्रों को ढकता है। इसी गुण के कारण वह संसार में वन्दनीय है। अतएव यदि हमें भी इस शुभ्र कपास जैसा वन्दनीय होना है तो हमें दूसरों की व्यक्तिगत भूलों के प्रति बड़ा सहृदय होना चाहिए। सहृदय होने पर ही, हम किसी व्यक्ति के हृदय में स्थान पा सकते हैं। तभी वह हमें अपना हितेच्छु जानकर हम पर अपने हृदय का भेद प्रकट कर सकता है और तभी हम उसके मन की गाँठें खोलने में उसकी सहायता कर उसका सच्चा सुधार कर सकते हैं।

हमें किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत दोषों के लिए जितना सहृदय होना है उतना ही हमें सामाजिक अपराध करने वालों के प्रति निर्मम होना पड़ेगा। सामाजिक अपराध करने वालों के उन अपराधों को हजार कान और आँखों से हमें सुनना और देखना पड़ेगा और उन्हें उनका दण्ड दिलवाना होगा।


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