साधना का पथ

April 1949

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(योगिराज श्री अरविन्द)

साधक को पहले मन को तैयार करने की आवश्यकता है। मन को शान्त एवं स्थिर बनाने की आवश्यकता है। साधना के लिए मन के तैयार होते ही उसमें शान्ति आती है और बहुत बड़ी समता की स्थापना होती है। शान्ति का अर्थ अटल और अचल स्थिर भाव तथा प्रवृत्ति के सब तरह के घात प्रतिघातों से अविचल तथा निर्विकार रहने का अभ्यास। जिस प्रकार आज चंचलता मन का स्वभाव है, साधना की तैयारी में जुटते ही अविचल और निर्विकार भाव मन एवं बुद्धि का स्वभाव सिद्ध भाव हो जायगा इसके साथ ही साथ हमें आगे की तैयारी के लिए मन को विश्व मात्र के प्राणियों को रागद्वेष रहित होकर आह्लादपूर्वक हृदय से लगाने के भाव वाला हो जाना चाहिए। भगवान जिस प्रकार संसार के समस्त प्राणियों में अखण्ड भाव से विराजमान हैं, उसी प्रकार की अनुभूति के लिए हमें अपने मन को तैयार करने की आवश्यकता है, क्योंकि संसार के प्राणी होने के कारण हमारे भीतर भी भगवान अखण्ड भाव से विराजमान हैं इसलिए अपने भीतर स्थित भगवान को जहाँ हमें देखना है वहाँ समस्त संसार में भी उसका अनुभव करना है। इस तरह अपने में संसार के साथ अखण्ड संबंध की स्थापना शब्द से नहीं अनुभूति-पूर्वक करनी है। मन की इस शान्त सत्ता में सतत एक रस तल्लीन रहने का अभ्यास हो जाने पर विज्ञान का अभिव्यक्त होना आरंभ हो जाता है। परन्तु साधक को उतावला बनने की आवश्यकता नहीं है। अखण्ड निर्भयता के साथ साधना करते रहने पर भगवान स्वयं ही धीरे-धीरे सभी विघ्न, बाधाओं को दूर करके साधक को मन वाँछित स्थान पर पहुँचा देते हैं।

साधना के आरंभ में पहले अपने विचार में ज्ञान प्रवाह का अनुभव करना चाहिए। यह अनुभव ईश्वर की प्रेरणा के रूप में चित्त के भीतर करना चाहिए। यह प्रेरणात्मक ज्ञान भीतर के गुरु रूप से साधक को अपने आप ही सब कुछ दिखा सुना देगा। क्या करना चाहिए, किसमें कमी या अधूरापन है, क्या नहीं करना चाहिए से सारी बातें वह स्वयं ही कहना आरंभ कर देगा। इसी के प्रकाश के आगे का रास्ता साधक को तय करना पड़ेगा। साधना के लिए उत्पन्न हुई इच्छा के साथ सत्य ज्ञान का मिलान करना होगा। जिससे सत्य ज्ञान के साथ ही साथ इच्छा की वृत्ति भी उसके अनुकूल रहे। जब दोनों एक रूप हो जायेंगे तब दोनों ही अखण्ड स्वरूप में बदल जायेंगे।

जिस समय अन्तस्तल में यह प्रतीत होने लगेगा कि सबमें एक अनन्त भगवान ही निवास कर रहे हैं और उन्हीं की अनन्त शक्ति के योग से सब कुछ हो रहा है, साथ ही दृढ़ विश्वास भी हो जायगा, तब साधना का जो सिलसिला जारी होगा वह उत्तरोत्तर उन्नत ही होता जायगा। उस समय साधक को सब कुछ भगवान की इच्छानुसार ही होने देना चाहिए। अपनी किसी प्रकार की भी स्वतंत्रता, इच्छा या हठ को भी स्थान नहीं देना चाहिए। क्योंकि-”होइ है वही जो राम रचि राखा” साधक को अपनी किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं करनी चाहिये सब भगवान के ऊपर छोड़ देना चाहिए और समझ लेना चाहिए कि भगवान की मंगलमय इच्छा ही सब घटनाओं को उत्पन्न कर रही है। भगवान में सम्पूर्ण श्रद्धा रखना चाहिए। भगवान जो कुछ कभी देखते हैं उसे दूर करने के लिए सब कुछ करते हैं। साधक को चाहिए कि भगवान के इस काम को भी वह साधना का एक अंग ही समझे, क्योंकि साधना के लिए इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। भगवान कल्याण स्वरूप है इसलिए कल्याण साधना में भगवान के कल्याण स्वरूप का स्मरण रखना ही साधक का प्रमुख लक्ष्य है। तनिक भी विचलित न होकर अक्षुण्ण सम्पूर्ण और कल्याण करने वाली श्रद्धा भगवान के ऊपर रक्खो, श्रद्धा ही त्याग का आधार है, इससे अनन्त ज्ञान की प्राप्ति अवश्य होगी, इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं है। श्रद्धा ने ही सम्पूर्णता को प्राप्त कराने का भार ग्रहण कर रखा है, साधक को यह बात नहीं भूल जानी चाहिए।

साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह संसार भर के प्रति प्रेम का भाव सम्पूर्ण रीति से हृदय में रखे, सबके लिए समान भाव से। किसी के लिए कम और किसी के लिए अधिक नहीं। सबके साथ समान रूप से गंभीर प्रेम करना ही त्याग करना है। त्याग और पूर्ण श्रद्धा होने से ही हृदय की सारी बाधायें दूर हो जाती हैं। भगवान समस्त बाधाओं को नष्ट कर डालते हैं।

चिंताएं मनुष्य को कुछ नहीं करने देतीं इसलिए साधक का कर्त्तव्य है कि वह अपने को समस्त चिन्ताओं से मुक्त कर ले। मन और बुद्धि को चिन्ताओं से खाली कर लेने पर एक स्तब्ध प्रसन्न शान्त भाव आता है। शान्ति की ऐसी अवस्था में वही कहता और करता है जो कि कथनीय और करणीय होता है।

मन के स्थित और शान्त होने पर ही सत्य का प्रकाश होता है अर्थात् मन के निश्चिन्त और स्थिर हो जाने पर भगवान अपने आप ही प्रकाशमान हो जाते हैं यानी उनका प्रकाश साधक को दीखने लगता है। चिन्ता युक्त मन रहने से जहाँ साधना में कठिनाई आती है वहाँ साधक को उलझन आने की भी संभावना रहती है। इसीलिए भगवान के प्रकाश को अविकृत रूप से धारण करने के लिए समता की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके बिना भाव अधिकता के कारण मन तथा शरीर की अनेक प्रकार की विषमताओं के उत्पन्न होने का डर रहता है। भगवान की प्रस्फुटित ज्योति के लिए पूर्णोपयोगी आधार बनाये बिना उसके द्वारा शरीर और मन दोनों के ही विनष्ट होने की संभावना रहती है इसीलिए मन और बुद्धि को सम्पूर्ण रूप से कुछ दिनों तक खाली करके रखने से ही भय निर्मूल हो सकता है।


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