सत्कार्यों की कसौटी -सदुद्देश्य।

November 1948

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श्रेष्ठ कार्य वह है जो श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए किया जाता है। उत्तम कार्यों की क्रिया प्रणाली भी प्रायः उत्तम ही उत्तम होती है। दूसरों की सेवा या सहायता करनी है तो प्रायः उसके लिए मधुर भाषण, नम्रता दान, उपहार आदि द्वारा ही उसे सन्तुष्ट किया जाता है। परन्तु कई बार इसके विपरीत अवसर भी आते हैं। कई बार ऐसी स्थिति सामने आती है कि सदुद्देश्य होते हुए भी-भावनाएं उच्च, श्रेष्ठ और सात्विक होते हुए भी क्रिया प्रणाली ऐसी कठोर तीक्ष्ण एवं कटु बनानी पड़ती है जिससे लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि कहीं यह सब दुर्भाव से प्रेरित होकर तो नहीं किया गया। ऐसे अवसरों पर वास्तविकता का निर्णय करने में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है।

सीधे-साधे अवसरों पर सीधी−सादी प्रणाली से भली प्रकार काम चल जाता है। किसी भूखे प्यासे को सहायता करनी है तो वह कार्य अन्न जल दे देने के के सीधे तरीके से पूरा हो सकता है। इसी प्रकार किसी दुखित या अभाव ग्रस्त को अभीष्ट वस्तुएं देकर उसकी सेवा की जा सकती है। धर्मशाला, कुआँ, बावड़ी, बगीचा, पाठशाला, गौशाला, अनाथालय, औषधालय, क्षेत्र, सदावर्त, प्याऊ आदि के द्वारा जनहित किया जाता है। ऐसे कार्य निश्चय ही श्रेष्ठ हैं और उनकी आवश्यकता एवं उपयोगिता सर्वत्र स्वीकार की जाती है। पर कई बार इस प्रकार की भी सेवा की बड़ी आवश्यकता होती है जो प्रत्यक्ष में बुराई मालूम पड़ता है और उसके करने वाले में अपयश छोड़ना पड़ता है। इस मार्ग को अपनाने का साहस हर किसी में नहीं होता बिरले ही बहादुर इस प्रकार की दुस्साहस पूर्ण सेवा करने को तैयार होते हैं। दुष्ट और अज्ञानियों को उस कुमार्ग से छुड़ाना-जिस पर कि वे बड़ी ममता और अहंकार के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं- कोई साधारण काम नहीं है। सीधे आदमी सीधे तरीके से मान जाते हैं, उनकी भूल ज्ञान से, तर्क से, समझाने से सुधर जाती है पर जिसकी मनोभूमि अज्ञानांधकार से कलुषित हो रही और साथ ही जिनके पास कुछ शक्ति भी है वे ऐसे मदान्ध हो जाते हैं कि सीधी−सादी क्रिया प्रणाली का उन पर प्रायः कुछ भी असर नहीं होता।

मनुष्य शरीर धारणा करने पर भी जिनमें पशुत्व की प्रबलता और प्रधानता है ऐसे प्राणियों की कमी नहीं है। ऐसे प्राणी सज्जनता साधुता और सात्विकता का कुछ भी मूल्याँकन नहीं करते। ज्ञान से, तर्क से, नम्रता से, सज्जनता से, सहनशीलता से उन्हें अनीति के दुखदायी मार्ग पर से पीछे नहीं हटाया जा सकता। पशु समझाने से नहीं मानता। उससे कितनी ही प्रार्थना की जाय, शिक्षा दी जाय, उदारता बरती जाय वह इससे कुछ भी प्रभावित न होगा और न अपनी कुचाल छोड़ेगा। पशु केवल दो चीजें पहचानता है एक लोभ, दूसरा भय। दाना घास दिखाते हुए उसे ललचा कर कहीं भी ले जाइए वह आपके पीछे पीछे चलेगा या फिर लाठी का डर दिखाकर जिधर चाहें उधर ले जाया जा सकता है। भय या लोभ के द्वारा अज्ञानियों को कुमार्गगामियों को पशुओं को कुमार्ग से विरत और सन्मार्ग में प्रवृत्त कराया जा सकता है।

भय उत्पन्न करने के लिए दंड का आश्रय किया जाता है लोभ के लिए कोई ऐसा आकर्षण उसके सामने उपस्थित करना पड़ता है जो उसके लिए आज की अपेक्षा भी अधिक सुखदायी प्रतीत हो इसी प्रकार उसके सामने कोई ऐसा डर उपस्थित कर दिया जाय जिससे वह घबरा जाय और कुटेवों को छोड़ना उसे लाभदायक मालूम पड़े तो वह उसे छोड़ सकता है। नशेबाजी व्यभिचार आदि बुराइयों के दुष्परिणामों का बढ़ा चढ़ा कर बनाकर कई बार उस ओर चलने वालों को इतना डरा दिया जाता है कि वे उसे स्वयमेव छोड़ देते हैं। इस प्रकार के अत्युक्ति पूर्ण वर्णनों में यद्यपि असत्य का अंश रहता है पर वह इसलिए बुरा नहीं समझा जाता क्योंकि उसका प्रयोग सदुद्देश्य से किया गया है। इसी प्रकार किन्हीं सत्य कार्यों का अत्युक्ति पूर्ण रीत से बढ़ा चढ़ा कर बताया जाय तो उसमें कुछ दोष नहीं होता कारण कि- बाल बुद्धि लोगों को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने के लिए उस अत्युक्ति का सहारा लिया गया है। गंगा स्नान, तीर्थ यात्रा, ब्रह्मचर्य, दान आदि के अत्युक्ति पूर्ण महात्म्य हमारे धर्मग्रन्थों में भरे पड़े हैं। उन्हें असत्य ठहराने का दुस्साहस कोई विचारवान व्यक्ति नहीं कर सकता। क्योंकि आम जनता जिसमें बालबुद्धि की प्रधानता होती है बिना विशेष भय और बिना विशेष लोभ को उच्चता के कष्ट साध्य मार्ग पर चलने के लिए कदापि सहमत नहीं हो सकती। स्वर्ग का आकर्षक, आनन्द दायक दर्शन और नरक भयंकर रोमाँचकारी दुखदायी चित्रण इसी दृष्टि से किया गया है कि इस प्रबल लोभ या भय से प्रभावित होकर लोग अनीति का मार्ग छोड़कर नीति का मार्ग अपनावें। स्वर्ग नरक की इतनी अलंकारिक कल्पनायें रचने वालों को क्या हम झूठा ठहरावें? नहीं, यदि हम ऐसा करेंगे तो यह परले सिरे की मूर्खता होगी ।

संसार में अज्ञान ग्रस्त, स्वार्थी, नीच मनोवृत्तियों वाले बाल बुद्धि लोगों की कमी नहीं है। इनकी सेवा उनकी इच्छाएं पूर्ण करने में सहायक बनकर नहीं-वरन् बाधक बनकर ही जा सकती हैं। जो हर घड़ी गोदी में चढ़कर स्कूल जाने से जी चुराता है पैसे चुरा ले जाता है या और कोई कुटेव सीख रहा है उसके साथ उदारता बरतने, उसके कार्यों में सहायक होने का अर्थ तो उसके साथ शत्रुता करना होगा इस प्रकार तो वह बालक बिल्कुल बिगड़ जायेगा और उसका भविष्य अन्धकारमय हो जायेगा । कोई रोगी है-कुपथ्य करना चाहता है या सन्निपात प्राप्त होकर अंडबंड कार्य करने को कहता है उसकी इच्छा पूर्ति करने का अर्थ होगा- उसे अकाल मृत्यु के मुँह में धकेल देना। इस प्रकार के बालकों या रोगियों की सच्ची सेवा इसी में है कि वे जिस मार्ग पर आज चल रहे हैं जो चाहते हैं उसमें बाधा उपस्थित की जाय, उनका मनोरथ पूरा न होने दिया जाय। इस कार्य में सीधे-साधे तरीके से ज्ञान और विवेकमय उपदेश देने से कई बार सफलता नहीं मिलती और निस्वार्थ पुरुषों को भी असत्य या छल का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है। ऐसे असत्य या छल को निन्दित नहीं ठहराया जा सकता। रोगी या बालकों को फुसला कर उन्हें ठीक मार्ग पर रखने के लिए यदि झूठ बोला जाय, डर या लोभ दिखाया जाय, किसी अत्युक्ति का प्रयोग किया जाय तो उसे निन्दनीय नहीं कहा जायेगा।

आसुरी शक्तियाँ जब अत्यधिक प्रबल हो जाती हैं और उनको वश में करने के लिए सीधे-साधे तरीके असफल होते हैं तो काँटे निकालने की ‘शठे शाठयं समाचरेत्’ की-नीति अपनानी पड़ती है। सिंह, व्याघ्र आदि का पकड़ना या मारना-सीधे-साधे तरीके से नहीं हो सकता, उनके सामने आकर कुश्ती लड़ना या पकड़ लाना आदमी की शक्ति से बाहर है। जाल में फँसाकर छिपकर बन्दूक आदि हथियार का आश्रय लेकर ही उन्हें पकड़ा या मारा जा सकता है। मोटी दृष्टि से देखने में यह क्रियाएं छल, धोखेबाजी, कायरता पूर्ण आक्रमण कही जा सकती हैं पर विवेकवान पुरुष जानते हैं कि इसमें कुछ भी अनीति नहीं है। हिंसक जन्तुओं की भयंकर करतूतें, उनको रोकने की अनिवार्य आवश्यकता, एवं मनुष्य की अल्प शक्ति पर विचार करते हुए यह उचित प्रतीत होता है कि इन हिंसक जन्तुओं को जिस प्रकार से भी-छल बल से भी परास्त किया जा सकता हो तो वैसा भी निस्संकोच करना चाहिये।

प्राचीन इतिहास पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि इस नीति का अवलम्बन अनेक महापुरुषों को करना पड़ा है। धर्म की स्थूल मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ा है। इस उल्लंघन में उन्होंने लोकहित का, धर्मवृत्ति का, अधर्म विनाश का ध्यान अपनी पूर्ण सद्भावना के साथ रखा था इसलिये उनको उस पाप का भागी नहीं बनना पड़ा जो साधारण तथा धर्म मर्यादाओं के उल्लंघन करने पर होता है।

भस्मासुर ने जब यह वरदान प्राप्त कर लिया कि मैं जिस किसी के भी सिर पर हाथ रख दूँ वही भस्म हो जाय तो उसने महादेव जी को ही भस्म करने की ठानी ताकि सुन्दरी पार्वती को वह प्राप्त कर ले। भस्मासुर शंकर जी के शिर पर हाथ रखकर उन्हें भस्म करने के लिये उनके पीछे दौड़ा। शंकरजी अपने प्राण बचाकर भागे। विष्णु भगवान ने देखा कि वह भारी उलझन उत्पन्न हुई-असुर बलवान है, उसे परास्त करने के लिये छल का उपयोग करना चाहिये। वे पार्वती का रूप बनाकर पहुँचे और कहा-असुरराज! मैं आपको बड़ा प्रेम करती हूँ, आपके साथ रहना चाहती हूँ, पर एक बात मुझे शंकरजी की बहुत पसंद है वह है उनका नृत्य। आप भी यदि वैसा ही नृत्य कर सकें तो मैं इसी क्षण से आपके साथ चलने को तैयार हूँ। भस्मासुर बड़ा प्रसन्न हुआ वह पार्वती के साथ नृत्य करने लगा। नृत्य समय में उसने अपना हाथ अपने सिर पर रखा और स्वयं जल कर भस्म हो गया। विष्णु ने अपने छल बल से उस प्रचंड असुर को सहज ही नष्ट कर दिया।

समुद्र मंथन के बाद चौदह रत्न निकले। अन्य रत्न तो बँट गये पर अमृत के बटवारे पर भारी झगड़ा था। देवता और असुर दोनों ही इस बात पर तुले हुये थे कि-अमृत हमें मिलना चाहिये। विष्णु ने देखा कि ऐसे अवसरों पर छल का अचूक हथियार ही काम देता है। उन्होंने मोहिनी रूप बनाया, असुरों को लुभाया, अमृत बाँटने के लिये असुरों की ओर से प्रतिनिधि बने। देवताओं को सारा अमृत पिला दिया, असुर बगलें झाँकते रह गये। उन्होंने देखा कि हमारे साथ भारी विश्वासघात हुआ है पर मोहिनी रूपी विष्णु का उद्देश्य तो महान था असुरों के साथ छल और विश्वासघात करने का दोष उनको छू भी नहीं सकता था।

राजा बलि को धोखे में डालने के लिये वामन का छोटा सा रूप बनाकर साढ़े तीन कदम भूमि माँगना और भूमि नापते समय इतना विशाल शरीर बना लेना कि तीन कदम में ही सब कुछ माप लिया गया और आधे कदम के लिये बलि को अपना शरीर देना पड़ा। इसे स्थूल दृष्टि वाले क्या कहेंगे?

सती वृन्दा का सतीत्व नष्ट करने के लिये भगवान का जालन्धर का रूप बना कर जाना और उसका सतीत्व नष्ट करना, मोटे तौर से धर्म नहीं कहा जा सकता फिर भी यह इसलिये उचित था क्योंकि जालन्धर की मृत्यु यह किये बिना नहीं हो सकती थी। और जालन्धर ऐसा दुष्ट था कि उसके जीवित रहने से असंख्य प्रजा पर विपत्ति के पहाड़ टूट रहे थे।

राम ने वृक्ष की आड़ में छिप कर बलि को मारने में युद्ध के धर्म नियमों का स्पष्ट उल्लंघन किया। इसे क्या कहा जायेगा?

महाभारत में आइए-धर्मराज युधिष्ठिर का अश्वत्थामा की मृत्यु का छलपूर्ण समर्थन किया। अर्जुन ने शिखण्डी की ओट में खड़े होकर भीष्म को मारा, कर्ण के रथ का पहिया गढ़ जाने पर भी उसका वध किया गया। धड़ से नीचे का भाग घायल करना वर्जित होने पर भी भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा पर गदा प्रहार हुआ। क्या यह सब धर्म युद्ध के लक्षण हैं? पर वहाँ धर्म युद्ध के नियमों का बरतने का अवसर ही कहाँ था।

आपत्ति धर्म के अनुसार घोर दुर्भिक्ष पड़ने पर प्राण संकट में होने पर-अपने शरीर को लोकहित के लिये जीवित रखने की आवश्यकता अनुभव करते हुए-विश्वामित्र ऋषि, चांडाल के घर रात्रि में घुसकर कुत्ते का माँस चुराते हैं। चाँडाल उन्हें पकड़ लेता और चोरी करने के लिये ऋषि की भर्त्सना करता है। विश्वामित्र उसे सविस्तार समझाते हैं कि मूर्ख! तू धर्म को जितना स्थूल समझता है वह उतना स्थूल नहीं है। किसी महान उद्देश्य के लिये अधर्म करना भी धर्म ही है। इसी प्रकार एक बार अकाल पड़ने पर अपनी लोक हितैषी जीवन की रक्षा के लिये उषस्ति ऋषि को किसी अन्त्यज के झूठे उड़द खाकर अपने प्राण बचाने पड़े थे।

प्रह्लाद का पिता की आज्ञा उल्लंघन करना, विभीषण का भाई को त्यागना, भरत का माता की भर्त्सना करना, बलि का गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा न मानना, गोपियों का पर पुरुष श्रीकृष्ण से प्रेम करना, मीरा का अपने पति को त्याग देना, लौकिक दृष्टि से, धर्म की स्थूल मर्यादा के अनुसार यद्यपि अनुचित कहे जा सकते हैं, पर धर्म की सूक्ष्म दृष्टि से इसमें सब कुछ उचित ही हुआ है। परशुरामजी द्वारा अपनी माता का सिर काटा जाना भी इसी प्रकार औचित्य युक्त था।

हिन्दू धर्म के रक्षक छत्रपति शिवाजी द्वारा जिस प्रकार अफजलखाँ का वध किया गया, जिस प्रकार वे फलों की टोकरी में छिपकर बादशाह के बंधन में से निकल भागे-उसे भी कोई मूढ़मति लोग छल कह सकते हैं। भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश सरकार को उलटने के लिये जिस नीति को अपनाया था उसमें चोरी, डकैती, जासूसी, वेष बदलना, हत्या, कत्ल, झूठ बोलना, छल, विश्वासघात आदि ऐसे सभी कार्यों का उपयोग हुआ है जिन्हें मोटे तौर से अधर्म कहा जा सकता है। परन्तु विवेकवान व्यक्ति जानते हैं कि उनकी आत्मा कितनी पवित्र थी। अधर्म कहे जाने वाले कार्यों को निरन्तर करते रहने पर भी वे कितने बड़े धर्मात्मा थे। असंरक्षक दीन दुखी प्रजा की करुणाजनक स्थिति से द्रवित होकर, अन्यायी शासकों को उलटने का उन्होंने निश्चय किया था। कानून की पोथियों ने भले ही उन्हें दोषी ठहराया और उन्हें कठोरतम दंड दिये पर परमात्मा की दृष्टि में, धर्म के तत्व ज्ञान की कसौटी पर वे कदापि पापी घोषित नहीं किये जायेंगे। सुनते हैं कि सुलताना डाकू, तातियाँ डाकू, आदि भी अमीरों को लूट कर प्राप्त धन को गरीबों में बाँटते थे। इस प्रकार की भावनायें कानून के विपरीत होते हुए भी तात्विक दृष्टि से हेय नहीं हैं। राजनीति के नेता, युद्ध के सेनापति, सरकार के गुप्त गृह विभाग के कर्मचारी इस तथ्य को अपनी विचार धारा का प्रधान अंग मानकर कार्य करते हैं। यदि वे सत्य और निष्कपटता का स्थूल परिभाषा के अनुसार अपना कार्य करने लगें, तो उनका कार्य एक दिन भी चलना असंभव है।

इन सब बातों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे अन्तःकरण में सत्य, प्रेम, न्याय, त्याग, उदारता, संयम, परमार्थ आदि की उच्च भावनाओं का होना आवश्यक है, उनकी जितनी अधिक मात्रा हो उतना ही उत्तम है, पर संसार के उन व्यक्तियों के साथ जो अभी अज्ञान या पाप के ज्वर से बेतरह पीड़ित हो रहे हैं, काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। उनकी आत्मा का कल्याण हो, वे अनीति से छूटें, इस भावना के साथ यदि उन्हें भय या लोभ से प्रभावित करके सन्मार्ग पर लाया जा सके तो उसमें डरने की कोई बात नहीं है। चोर, डाकू, जेबकट, भ्रष्टाचारी, दुष्टात्मा लोगों के भेद छल करके यदि मालूम कर लिये जायं और उन्हें पकड़वा दिया जाय तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। ऐसे अवसरों पर हमें अपनी धर्मभीरुता को लोकहित की तुलना में पीछे ही रखना चाहिये। शास्त्र में ऐसे कितने ही वचन हैं जिनमें कहा गया है कि-सदुद्देश्य के लिये प्रयुक्त हुआ असत्य-दुर्भाव के लिये प्रयोग हुए सत्य की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। क्रिया की अपेक्षा भावना का ही महत्व अधिक है। यदि उच्च उद्देश्य के लिये निन्दित कार्य भी किया जाय तो उससे भी लोकहित ही होता है और वह भी धर्मकार्य के समान ही पुण्य फल प्रदान करता है।

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