बहुत संतान पैदा मत कीजिए

November 1948

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बढ़ती हुई भोगेच्छा, सौंदर्य रक्षा और आर्थिक विपत्ति से बचने के लिए पाश्चात्य देशवासियों ने सन्तति निरोध का प्रचार किया है। पाश्चात्यों की हमेशा नीति रही है कि वे भोगेच्छाओं को कम न करके उसे बढ़ाते रहें। और उससे उत्पन्न भयंकर परिणामों से बचने के लिए नये नये आविष्कार करें।

भारतवर्ष ने हमेशा ही संचय की शिक्षा दी है। यहाँ प्राणी के जीवन का उद्देश्य है आत्मा-प्राप्ति। खाओ, पिओ और मौज करो के विधान को भारत ने कभी स्वीकार नहीं किया। जीवन का उद्देश्य मनोरंजन नहीं आत्मा विकास है। भोग जीवन का अंग हो सकता है लेकिन जीवन पर भोग की सत्ता स्थापित करना भारत को कभी इष्ट नहीं रहा ।

विदेशों में जहाँ जीवन पर भोग का शासन है समाज में बड़ी अव्यवस्था है। वहाँ की राज्यक्रान्तियों और आर्थिक क्रान्तियों में सर्वत्र इन्हीं भोग देवता के दर्शन मिलते हैं। वहाँ मानव समाज भोग्य और भोक्ताओं में बंटा हुआ है। भोक्ता लोग उपभोग द्वारा एक समाज का शोषण करते हैं। वहाँ का व्यक्ति दूसरे शक्तिशाली व्यक्तियों के उपभोग का एक यंत्र मात्र है। यंत्र से अधिक उसकी कीमत नहीं है इसलिये वहाँ मानवता के लिए कोई गुँजाइश नहीं है। जहाँ मानवता की पूछ नहीं होती हो वहाँ भगवान के लिए स्थान मिलता तो कदापि संभव नहीं हो सकता। इस प्रकार की विषमताओं ने राग-द्वेष, क्रोध, संघर्ष, हिंसा, प्रतिहिंसा आदि वासनात्मक वृत्तियों को जन्म दिया है। मनुष्य, देव बनने की अपेक्षा असुर बनता जा रहा है। पशुता की और उनका झुकाव हो रहा है। आत्मा भुलाई जा रही है।

अपनी इसी भोग लिप्सा की पूर्ति के लिए बाधक रूप संतान को दूर करने के अनेक साधन निकाले गये हैं। ये समस्त साधन तीन प्रकार हैं। 1-शस्त्र क्रिया द्वारा गर्भाशय को निकलवा देना। 2-आच्छादन द्वारा वीर्य को गर्भाशय में जाने देने से रोकना। 3-रासायनिक प्रक्रिया द्वारा शुक्र कीटाणुओं का विनाश। संतति निरोध के इन साधनों का प्रयोग करने वालों पर स्नायविक, मानसिक एवं शारीरिक अनेक प्रकार की व्याधियों का आक्रमण होता है इसका अनुभव अनेक डाक्टरों ने किया है। और सामूहिक रूप से इसका विरोध करने लगे हैं।

भारत की संस्कृति में बाहरी निरोध के लिए कभी स्थान नहीं रहा। भारत में नारी की सार्थकता भोग से नहीं है, संतानोत्पादन से ही है। नारी की आत्मा का विकास करने में उसकी सन्तान का प्रमुख हाथ है। उससे उसमें अनेक सात्विक वृत्तियों की उत्पत्ति होती है। वात्सल्य, करुणा, मुदिता आदि सात्त्विक भावों के उद्रेक से ही मानव तमोगुण और रजोगुण की सीमाओं को लाँघता हुआ आत्मा को स्पर्श करता है। आत्मा स्पर्श का सुख भोग सुख से अनंत गुना अधिक और शाश्वत है।

गर्भाशय रहने के कारण ही नारी की अनेक पुरुषावृत्तियाँ दबी रहती हैं और कोमल वृत्तियाँ जो कि मानव के विकास क्रम में अधिक सहायक होती हैं, गर्भाशय और गर्भ धारण द्वारा ही विकसित होती हैं। गर्भाशय निकाल देने के अनन्तर नारी की दबी हुई पुरुषवृत्ति जाग्रत हो जाती है। ऐसी नारियों के दाढ़ी मूँछ निकल आते हैं और इस प्रकार वह अस्वाभाविकता के चक्कर में पड़ कर अपने स्वाभाविक विकास को खो देती है। भोग द्वारा उसके स्नायुविक तन्तु अधिक उत्तेजित होते हैं और उस पर उन्माद जैसे रोगों की आसानी से आक्रमण हो जाता है। रबड़ की थैली द्वारा संभोगेच्छा तृप्त करने वाली नारियाँ भी उन्माद और अपस्मार के चक्कर में फंस जाती है। अक्सर देखा जाता है कि जिन स्त्रियों के सन्तान नहीं होती उन्हें योषा अपस्मार जो कि मृगी या मूर्च्छा का एक घातक रूप है-हो जाता है। यह एक स्नायुजन्य रोग है जो कि उत्तेजना की प्रबलता के कारण होता है।

रासायनिक प्रयोगों द्वारा शुक्र कीटाणुओं का विनाश किन्हीं अन्य बीमारियों को उत्पन्न कर देते हैं साथ ही वे स्नायुजन्य रोगों को भी बल देते हैं।

भारत में जीवन के आरम्भ काल से शिक्षा दी जाती है संयम की। साथ ही जीवन में होने वाले प्रत्येक कार्य का लक्ष्य आत्मोपलब्धि है। यह स्मरण रखना भी बतलाया जाता है। इसीलिए जहाँ ब्रह्मचर्य का महत्व है, वहाँ स्त्री संभोग को भी एक यज्ञ बतलाया गया है। सृष्टि चक्र संचालन के लिए सन्तान की आवश्यकता है। वंश परम्परा की एवं वंश सूत्र की रक्षा करना पितृ यज्ञ माना जाता है। और पितरों के ऋण से उद्धार पाने का एक मात्र उपाय सन्तानोत्पादन है। काम प्रवृत्ति को अधिक से अधिक यज्ञमय एवं आत्मोपलब्धि में सहायक बनाने के लिए भारतीय संस्कृति विवाह की सृष्टि की गई। एक नारी सदा ब्रह्मचारी, की जनश्रुति भारत में सुप्रसिद्ध है। काम को या भोग-भावना को अधिक से अधिक संयत करके शक्ति को किस प्रकार आत्मोन्मुखी करना चाहिए, विवाह द्वारा मानव इसी पाठ को सीखता हैं यहाँ तक कि मानव के कल्याण के लिए विवाह एक आवश्यक संस्कार माना गया है। यह गृहस्थ जीवन का एक आवश्यक अंग है। और इसका अनुष्ठान करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत एक आवश्यक उपाय।

जीवन के प्रत्येक कार्य में भगवान की साक्षी रखकर उन्हीं की लीला में योग देने के लिए मनुष्य का प्रयत्न होना चाहिए। यही भगवान की सच्ची उपासना या आत्मोपलब्धि का साधन है। भोग इसी का एक अंग है। सन्तानोत्पादन के लिए ही स्त्री संभोग की प्रवृत्ति होनी चाहिए। संयम की इस पगडंडी पर चलने के लिए धर्म शास्त्रों में विभिन्न नियम उपनियमों की सृष्टि की गई है। अमावस, संक्रमित, पूर्वकाल आदि में जो स्त्री भोग की निन्दा और निषेध किया है उसमें संयम की भावना ही काम कर रही है। मास में एक बार वह भी जब सन्तान की इच्छा हो विधि विधान पूर्वक देवी भावना से युक्त होकर स्त्री संभोग की इजाजत दी गई है। और गर्भाधान हो जाने पर संभोग न करने का आदेश भी दिया गया है।

भोग पर संयम या नियंत्रण करने की बात का जो उल्लेख किया गया है वह उत्तेजना से बचने के लिए है क्योंकि अनुभवियों का कहना है कि काम का भोग करने से काम शमन नहीं होता जैसे अग्नि में घृत की आहुति देने से अग्नि प्रज्वलित ही होती है। इसीलिए खान-पान, आचार-व्यवहार सभी पर संयम की बात कही गई है। सन्तति निरोध के इस धार्मिक उपाय से सन्तान भी मिलती है, दिव्य भोगों की प्राप्ति भी होती है, आत्मा का विकास भी होता है साथ ही समाज में न किसी प्रकार की विश्रृंखलता उत्पन्न होती है और न अशान्ति। इसलिए भारतवासियों को अपने पद्धति से ही अपना उद्धार करना चाहिए। दूसरों की पद्धति चाहे कितनी ही लाभकारी दिखाई देती हो, वे भय और विनाश के देने वाली हैं, इसे कदापि न भूलना चाहिए और क्षणिक उत्तेजना में मनुष्य को पागल बन कर अपनी बुद्धि का विनाश न कर बैठना चाहिए।

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