आत्म पथ की ओर

November 1948

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(1) हो तुम भी सब जीवों के सम किन्तु कहाते हो सिर मौर। क्यों सुर करें प्रशंसा नर की? हे वर नर! कुछ कर तो गौर।। कारण-क्रिया प्रणाली निर्मल, भरा हुआ मन में शुचिज्ञान। हे पट! क्यों निज स्वाभाविक गति छोड़ कर रहे कुटिल पयान।।

(2) तुम स्वामी, तुम सृष्टा हो, तुम शुचि हो तुम हो निर्विकार। इस मनुष्यत्व के कर्मक्षेत्र को करो न कर्मठ! अस्वीकार।। फैला अज्ञान अविद्या का, घनघोर घटा सा अन्धकार। हे अंशुमान्! यह दूर करो, अपनी दैवी किरणें पसार।।

(3) हे लघुतम! तू ही है महान, तेरी संज्ञा सत् शिव सुन्दर। तू ज्योति पिण्ड, तू केन्द्र, बिन्दु तुझसे झरता अमृत निर्झर।। माया, ममता, आशा, तृष्णा, संकुचित स्वार्थ के चिरबंधन। कर टूक-टूक आगे आओ, पकड़ो समता का अवलम्बन।।

(4) परमार्थ मार्ग के पथिक बनो, ऊँचा रक्खो आदर्श लक्ष्य। असुरत्व पराजित करो वीर! जीते जगती का देव पक्ष।। पहचानो अपने आपे को, जिससे तुम सब कुछ सको जान। सत्संग करो, सद्ग्रन्थ पढ़ो, अपनाओ तप, दम, यज्ञ, दान।।

(5) सब आत्म-स्वरूप हमारे हैं, सब जग में अपना है निवास। अपने से भिन्न नहीं कोई, फैला दशदिश अपना प्रकाश।।

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*समाप्त*


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