सत्य धर्म को समझो और अपनाओ

November 1948

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(श्री शिवनारायण जी गौड़, नीमच)

धर्म रूढ़ियों में नहीं है- धर्म आचरण में है। नाम और रूप की बाह्य उपाधियाँ धर्म को छिपाये बैठी हैं, शब्दाडम्बर धर्म को आवृत किये हुए है, और भिन्न विचार धारा धर्म को छिन्न भिन्न किये हुए हैं। अब तो हम एक बार धर्म को समझ लेने का प्रयास करें। यदि हमने धर्म को निष्क्रिय हो जाने दिया, यदि हमने झूठे धर्म को सच्चा मानकर आचरण किया और अपने से भिन्न विचार वालों का व्यर्थ विरोध किया तो हमारी धार्मिकता कहाँ रहेगी, इसका विचार हमें करना पड़ेगा।

हम में से प्रत्येक की आँखों पर एक या एक से अधिक उपनेत्र (चश्मा) लगा हुआ है और प्रत्येक उपनेत्र में रंगीन काँच है। वस्तु की सफेदी हम देख ही नहीं सकते। सत्य का सूर्य ही इन रंगीनियाँ को एक वर्ण (श्वेत) कर सकता है, पर इतना साहस हो, तब न। सत्य की चकाचौंध हमें विचलित कर देती है और हम घर के कोने में ही काल्पनिक सूर्य की विच्छिन्न किरणों का अनुमान करते बैठे रहते हैं।

यदि ऐसा न होता तो हम धर्म को ऊपर ही ऊपर टटोलते क्यों रहते? इसी से तो एक ओर साम्प्रदायिकता को धर्म समझ लेते हैं और दूसरी ओर धर्म का तत्व आडम्बर में ढूँढ़ने लगते हैं आज हमारा धर्म या तो पुस्तकों में है या नारों में। सच्चा धर्म जो हृदय की वस्तु है कहीं दिखाई नहीं देता।

मेरा कथन कटुतम लग सकता है पर सत्य इससे भी अधिक कटु है। ऊपर ही ऊपर घूमने वाली हमारी दृष्टि सत्य से घबराती है, तभी तो हम वास्तविकता से आँखें मूँद कर नारों से कार्य लेने लगते हैं। धर्म का प्रतिपादन करते समय कितनी बार हमारी दृष्टि प्रत्यक्ष पर जाती है? धर्म का अक्षरशः पालन करने वाले हम समाज पर एक दृष्टि डालें तो प्रकट हो जाता है कि धर्म का स्थान रूढ़ियों ने ले लिया है।

अन्त में एक चिंता और चिन्तनीय विषय हमारे सामने बच रहता है धर्म की तात्त्विकता या वास्तविकता का। धर्म के व्यापक विचार को छोड़ कर उसके दो पहलुओं पर हम विचार कर लें। पहला है उसका श्रद्धा पक्ष और दूसरा आधार पक्ष श्रद्धा की दृष्टि से किसी को इन पर अपवाद नहीं मिल सकता कि प्रत्येक को सम्प्रदाय में ईश्वर या शक्ति विशेष पर श्रद्धा आधारित रहती है और व्यक्तिगत गुणों की भिन्नता रहने में अंश को कोई भिन्नता के कारण अधार्मिक माना जाता है।

दूसरा पहलू नैतिकता का है। सदाचार पर प्रत्येक धर्म जोर देता है और कुछ मौलिक सद्गुण प्रत्येक धर्म में प्रतिपात मिलते हैं इसमें भी किसी को विरोध का कारण नहीं दिखाई पड़ता।

परन्तु धर्म का एक तीसरा पहलू भी है जो धर्म की वास्तविकता न होते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति है। जिस प्रकार रूप की भिन्नता में वास्तविकता छिप जाया करती है, उसी प्रकार लुप्त इन बाह्यचारों में धर्म की मर्यादा सी हो जाती है और यही हमें अपने प्रचार का, अपने विरोध का या अपने मिथ्यारोपों का क्षेत्र मिलता है।

कुछ उदाहरण लें। एक आदमी चोटी रखता है दूसरा नहीं रखता। एक की डाढ़ी मूछों का कीर्तन विशेष प्रकार का होता है दूसरे का भिन्न प्रकार का। एक मौन या शाँत प्रार्थना करता है दूसरा चिल्लाकर। एक अमुक ढंग से बोलता है दूसरा दूसरे से। एक का अमुक तीर्थ स्थान है दूसरे का अमुक। ऐसी ही कुछ बातें अग्रभूमि में आ आकर हमारी आँखों में भिन्नता, विरोध और घृणा तक होते होते शत्रुता तक पहुँचा देती है। धर्म को हम भूल जाते हैं और इन आरोपों को चिपटाये रखने में ही अपनी धार्मिकता मानने लगते हैं। अपनी ओर से धर्म का पालन न करते हुए भी हम धार्मिक बने रह सकते हैं पर दूसरे के ऐसे उपदेश को हम नहीं सुन सकते। हम तो जन्म से ही प्रत्येक बात को मानते हैं और अमुक जाति में जन्म ले लेने से हमारी धार्मिकता तो स्वयं-सिद्ध हो ही जाती है चाहे हम धर्म का पालन करें या नहीं। संस्कृति का दावा हम जोरों से करते हैं पर आत्म संस्कार की हमें चिंता ही नहीं रहती और यह होता है केवल इसलिए कि हममें से प्रत्येक अपनी धार्मिकता को स्वतः सिद्ध मानकर चलता है। यदि हम थोड़ी भी अंतःदृष्टि कर लें तो ज्ञात होगा कि जिसे हम अपनी धार्मिकता मानते हैं वह तो हमारा अभिमान है। हमारे भय के विचार भूत बन जाया करते हैं उसी प्रकार हमारी धार्मिक अहंमन्यता धर्म का पालन कर हमारे मन्दिरों या नारों में आकर बैठ जाती है और उसी की पूजा-आराधना हम किया करते हैं। परन्तु देव के स्थान में दानव की-उपासना करने वाला क्या कभी फलीभूत हो सकता है। हमें बाहर से धर्म के नाश का डर लगा रहता है क्योंकि हमारे अन्दर कुछ भी नहीं है। जो घड़ा अन्दर से कच्चा है उसको बाहर का हल्का सा धक्का चूर-चूर कर देगा परन्तु हवा भरे हुए ब्लेडर को भारी दबाव (सीमित) भी नष्ट नहीं कर सकता है। हमारी आन्तरिक निर्बलता भय का रूप धारण किये हुए है और हम बाहरी शक्ति से अपना बचाव करना चाहते हैं बुद्ध को प्रचार के लिए सेवा की आवश्यकता नहीं थी न महावीर शंकर या नानक को, परन्तु हमारा धर्म इतना निर्बल हो गया कि हम तहखानों में छिपकर भी आशा नहीं कर सकते। निश्चय ही हमारी धार्मिकता में कहीं त्रुटि है अन्यथा चीन में चीन में हिन्दू धर्म (बौद्ध) धर्म असहाय नहीं, वर्मा व लंका में नहीं पर भारत में बन गया है। यह सब हुआ है हमारी आँतरिक निर्बलता के कारण- संख्या की नहीं आत्मिक। हमने धर्माचरण छोड़ दिया और अहंकार को विजय प्राप्त करने का अवसर देते रहे। धर्म की ओर न देखकर हमने धार्मिकता की ओर देखो, धर्माचरण की ओर न देखकर हमने धर्मग्रथों पर दृष्टि रखी और धर्म के तत्व पर विचार न करके फुटकर धार्मिक कृत्यों पर ध्यान दिया। यदि हमने सच्चा धर्म अपनाया होता तो संसार की कोई भी शक्ति हमारे धर्म को नष्ट नहीं कर सकती थी। धर्म ऐसी वस्तु नहीं जो शक्ति से नष्ट हो सके, धर्म ऐसे पदार्थ नहीं जो अधिक जनशक्ति से पराजित हो जाय। धर्म ऐसी छुई-मुई नहीं जो आलोचना या बुद्धिपरता से मुरझा जाए।

पर हमारे लिए तो धर्म आज भी-लज्जालू गृह वधू बना हुआ है जिसे हम बाहर की हवा भी लगने देना नहीं चाहते, जिसे बुद्धि की कसौटी पर कसना सबसे बड़ा अपराध समझते और मेल के लिए आगे बढ़ाना बलात्कार मानते हैं। हम भूल गये कि धर्म हमारी रक्षा करता है हमारा धर्म की रक्षा का दावा करना या तो शब्द प्रयोग मात्र है या मिथ्याभिमान। धर्मो रक्षति रक्षितः में रक्षित का अर्थ लाठी से रक्षित न होकर व्यवहारतः आचरित से है। धर्म का रक्षण उसका आचरण ही है और तभी वह हमारी रक्षा करता है। लाठी से रक्षित धर्म केवल धोखा है, स्वतः, धर्म के साथ विश्वास घात है।

जब हम बल से किसी को गुलाम नहीं रख सकते तो बल से धर्म को लाद सकना तो और असम्भव है। धर्म आत्मा का गुण है और आत्मा किसी भी बंधन से परे है। न तो बल से धर्म प्रचारित होता है न शक्ति किसी को धार्मिक ही बना सकती है। वर्षों से चले आते दण्ड-विधान आज तक सम्पूर्ण जनता को निर्दोष न बना सके परन्तु प्रेम से प्रचारित बौद्ध धर्म आज भी दूर दूर विस्तृत है।

अन्ततः अमृत की सन्तान। तुम्हें एक ही कार्य करना है और वह है वास्तविक धर्म को समझ कर उसके अनुसार आचरण करना। वास्तविक धर्म यदि कोई हो सकता है तो वह है सत्य, प्रेम, दया, मानवता। शब्दों को संक्षिप्त करना हो तो हम कई धार्मिक तत्वों को दो में सन्निहित कर सकते हैं, वे हैं सत्य और अहिंसा यही मानवता है, यही मानव धर्म है, विश्व बंधुत्व है और विचार करने पर मनु -प्रतिपादित दश लाक्षणिक धर्मः-

धृतिः क्षमा दयोऽक्तेयं शौचमिद्रिय -निग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।

सत्य और अहिंसा या मानवता के अतिरिक्त और क्या है? अमृत संतान ? सत्य धर्म को समझो और उसी का आचरण करो।

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