हमारी दुर्बलता का कारण

November 1948

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सबसे अधिक अपनी कमजोरी और अपनी हीनता ही दिखाई देती है। कमजोरी और हीनता का दिखाई देना तो बुरा नहीं है। पर उन सबको अपने सिर थोपे रहना मानव को उसकी वास्तविकता से दूर कर देता है। निराशा में यदि स्फूर्ति होती है। तो वह उन अवास्तविक तत्वों को दूर करने की ओर प्रवृत्त होता है। पर यदि स्फूर्ति न हुई और अवसाद से घिर गया तो ये समस्त अवास्तविक कल्पनायें उसे ग्रस जाने के लिए तत्पर रहती हैं।

संसार में न तो पाप है और न पुण्य। पाप पुण्य की सृष्टि तो व्यक्ति स्वयं ही करता है। जो जितना अवास्तविकता की ओर चलता है उसे उतना ही पाप दिखाई देता है और फिर वह सब उसके जीवन में समाता हुआ चला जाता है। इसी प्रकार जो जितना वास्तविकता की ओर चलता है वह पाप से अर्थात् अवास्तविकता से दूर हटता जाता है। वस्तुतः आत्मतत्व की विलगता ही पाप है। परन्तु वह एक कल्पना मात्र है। जीवन के प्रत्येक क्षण में आत्मतत्व झलकता रहता है और जब वह उदित होता है और उस पर आवरण डालने का प्रयत्न किया जाता है तभी तभी उससे दूर हट जाने की नौबत आ जाती है।

दुर्बलता का दूसरा नाम ही अभाव है। जहाँ भाव ही भाव है वहाँ अभाव की सत्ता हो ही कैसे सकती है। अभाव लक्षित होता है कब? जब हम भाव की ओर से पीठ फेर कर खड़े हो जाते हैं यही आत्म विस्मृति कहलाती है। आत्मा अपने आपको कभी भूल सकता ही नहीं है तब आत्म विस्मृति कैसी? स्वयं में अपने आपको भूलने का गुण न होते हुए उसे मूर्च्छित करके भुलावे में डालने का प्रयत्न तो किया ही जाता है। जैसे-2 आत्मा की मूर्च्छना बढ़ाई जाती है वैसे-वैसे ही आत्म विस्मृति बढ़ती जाती है। और यही कारण है कि व्यक्ति अपनी वास्तविक शक्ति को स्थिर रख नहीं पाता। चारों ओर भूला-भटका डोलता है और अपने लिए दैन्य और निराशा का खोल तैयार करता रहता है। मन एवं प्राण में अनेक भ्रमात्मक धारणायें भरती हैं और व्यक्ति असत्-विनाश की ओर अग्रसर होता रहता है।

स्वरूप का अज्ञान ही वास्तव में मानव की विपत्ति का घर है, दुर्बलता का उत्पादक है। अज्ञान में तामसिकता रहती है, जड़ता रहती है। पत्थर जड़ है। चेतना सम्पूर्ण रूप से मूर्च्छित है। मनुष्य जब सो जाता है तब चेतना मूर्च्छित रहती है बाह्य जगत में चारों ओर अज्ञान छाया रहता है। वास्तव में अज्ञान कोई वस्तु या तत्व थोड़े ही है। सुषुप्तज्ञान ही अज्ञान कहा जाता है। ज्ञान का नाश नहीं होता । इसलिए ज्ञान का जागरण दुर्बलता को हटाने की कुर्सी है।

आत्मा पूर्ण है, आनन्दमय है, इसलिए अभाव के लिए उसमें गुंजाइश है ही नहीं। जो व्यक्ति आत्मनिष्ठ होते हैं उनमें पूर्णता भरी रहती है वे तो नित्य ही शान्ति का अनुभव करते हैं। अनुभवी ऋषि कहते हैं

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा

स्तेषाँ शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्।

जो अपने को आत्म में स्थित देखता है उसी को शाश्वत शान्ति मिलती है।

कौन देख सकता है अपने को आत्मा में स्थित? जो कि आत्मा को जानता है और जो अपने को अपने को आत्मा के प्रति खुला रखता है। आत्मा की ओर का दरवाजा बन्द रखता है उसे आत्मा का साक्षात्कार होता है वह है अभाव, वह है अज्ञान।

जिसे भूल गये हैं उसी की जानकारी तो ज्ञान है। भूलने को ही अज्ञान कहते हैं। आत्मतत्व को भूलकर-‘स्व’ को छोड़कर जब व्यक्ति अपनी दृष्टि बाहर की ओर ले जाता है और बाहर सर्वत्र उसे विजातीयता का मान होता है। वह अपने को उस अभाव का ही बना समझने लगता है। वह भूल जाता है कि आत्म तत्व का विस्तार ही बाह्य जगत है जो अन्दर है उसका कुछ अंश ही बाहर है। यह भूल ही उसका अज्ञान है।

चतुर्विध पुरुषार्थ की सृष्टि का मुख्य हेतु अज्ञान को खत्म करना है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थ गिने जाते हैं। जब अज्ञान का साम्राज्य होता है तब अर्थ और काम का बोलबाला होता है। अर्थ का अभाव और काम की व्यापकता मानव में दैन्यता का संचार करती है। व्यक्ति की आवश्यकतायें बढ़ने लगती हैं, वासनायें बढ़ने लगती हैं उन सबको प्राप्त करना या चरितार्थ करना व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के बाहर समझता है। निराशा उसके चारों ओर फैल जाती है दीनता बढ़ जाती है। यदि उसमें स्मृति रहे, ज्ञान रहे तो वह अपने पहले साथी को-प्रथम पुरुषार्थ को भी अपने साथ रखता है। वह अर्थ और काम में धर्म को साझीदार बनाये रखता है। उसका कोई कार्य धर्म को स्पर्श के बिना नहीं होता है तब अर्थ और काम उस पर हावी नहीं होते बल्कि इनमें भी वह आत्म-ज्योति को व्याप्त करता हुआ अन्तिम पुरुषार्थ की ओर कदम बढ़ाता है इस समय वह इनका नियन्ता होता है वह इनका उपभोक्ता होता है भोग नहीं।

धर्म का साथ छोड़ देने पर व्यक्ति अर्थ और काम के शिकार हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि धर्म मानव को अज्ञान से दूर रखता है। बल्कि कदम कदम पर उसका साक्षात्कार कराता चलता है संसार का एक भी दृश्य ऐसा नहीं होता जिसमें व्यक्ति अपनी पूर्णता, सम्पन्नता का दर्शन न करे बल्कि इसकी उच्चावस्था मनुष्य को यह मानने के लिए बाध्य कर देती है कि यह सब उसी का विस्तार है उस अपने से ही बनाई हुई इस दुनिया में अवगाहन करता हुआ भी वह उसमें लिप्त नहीं होता और उसे चतुर्थ पुरुषार्थ की सिद्धि मिल जाती है। तब वह ‘जीवन्मुक्त’ कहलाता है।

अज्ञान साम्राज्य के कारण मानव भोग में लिप्त हो जाता है। मानव समझता है कि वह उनका भोग कर रहा है पर होता ऐसा नहीं है, भोग स्वयं ही उस मानव का भोग करते हैं। यहाँ तक वे उसे अपने अधीन कर लेते हैं कि उनका अभाव अनुभव होते ही मनुष्य का जिन्दा रहना भी दूभर हो जाता है। पर वह यह भूला रहता है कि इसका कारण भोग के अधीन होना है, धर्म के आश्रय को छोड़ देना है।

धर्म का तात्विक अर्थ ही है-धारण करना धारण करना किसका? आत्मभाव का। अर्थ और काम बाह्य जगत का रूप हैं। बाह्य जगत में रहते हुए आत्म भाव को किस प्रकार धारण किये रह सकते हैं धर्म साधना से इस पद्धति का ज्ञान रहता है और वह व्यक्ति

तरति शोकं तरति पापानं गुहा ग्रन्थिभ्यो विमक्तोऽमृते भवति

शोक से तर जाता है, पाप से तर जाता है हृदय प्रविष्ट अज्ञान रूपी ग्रन्थि से मुक्त होकर आत्म भाव को प्राप्त हो जाता है, अमृत हो जाता है।

तात्पर्य यही है कि आत्म भाव से हटते ही अर्थ और काम की प्रधानता होने पर मानव चारों ओर से दुःख और शोक से घिर जाता है इसलिए उससे बचने का उपाय धर्म की ओर अपने आप को खोल देना है अर्थात् आत्म तत्व को अपने अन्दर बसा लेना है। बसा लेना नहीं, क्यों कि वह बसा हुआ तो है ही, जागृत कर लेना है। बाहर भीतर ऊपर नीचे चारों ओर उसी का दर्शन करना है। आत्म तत्व का दर्शन करना निरन्तर आत्मा में ही वास रखना मानव की अभाव जनित समस्त दुर्बलताओं को मार भगाता है। वह बली हो जाता है और जगह-जगह आत्म विस्तार करता हुआ वह अपने आस पास के दुर्बलों को भी सबल बनाता हुआ अपनी जीवन लीला का संचालन करता है।

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