इन सम्पत्तियों का सदुपयोग कीजिए

November 1948

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(श्री श्यामलाल गुप्त वैद्य, भरथना)

मनुष्य प्राणी की रचना परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। प्रभु ने इस रचना में चुन चुन कर वह ईंट चूना लगाया है जो उसकी दृष्टि में सर्वोत्तम जँचा। वैज्ञानिक हैरान हैं कि फोटोग्राफी का कोई इतना उत्तम ‘लैन्स’ बना पावे जैसा कि मनुष्य के नेत्रों में लगा हुआ है। फोटोग्राफी के विशेषज्ञ प्रो0 हैरिच का कथन है कि यदि मनुष्य की आँखों जैसा उत्तम ‘लैन्स’ बन सका तो इसकी कीमत कम से कम दस लाख रुपया होगी। इसी प्रकार कान के पर्दे आवाज के पहचानने में जितना स्पष्ट अन्तर कर सकते हैं उतना कोई भी ध्वनि प्रस्तारक या ध्वनि ग्राहक यंत्र नहीं कर सकता। टेलीफोन और रेडियो द्वारा ध्वनि का स्थूल अंश ग्रहण किया जाता है और उसके द्वारा जो ध्वनि सुनाई देती है उसमें बारीकियों को पहचानना कठिन होता है। जब तक यह न बताया जाय कि ‘कौन बोल रहा है’ तब तक केवल मात्र टेलीफोन की ध्वनि के आधार पर कुछ अन्दाज नहीं लगाया जा सकता। पर हमारे कान इन बारीकियों को भले प्रकार अनुभव करते हैं। और अन्धे भी यह बता देते हैं कि अमुक व्यक्ति बोल रहा है। ध्वनि विशेषज्ञ डॉ0 रेमकोज का कथन है कि मनुष्य के कान जैसा शुद्ध ध्वनि क्षेपक यंत्र बनाने में विज्ञान को सफलता नहीं मिली। पर ऐसा यंत्र यदि बन सका तो उसका मूल्य डेढ़ करोड़ रुपये से कम न होगा।

इसी प्रकार अन्य दसों इन्द्रियों के संबंध में समझना चाहिए। अमेरिका में मनुष्य जैसा काम करने वाली मशीनें बनी हैं इनकी कीमत लाखों रुपये है फिर भी वे बहुत थोड़े काम कर सकती हैं। मशीन मानव, असली मनुष्य की तुलना में, इस हजारवाँ भाग मात्र है। मानव प्राणी के मस्तिष्क में की रचना को देख कर तो आज विज्ञान-जगत दाँतों तले उंगली दबा जाता है। ऐसे अद्भुत यंत्र की रचना करने के लिए सोचने तक का उनमें साहस नहीं होता। इतनी महत्ता तो इस स्थूल शरीर की है फिर मानव प्राणी के अन्दर जो अनंत आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी पड़ी हैं उनके बारे में तो कहा ही क्या जाय?

इससे स्पष्ट है कि परमात्मा ने मनुष्य प्राणी की रचना में सर्वोत्तम तत्वों का प्रयोग किया है। इसे सर्वांगपूर्ण बनाने में उसने किसी प्रकार की कोर कसर नहीं रखी है। शरीर मस्तिष्क, मन और मनोवृत्तियाँ

सभी तो उसने अद्भुत बनाई हैं। इतनी अद्भुत इतनी महत्वपूर्ण इतनी महान कि उनकी श्रेष्ठता के बारे में कुछ कहते नहीं बनता।

मनुष्य को अनेक प्रकार की मनोवृत्तियाँ जन्म से ही दी गई हैं, वे सब इतनी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं कि यदि उनको ठीक प्रकार से प्रयोग में लाया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अत्यन्त सुख शान्ति पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है। पर हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश लोग उनका सदुपयोग करना नहीं जानते और उन्हें बुरे मार्ग में खर्च करके अपने लिए तथा दूसरों के लिए दुखों की सृष्टि करते हैं।

हम देखते हैं कि कई मनोवृत्तियों की संसार में बड़ी निन्दा होती है। कहा जाता है कि यह बातें पाप और दुख की जड़ हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को जी भर कोसा जाता है और कहा जाता है कि इन्हीं के कारण संसार में अनर्थ हो रहे हैं इसका विचारवान पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं।

यदि काम बुरी वस्तु है, त्याज्य है, पाप मूलक है तो उसका उपयोग न तो सत्पुरुषों को ग्राह्य हो सकता था और न बुरी बात का अच्छा परिणाम निकला सकता था। परन्तु इतिहास दूसरी ही बात सिद्ध करता है। ब्रह्म, विष्णु, महेश विवाहित जीवन व्यतीत करते हैं, व्यास, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवलक्य, भारद्वाज, च्यवन आदि प्रायः सभी प्रधान ऋषि सपत्नीक रहते हैं। और संतानोत्पादन करते हैं। दुनिया में असंख्य पैगम्बर, ऋषि, अवतार, महात्मा, तपस्वी, विद्वान, महापुरुष हुए हैं, यह जब किसी न किसी माता पिता के संयोग से ही उत्पन्न हुये थे। यदि काम सेवन बुरी बात है तो उसके साथ उत्पन्न हुए बालक को बुरे ही होने चाहिए। बुरे से अच्छे की सृष्टि कैसे हो सकती है? कालोच से सफेदी कैसे निकल सकती है? इन बातों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है, काम स्वयं कोई बुरी वस्तु नहीं है। परमात्मा ने अपनी सर्वश्रेष्ठ वृत्ति मनुष्य में कोई बुरी बात नहीं रखी, काम भी बुरी वस्तु नहीं है, बुरा केवल काम का दुरुपयोग है । दुरुपयोग करने से तो अमृत भी विष बन सकता है। पेट की सामर्थ्य से बाहर अमृत पीने वाले को भी दुख ही भोगना पड़ेगा।

क्रोध के ऊपर विचार कीजिये। क्रोध एक प्रकार की उत्तेजना है जो आक्रमण करने से पूर्व, छलाँग मारने से पूर्व आनी अत्यन्त आवश्यक है। लम्बी, छलाँग कूदने वाले को पहले कुछ दूर से दौड़ कर आना होता है, तब वह लम्बा कूद सकता है यदि यों ही शान्त खड़ा हुआ व्यक्ति अचानक छलाँग मारना चाहे तो उसे बहुत कम सफलता मिलेगी। अपने भीतर घुसी हुई तथा फैली हुई बुराइयों से लड़ने के लिए एक विशेष उत्साह की आवश्यकता होती है और वह उत्साह क्रोध द्वारा आता है। यदि क्रोध तत्व मानव वृत्ति में से हटा दिया जाय तो बुराइयों की प्रतिकार नहीं हो सकता। रावण, कंस, दुर्योधन, हिरण्यकश्यपु, महिषासुर जैसों के प्रति यदि क्रोध की भावनाएं न उत्पन्न होती तो उनका विनाश कैसे होता? भारत में यदि अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक क्रोध न उभरता तो भारत माता आज स्वाधीन कैसे हुई होती? अत्याचारों के विरुद्ध क्रोध न आता तो परशुराम कैसे अपना फरसा संभालते? महारानी लक्ष्मी बाई, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी जैसे आदर्श नर रत्नों की सृष्टि कैसे होती? अधर्म की बढ़ोत्तरी से कुपित होकर ही भगवान पापों का संहार करते हैं। इससे प्रकट है कि क्रोध बुरा नहीं है। क्रोध का अनुपयुक्त स्थान पर दुरुपयोग होना ही बुरा है।

लोभ की लीजिये। उन्नति की इच्छा का लाभ ही लोभ है। स्वास्थ्य, विद्या, धन, प्रतिष्ठा, पुण्य, स्वर्ग, मुक्ति, आदि की लोभ ही मनुष्य को क्रिया शील बनाता है। यदि लोभ न हो तो न किसी प्रकार की इच्छा ही उत्पन्न होगी और इच्छा के अभाव में उन्नति के लिए प्रयास करना भी न हो सकेगा। फलस्वरूप मनुष्य की कीट पतंगों की तरह भूख और निद्रा को पूर्ण करते हुए जीवन समाप्त कर ले। लोभ उन्नति का मूल है। पहलवान, विद्यार्थी, व्यापारी, किसान, मजदूर, लोक सेवी, पुण्यात्मा, ब्रह्मचारी, तपस्वी, दानी, सत्संगी, योगी सभी अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार लोभी हैं जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता है, जो जिस वस्तु का संचय करने में लगा हुआ है उसे उस विषय का लोभी कहा जा सकता है अन्य लोभों की भाँति धन का लोभ भी बुरा नहीं है। यदि बुरा है तो भामाशाह का, जमना लाल बजाज का धन संचय भी बुरा कहा जाना चाहिए, परन्तु हम देखते हैं कि इनके धन संचय द्वारा संसार का बड़ा उपकार हुआ। और भी अनेकों ऐसे उदार पुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने धन को सत्कार्य में लगा कर अपनी कमाई को सार्थक बनाया। ऐसे लोभ में और निर्लोभता में कोई अन्तर नहीं है। निन्दा तो उस लोभ की की जाती है जिसके कारण अनीतिपूर्वक अनुचित धन संचय करके उसको कुवासनाओं की पूर्ति में व्यय किया जाता है, जोड़ जोड़ कर अनुपयुक्त अधिकारी के लिए छोड़ा जाना है। लोभ का दुरुपयोग ही बुरा है वस्तुतः लोभ वृत्ति की मूल भूत रूप से निन्दा नहीं की जा सकती।

मोह का प्रकरण भी ऐसा ही है। मोह के कारण माता अपने बच्चों को पालती है यदि प्राणी निर्माही हो जाय तो माताएं अपने बच्चों को कूड़े कचरे के ढेर में फेंक आया करें, क्योंकि इन बालकों से उनको लाभ तो कुछ नहीं उल्टी हैरानी ही होती है। फिर मनुष्य तो यह भी सोच ले कि बड़ी होने पर हमारी सन्तान हमें कुछ लाभ देगी, पर बेचारे पशु पक्षी तो यह भी नहीं सोचते, उनकी सन्तान तो बड़े होने पर उन्हें पहचानती तक नहीं, फिर सेवा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। रक्षा की सभी क्रियाएं मोह के कारण होती हैं। शरीर का मोह, यश का मोह, प्रतिष्ठा का मोह, कर्त्तव्य का मोह, स्वर्ग का मोह, साधना सामग्री का मोह यदि न हो तो निर्माण और उत्पादन न हो और रक्षा की व्यवस्था भी न की जा सके। ममता का भाव न रहे तो “मेरा कर्तव्य” भी न सोचा जा सकेगा “मेरी मुक्ति-मेरा कल्याण” भी कौन सोच सकेगा? अपनी संस्कृति अपनी देशभक्ति को भी लोग भुला देंगे। एक दूसरे प्रति प्रेम का बंधन कायम न रह सकेगा और सब लोग आपस में उदासीन की तरह रहा करेंगे। क्या ऐसा नीरस जीवन जीना कोई मनुष्य पसंद कर सकता है? कदापि नहीं। मोह एक पवित्र शृंखला है जो व्यष्टि को समष्टि के साथ, व्यक्ति को समाज के साथ, मजबूती से बाँधे हुए है यदि यह कड़ी टूट जाय तो विश्व मानव की सुरम्य माला के सभी मोती इधर उधर बिखर कर नष्ट हो जायेंगे। मोह का अज्ञान जनित रूप ही त्याज्य है। उसके दुरुपयोग की भर्त्सना की ही जाती है।

इसी प्रकार मद, मत्सर, अहंकार आदि निंदित वृत्तियों के बारे में समझना चाहिए। परमात्मा के प्रेम में झूम जाना सात्विक मद है, क्षमा करना, भूल जाना, अनावश्यक बातों की ओर उपेक्षा करना एक प्रकार का मत्सर है, आत्मा ज्ञान को, आत्मानुभूति को, आत्म गौरव को अहंकार कहा जा सकता है। इस रूप में यह वृत्तियाँ निन्दित नहीं हैं इनकी निन्दा तब की जाती है जब यह संकीर्णता पूर्वक, तुच्छ स्वार्थों के लिए, स्थूल रूप में प्रयुक्त होती हैं।

मानव प्राणी, प्रभु की अद्भुत कृति है, इसमें विशेषता ही विशेषता भरी है, निन्दनीय एक भी वस्तु नहीं है। इन्द्रियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग हैं उनकी सहायता से हमारे आनन्द में वृद्धि होती है तथा उन्नति में सहायता मिलती है, पुण्य परमार्थ का लाभ होता है। पर यदि इन इन्द्रियों को उचित रीति से प्रयुक्त न करके उनकी सारी शक्ति अत्यधिक, अमर्यादित भोग भोगने में खर्च कर डाली जाय तो इससे नाश ही होगा।, विपत्तियों की उत्पत्ति ही होगी। इसी प्रकार काम क्रोध, लोभ, मोह आदि की मनोवृत्तियाँ, परमात्मा ने आत्मोन्नति तथा जीवन की सुव्यवस्था के लिए बनाई हैं, इसके सदुपयोग से हम विकास पथ पर अग्रसर होते हैं। इनका त्याग पूर्ण रूप से हो नहीं सकता। जो इनको नष्ट करने का पूर्णतया त्याग करने की सोचते हैं वे ऐसा ही सोचते हैं जैसे कि आँख, कान, हाथ, पाँव आदि काट देने से पाप न होंगे या सिर काट देने से बुरी बातें न सोची जायेंगी। ऐसे प्रयत्नों को बालबुद्धि का उपहासास्पद कृत्य ही कहा जा सकेगा। प्रभु ने जो शारीरिक और मानसिक साधना हमें दिये हैं वे उसके श्रेष्ठ वरदान हैं, उनके द्वारा हमारा कल्याण ही होता है। विपरीत का कारण तो हमारा दुरुपयोग है। हमें चाहिए कि अपने प्रत्येक शारीरिक और मानसिक औजार के ऊपर अपना पूर्ण नियंत्रण रखें, उनसे उचित काम लें, उनका सदुपयोग करें। ऐसा करने से जिन्हें आज निंदित कहा जाता है, शत्रु समझा जाता है कल वे ही हमारे मित्र बन जाते हैं। स्मरण रखिए प्रभु ने हमें श्रेष्ठ तत्वों से बनाया है, यदि उनका दुरुपयोग न किया जाय तो जो कुछ हमें मिला हुआ है हमारे लिए सब प्रकार श्रेयष्कर ही है। रसायन शास्त्री जब विष का शोधन मारण करके उससे अमृतोपम औषधि बना लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि विवेक द्वारा वह अमूल्य वृत्तियाँ जो आमतौर से निंदित समझी जाती हैं, सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली न बन जायं।

आदमी की सबसे भारी भूल यही है कि वह सोचता है कि कुदरती वह कमजोर और पापी है। किन्तु सत्य यह है कि प्रकृति से मानव दिव्य है। जो पापी और बलहीन होती हैं, वह उसकी आदतें हैं, उसकी इच्छायें हैं और विचारधारा हैं। वह स्वयं पापी और बलहीन कभी नहीं हो सकता।

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