क्यों खाएं? कैसे खाएं?

November 1948

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भोजन का मुख्य उद्देश्य जीवन रक्षा है लेकिन आजकल जीवन को ताक में रखकर भोजन का उपयोग किया जाता है। भोजन की स्वाभाविकता भी विलीन होती जाती है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि जहाँ मनुष्य अन्न को खाकर सौ वर्ष तक जिन्दा रहता था यहाँ भोजन मनुष्य को खा रहा है और उसकी औसत आयु 22 वर्ष रह गई है।

जैसा मिले अन्न वैसा बने मन। यह जनश्रुति प्रसिद्ध है। अन्न की अच्छाई का सम्बन्ध उसके गुणों से है, उसकी जीवनी शक्ति से है। देखा जाता है कि अन्न को आँच पर पकाने या ज्यादा आँच देने से उसकी जीवनी शक्ति या तो कम हो जाती है, या नष्ट हो जाती है। तब ऐसा अन्न को खाने से शरीर के पाचक यंत्रों को पचाने वाली क्रिया करनी पड़ती है पूरी लेकिन शक्ति मिलती हैं थोड़ी। इसलिए पाचक यंत्र धीरे धीरे शक्तिहीन होने लगते हैं अन्त में जाकर काम करना बन्द कर देते हैं।

ज्यादा गर्मी पहुँचने से अन्न के जो कोमल अवयव होते हैं और जिनमें प्राण शक्ति रहती है वे जल जाते हैं वह बात बिजली की आटा चक्की के पिसे हुए आटे से भली प्रकार समझी जा सकती है। उससे पिसे हुए ताजे आटे की गर्मी इतनी होती है कि वहाँ हाथ लगाने पर वह जलना शुरू हो जाता है। जब कि उसी अन्न को हाथ की चक्की से पीसे जावे तो आटे की गरमी नहीं के बराबर होती है, जीवनी शक्ति सम्पूर्ण रूप से उसमें रहती है। देहात और शहर के निवासियों के स्वास्थ्य और जीवनी शक्ति का यदि परीक्षण किया जावे तो देखा जावेगा कि जहाँ शहरी हवा नहीं लगी है, वहाँ बिजली की या पानी की चक्कियाँ नहीं पहुँची हैं। जहाँ भोजन की स्वाभाविकता नष्ट नहीं हुई है, वहाँ कम उम्र में मृत्यु नहीं होती, वहाँ बीमारियाँ आसानी से आक्रमण नहीं कर पातीं और उनका स्वास्थ्य शहर वालों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहता है।

भोजन के वास्तविक स्वाद को नष्ट कर उसे कृत्रिम रूप से स्वादिष्ट बनाने के लिए मसलों का उपयोग भी इन दिनों अधिक होने लगा है। नमक, मसाले आदि अनाज को तीक्ष्ण और उग्र बना देते हैं जिसके कारण शरीर में आवश्यकता से अधिक ऊष्मा उत्पन्न हो जाती है। यह ऊष्मा शरीर के कार्यकारी संस्थानों को उत्तेजित कर देती जिसके कारण वीर्य में ऊष्मा उत्पन्न हो जाती है और वह अस्थिर हो जाता है। वीर्य की अस्थिरता से मन में भी उत्तेजना आती है और शक्ति की बर्बादी आरम्भ हो जाती है। पाचक क्रिया का शिथिल होना, ऊष्मा की वृद्धि से आंखों की रोशनी का ह्रास, रक्त की गति और दबाव में अधिकता या कमी और ज्ञान तन्तुओं की मूर्च्छना से पक्षाघात (लकवा) जैसे रोग उत्पन्न होकर मनुष्य की जीवनी शक्ति को क्षीण कर देते हैं। यदि मनुष्य संयम से काम ले, अपनी जीभ को काबू में रखे, कृत्रिम स्वाद की अपेक्षा स्वाभाविकता की उपासना करें तो जहाँ भोजन से मन की शुद्धि और बुद्धि का विकास होता वहाँ आयु की वृद्धि और रोगों का विनाश भी होगा।

मनुष्य का स्वाभाविक भोजन वह है जिसे प्रकृति स्वयं पकाती है और जिसे कृत्रिम उपायों द्वारा तैयार नहीं करना पड़ता है। मेवा, फल, दूध कन्द-मूल तथा शाक ऐसे आहारों में से प्रमुख है। सुना होगा कि प्राचीन काल में ऋषि मुनि वनों में रहते थे, वे लोग बड़ी बड़ी गायें रखते थे। उनके पास के वन, फल-फूल तथा कन्द मूलों से भरे रहते थे। इन्हें खाकर के वे न सिर्फ दीर्घ जीवी होते थे बल्कि नीरोग, बुद्धिमान तथा विद्वान होते थे। ऐसे ऋषि, मुनि, गृह त्यागी नहीं होते थे, गृहस्थ होते थे। गृहस्थ जीवन बिताते थे। उनका संयम और उनका जीवन आज के मानव के लिए न सिर्फ उपदेश-प्रद बल्कि आदर्श है। यह कल्पना नहीं है, यह प्रत्यक्ष सत्य है। जो इसका प्रयोग करेगा वह देखेगा कि उसके जीवन में कितनी शान्ति, कितना आनन्द बढ़ गया साथ ही स्फूर्ति और जीवनी शक्ति कितनी बढ़ गई हैं

शाक सब्जी तथा अनाज आदि में जीवन के लिए जिन जिन रसों की जितनी जितनी आवश्यकता है वे भरे हुए हैं पर उन्हीं अग्नि द्वारा सिद्ध करने पर इसके विपरीत हो जाते हैं और तब उनके अस्वाद को दबाने के लिए तेज पदार्थों का उपयोग किया जाता है, ये पदार्थ स्वादेन्द्रिय को उत्तेजित करते हैं और उस उत्तेजना की अवस्था में मनुष्य समझता है कि यह सब बड़ा स्वाद बना है लेकिन उसके बाद चटोरापन और स्वाद के चक्कर में वह पड़ जाता है लिप्सा उसे घेर लेती है। और वह लोलुप सा होने लगता है पर जो लोग मसाले आदि पदार्थों का सेवन त्याग देते हैं और सात्विक आहार की शरण लेते हैं ऐसे संयमी पुरुषों से जड़ता और तन्द्रा दूर से ही प्रणाम करती है, चटोरपन उनके पास नहीं फटकता। अनेक लोगों ने इसका अनुभव किया है।

चाय, काफी, शराब जैसे उत्तेजक पदार्थों के सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनका पाचक संस्थानों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। शराब और तम्बाकू जैसे पदार्थ तो फेफड़ों पर अपना बुरा असर डालते हैं जो प्राण और जीवनी शक्ति के ग्रहण करने का प्रमुख आधार है उसकी दुर्गति का यह इतिहास मनुष्य को हिला देने वाला है लेकिन स्वाद तथा फैशन की गुलामी में जकड़े मनुष्य उसकी महिमा का ही वर्णन करते पाये जायेंगे।

भोजन जहाँ स्वास्थ्य देता है, पोषण करता है वहाँ वह भोजनकर्त्ता को खा भी जाता है। इसलिए भोजन में जीवन का एक मुख्य अंग है-भोजन की सादगी। फलों तथा दूध का सेवन तथा जहाँ तक संभव हो अनाज को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अग्नि से बचाकर उसे स्वाभाविक रूप में खाने से स्वास्थ्य एवं जिन्दगी को बनाये रखने तथा बढ़ाने का मूल मंत्र है। जो इस मंत्र को याद रखते हैं वे रोग, दोष और अकाल मृत्यु से सुरक्षित रहते हैं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: