उन्नति के पथ पर

November 1948

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(श्री नन्दकिशोर जी, पिलानी)

प्रत्येक पुरुष में उन्नति की भावना हमेशा विद्यमान रहती है। उसके हृदय में अपने आप को दूसरों से अलग अनुभव करने की एक हूक सी उठती है। वह चाहता है कि मनुष्य मेरा आदर करें और मेरा नाम उन्नति शील पुरुषों की तरह प्रसिद्ध हो जाये। मनुष्य प्रायः प्रत्येक कार्य इसी उद्देश्य को लेकर करता है।

यह उन्नति की भावना एक ऐसी जल धारा है जिसका प्रवाह कभी बंद नहीं होता परन्तु प्रवाह की दिशा बदल सकती है। जब मनुष्य एक तरफ उन्नति नहीं कर पाता तो दूसरी ओर पिल पड़ता है। विद्यार्थी जब पढ़ाई में सबसे आगे नहीं हो सकता तो वह खेलों में प्रसिद्ध होना चाहता है। यदि वहाँ भी सफलता प्राप्त न हो तो वह मजाक, बदमाशी, अधिक बोलना, या कम बोलना-इनमें ही वह साथियों से कहलवा लेना चाहता है कि वह ऐसा ही है। एक प्रकार वह उन्नति अवश्य करता है परन्तु यह नहीं कह सकते कि उसकी उन्नति से जगत् की कितनी उन्नति हुई है।

जब मनुष्य उन्नति करता है या करना चाहता है, तो सबसे पहली कमी जो पथारुढ़ होने से उसे रोकती है वह है आत्म विश्वास की कमी। जब मनुष्य कार्य क्षेत्र में प्रवेश करता है तो दूसरे उन्नत पुरुषों को देखकर उसकी हिम्मत पस्त हो जाती है। “मैं कहाँ, ये कहाँ। जमीन आसमान का अन्तर हैं इनके आगे मेरी कैसे पेश चलेगी।” आदि क्षुद्र विचार उसके नवपल्लवित शुभ विचारों पर आक्रमण कर देते हैं।

जीवन के प्रत्येक कार्य क्षेत्र में एक से एक बढ़कर मनुष्य हैं यदि ऐसे ही विचार हों, तो उन्नति असम्भव है, क्योंकि वह मनुष्य ऐसे क्षेत्र में जाना चाहेगा जिसमें कम प्रतिद्वन्दी हों और वे उससे हरेक बात में कम हो, परन्तु ऐसा सम्भव नहीं। अतः उन्नति के प्रत्येक क्षेत्र में धैर्य और साहस तथा आत्म विश्वास की अत्यावश्यकता है। झुंझलाहट और जल्दबाजी उन्नति नहीं होने देती। उन्नति करते हुये यही ध्यान रखना चाहिये कि बस उन्नति करनी है। दूसरे उन्नत पुरुषों से आगे निकलना है इसके साथ-साथ यह भी ख्याल रखे कि कुछ भी न करने या अस्थिरता से करने की अपेक्षा एक निश्चित दिशा में स्थिरता से कुछ न कुछ निरंतर करते रहना अच्छा है। इससे अवनति की तो सम्भावना है ही नहीं परन्तु उन्नति कुछ न कुछ अवश्य होगी।

मेरे एक मित्र हैं जो बड़े जल्दबाज हैं और किसी कार्य को धैर्यपूर्वक नहीं करते। वे व्यायाम तो करते नहीं और करते भी हैं तो चाहते हैं कि “बस एक बार ही जल्दी से मोटा हो जाऊं और शरीर बना लूँ।” एक बार तो दूध के उफान जैसा जोश आता है परन्तु धीरे-धीरे धैर्य की कमी के कारण वह जोश ठंडा होने लगता है और खत्म हो जाता है। यही हाल पढ़ाई का है। वे चाहते हैं कि एक बार ही दिमाग में वृद्धि हो और फिर सभी कुछ याद कर ले। उन्हें जब यह बताया जाता है कि पढ़ने से मस्तिष्क बढ़ता है, तो कुछ पढ़ते हैं। परन्तु फिर दिमाग थकने लगता है तो कह उठते हैं “दिमाग बढ़ता ही नहीं।” वे फिर पढ़ नहीं सकते। वे कहते हैं पीछे याद किया नहीं, आगे का कैसे करूं? परन्तु वे महाशय न पीछे का याद करते हैं न आगे का। ऐसे मनुष्य यही चाहते हैं कि ऐसी बूटी घोट कर पिला दी जाय कि सभी कुछ एक बार में ही याद हो जाय।

प्रायः यह देखा जाता है कि जब कोई उत्साही विद्यार्थी भाषण देने के लिये मंच पर जाता है तो दूसरे लड़के उसे निरुत्साहित करने के लिये तालियाँ पीट देते हैं। इन लड़कों में या तो ऐसे लड़के होते हैं जो स्वयं स्टेज पर नहीं बोल सकते या ऐसे होते हैं जो उसकी उन्नति से ईर्ष्या करते हैं और उसे पतित करना चाहते हैं। संसार में लगभग ऐसे ही मनुष्य हैं जो स्वयं तो उन्नति कर नहीं सकते और दूसरों के भी उन्नति पथ में रोड़े अटकाते हैं ऐसे पुरुषों की परवाह न करके हमें तो केवल बढ़ना ही चाहिये। क्योंकि उन्नति को कष्टसाध्य समझने वाले मानव उन्नति पथ पर आपकी खिल्ली उड़ायेंगे और आपको निरुत्साहित करने की कोशिश करेंगे। परन्तु यदि आप उनकी ओर ध्यान देंगे तो आपको अपनी ही उन्नति से भय लगेगा जैसे पर्वत की चोटी पर चढ़े हुए पुरुष को उसके नीचे देखने से।

केवल ख्याति पाना ही तो उन्नति नहीं है। ख्याति तो चोर, डाकू, बदमाश आदि भी प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी उन्नति से मनुष्यता को लाभ नहीं है। सात्विक तथा शुद्ध उन्नति ही संसार का भला कर सकती है। शुद्ध तथा दृढ़ संकल्प ही ऐसी उन्नति की पहली सीढ़ी है। और फिर उन्नति सभी के हृदयों में अंकुर रूप से विद्यमान है। सुविचारों और सुसंगति के पानी से यह अंकुर विशाल वृक्ष में परिणत हो जाता है। यह तो एक महोदधि है। मनुष्य कई बार असफल प्रयत्न होने पर भी साहस नहीं तोड़ते, वे ही मनुष्य रत्न अमूल्य रत्न ले आते हैं। उन्नति करते हुए यह ध्यान रहे कि उन्नति किसी को खोजती नहीं परन्तु वह खोजी जाती है। इसके लिये देखिये की आप से उन्नत कौन है। उनके संघ में रहिये और उन्नत होने का प्रयत्न करते रहिए।

कोई बुरा कार्य न करो। सोचो कि इस कार्य के लिये मनुष्य क्या कहेंगे। बुरे कार्य के कारण अपमानित होने का डर ही उन्नति का श्रीगणेश है। उन्नति करती है तो अपने आपको अनन्त समझो और निश्चय करो कि मैं उन्नति पथ पर अग्रसर हूँ। परन्तु अपनी समझ और अपने निश्चय को यथार्थ बनाने के लिये कटिबद्ध हो जाओ। अपने अनंत विचारों को शब्दों की अपेक्षा कार्य रूप में प्रगट करो। प्रयत्न करते हुए अपने आपको भूल जाओ। जब तुम अनन्त होने लगो तो अपने आपको महाशक्ति का अंश मान कर गौरव का अनुभव करो, परन्तु शरीर, बुद्धि और धन के अभिमान में चूर न हो जाओ। यदि उन्नति के कारण आपको अभिमान हो गया तो मध्याह्न के सूर्य की भाँति आपका पतन अवश्यंभावी है।

जब आप उन्नति पथ पर अग्रसर हैं तो भूल जायें कि आप कभी नीच, तथा दुष्ट-बुद्धि और पतित थे। निश्चित करो कि मेरा जन्म ही उन्नति के लिये हुआ है और ध्येय की प्राप्ति में सुध-बुध खो दो। और जब भी आपमें हीन विचार आये तो सोचो कि-जब वेश्या पतिव्रता हो गई तो उसे वेश्या कहना पाप है। दुष्ट जब भगवत् शरण हो गया, तो वह दुष्ट कहाँ रहा? जब लोहा पारस से छू गया तो उसमें लोहे के परमाणु भी तो नहीं रहे। इसी तरह जब मैं उन्नति पथ पर अग्रसर हूँ तो अवनति हो ही कैसे सकती है?

वीर्य संचित होने से मस्तिष्क में प्रबल शक्ति आती है और इस महती शक्ति के सहारे एकाग्रता साधन करना सहज हो जाता है।

उत्तम विचारों के मन में लाने से उत्तम कार्य होते हैं और उत्तम कार्यों के करने से जीवन उत्तम होता है और उत्तम जीवन से आनन्द की प्राप्ति होती है।

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