साधक की दो विपत्तियाँ

November 1948

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(श्री अरविन्द)

तमोगुण की प्रधानता रखने वाला व्यक्ति दो प्रकार की विपत्तियों में फँस सकता है। पहली विपत्ति है अपने को हीन समझना- मैं दुर्बल हूँ, घृणित हूँ, अकर्मण्य हूँ, आदि भावनायें उठने से वह समझने लगता है कि मैं सबसे नीच हूँ भगवान मुझ जैसे नीच का कैसे उद्धार कर सकते हैं। ऐसा मालूम होता है कि सोचने वाला भगवान की शक्ति का सीमित मानता है और भगवान गूँगे को बोलने की शक्ति तथा लंगड़े को चलने की शक्ति दे देते हैं यह बात असत्य समझता है। दूसरी विपत्ति है जरा सी सिद्धि पा जाने पर साधना से मुँह मोड़ लेना और प्राप्त सिद्धि को सब कुछ समझ कर उसी के भोग में लग जाना। साधना की ये दोनों ही विपत्तियाँ विघ्न हैं। इसलिए साधक को सदा इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि वह भी भगवान का अंश है और भगवती महा माया आदि शक्ति उसके अन्तराल में बैठी हुई उसका संचालन कर रहीं हैं। सर्व शक्तिमान भगवान की लीला के अधीन होकर चुपचाप बैठे रहना साधक के लिए उचित नहीं है। यह तो उसके अहंकार की विद्यमानता का फल है जब तक अहंकार रहता है तब तक वास्तविक धारणा का उत्पन्न होना ही सम्भव नहीं है इस लिए अहंकार को निर्मूल कर देने पर ही साधक उन विपत्तियों से बच सकता है।

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