साधना की अनुकूलता

November 1948

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(श्री अरविन्द)

साधना के समय साधक को साहस और धैर्य रखने की आवश्यकता है। सिद्धि मिलने में कितना भी समय क्यों ना लगे साधक को घबराना नहीं चाहिए। यहाँ तक कि यदि सिद्धि मिलने के पहले कोई अनर्थकारी घटना भी घट जावे तब भी घबराकर अपनी साधना नहीं छोड़ देनी चाहिए। भगवान सर्वशक्ति मान हैं, इसलिए वे कितने ही भयंकर गड्ढे में चाहे क्यों न फेंक दें फिर भी किसी न किसी दिन वे हमारा वहाँ से अवश्य उद्धार करेंगे यह निश्चित है।

साधक के लिए उत्तेजना और व्याकुलता भी छोड़ने जैसी है। कभी कभी साधक को दिखाई देता है। जैसे कि वह सिद्धि के क्षेत्र में बहुत दूर पहुँच गया है और कभी भी पीछे मालूम होने लगता है कि वह जहाँ का तहीं है, तिलमात्र भी आगे नहीं बढ़ा ऐसे ही अवसरों पर उत्तेजना या घबराहट आ जाती है। लेकिन जिन लोगों का आत्मसमर्पण का व्रत सम्पन्न हो चुका होता है वे इन सबसे मुक्त रहते हुए निश्चित और संतुष्ट रहते हैं। और इसीलिए उन्हें सिद्धि भी शीघ्र ही प्राप्त होती है।

यद्यपि साधना का काम अत्यन्त कठिन है। पर जो आरंभ में दृढ़ विश्वास के साथ अग्रसर होते हैं उनके लिए यह मार्ग अत्यन्त सरल हो जाता है। क्योंकि दृढ़ता होने पर मनुष्य की प्रकृति साधना के अनुकूल हो जाती है और साधना की अनुकूलता ही सिद्धि प्राप्ति का साधन है।

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